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पीएम मोदी चीन-अमेरिका पर नेहरू और शास्त्री से क्या सीख सकते हैं? 

क्यों अभी हम चीन को रोकने के लिए अमेरिकी दोस्ती पर फूले न समाएं?

राघव बहल
नजरिया
Published:
क्यों अभी हम अमेरिकी दोस्ती पर फूले न समाएं?
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क्यों अभी हम अमेरिकी दोस्ती पर फूले न समाएं?
(फोटो: क्विंट हिंदी)

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भारत और अमेरिका गहरे दोस्त बन गए हैं.

मैंने अपनी दो किताबों में इसे ‘इनएविटेबिलिटी ऑफ हिस्ट्री’ यानी इतिहास की अनिवार्यता कहा है. जाहिर सी बात है, अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो और रक्षा मंत्री मार्क एस्पर ने काफी नाजुक दौर में भारत में कदम रखा है. उधर अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव में कुछ ही दिन बचे हैं (संभव है कि ट्रंप चुनाव हार जाएं). इधर भारत गलवान घाटी में अपने सैनिकों की हत्या के जख्मों को सहला रहा है. ऐसे में सैन्य समझौतों के लिए अमेरिकी मंत्रियों का भारत दौरा इस बात का संकेत देता है कि अंकल सैम चीन का हाथ झटकने की कोशिश कर रहे हैं.

भारत-अमेरिकी रिश्ते को देखकर मुझे रोमांचित होना चाहिए, और मैं हूं भी. लेकिन एक बेचैनी भी है. एक पूर्वाभास है. ऐसा न हो कि हम इस नातेदारी से बेफिक्र हो जाएं. चूंकि इतिहास मुझे लगातार असहज करता है.

  • 2002: वाजपेयी सरकार ने सैन्य समझौता- द जनरल सिक्योरिटी ऑफ मिलिट्री इन्फॉर्मेशन एग्रीमेंट (GSOMIA) किया.
  • 2005: जून 2005 में रक्षा मंत्री प्रणव मुखर्जी ने रक्षा सहयोग के 10 वर्षीय फ्रेमवर्क पर दस्तखत किए.
  • 2008: प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भारत अमेरिका असैन्य परमाणु संधि पर अपनी सरकार दांव पर लगाई.
  • 2016: मोदी सरकार ने लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट (LEMOA) पर दस्तखत किए.
  • 2018: COMCASA यानी कम्यूनिकेशन कंपैटिबिलिटी एंड सिक्योरिटी एग्रीमेंट हुआ.
  • 2020: अब BECA, यानी बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट हुआ है, जिसके तहत भारत अमेरिकी सेटेलाइट्स और जियोस्पेशियल इंटेलीजेंस के साजो सामान से जुटाई जाने वाली सूचनाओं का फायदा उठा पाएगा और उनके जरिए अपने दुश्मनों को जवाब दे पाएगा.

क्या सचमुच हमें घबराने की जरूरत नहीं?

अमेरिकी मंत्रियों ने कड़े शब्दों के साथ अपने रुख को जाहिर किया.

‘हमारे नेता और नागरिक यह देख सकते हैं कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी लोकतंत्र की हितैषी नहीं है, न ही वो कानून को मानती है और न पारदर्शिता को.’

पॉम्पियो ने जोरदार स्वर में यह कहा था.

एस्पर ने भी दोहराया था,

‘हम चीन की आक्रामता और अस्थिर करने वाली गतिविधियों के खिलाफ कंधे से कंधा मिलाकर एक दूसरे के साथ खड़े हैं.’

भारत के लिए ये स्वर मधुर संगीत जैसे हैं. प्रबुद्ध पत्रकार जश्न मना रहे हैं. जैसे हमने चीन को हमेशा के लिए पछाड़ दिया है. जैसे अब हमें किसी से भी घबराने की जरूरत नहीं है. और इस तरह एक भयानक हकीकत शोर-शराबे में दफन हो गई...

अमेरिकी दोस्ती पर फूले न समाएं

हकीकत यह है कि हमारी अर्थव्यवस्था बेहद कमजोर है. दूसरी तरफ चीन ज्यादा से ज्यादा ताकतवर हो रहा है. अगर यह स्थिति बरकरार रही तो चीन की अर्थव्यवस्था जल्द हमसे छह गुनी हो जाएगी. यही मेरी बेचैनी की वजह है.

आज हम इस भरोसे के चलते फूले नहीं समा रहे कि बड़े भैय्या सबकी भलाई करेंगे. लेकिन जरा इतिहास के पन्ने पलट कर देखिए. 1960 में जब हालात आज से बहुत अलग थे, हमने अस्तित्व का एक कठिन पाठ पढ़ा था. वह आज भी प्रासंगिक है.

1962 का चीन युद्ध और उसके बाद सूखे को याद कीजिए

1962 में भारत-चीन जंग हुई थी. उस समय अमेरिका के पास यह मौका था कि वो पाकिस्तान को नाराज किए बिना भारत की मदद कर सके. आखिर, पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान बार-बार यह कहा करते थे कि उनके देश ने अमेरिकी हथियार इसीलिए खरीदे हैं ताकि वो कम्युनिज्म का मुकाबला कर सके. ऐसे में अगर भारत इसी मकसद से अमेरिकी हथियार खरीदता तो पाकिस्तान नाराजगी क्यों जाहिर करता. अमेरिकी राष्ट्रपति कैनेडी ने भी अयूब खान को भरोसा दिलाया था कि भारत को सिर्फ ‘फौरी जरूरत’ के लिए अमेरिकी हथियार दिए जा रहे हैं, और वो ‘सिर्फ चीन के खिलाफ इस्तेमाल’ के लिए हैं.

पाकिस्तान के राष्ट्रपति मोहम्मद अयूब खान के साथ अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी(फोटो: John F Kennedy Presidential Library & Museum)  

अमेरिका ने भी चालाकी दिखाई थी. उसने भारत को भारी और खतरनाक हथियार नहीं दिए थे जिन्हें पाकिस्तान के खिलाफ इस्तेमाल किया जाता. नवंबर में जब चीनी सेना भारत पर हावी होने लगी तो प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कैनेडी से हवाई मदद मांगी. अच्छा हुआ कि कैनेडी के जवाब देने से पहले चीन ने युद्ध विराम की घोषणा कर दी और पीछे हट गया. अमेरिका की स्थिति भी नाजुक नहीं हुई.

नेहरू के साथ कैनेडी(फोटो: Wikimedia Commons)
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अमेरिकी मीडिया भारतीय नेताओं को भिखारी बता रहा था

इसके बाद राष्ट्रपति कैनेडी की हत्या हो गई और लिंडन जॉनसन राष्ट्रपति बन गए. भारत में प्रधानमंत्री बने लाल बहादुर शास्त्री. इसके बाद भारत और पाकिस्तान का युद्ध हुआ और दो बार सूखा पड़ा. जब 1965 में भारत ने गेहूं सहायता कार्यक्रम पीएल-480 के तहत अमेरिका से मदद मांगी तो जॉनसन ने साफ इनकार कर दिया. उन्होंने भारत और पाकिस्तान को सभी तरह की सहायता देने की योजना को एकाएक रोक दिया और कहा कि उनकी सरकार ‘सहायता कार्यक्रमों पर ज्यादा खर्च नहीं करना चाहती.’

लाल बहादुर शास्त्री(फोटो: Getty Images)
1954 में जब पीएल-480 शुरू हुआ था, तब भारत ने 10 लाख टन अनाज आयात किया था. इसके दस साल बाद आयात 55 लाख टन हो गया था. यह बढ़ोतरी आबादी के बढ़ने के कारण हुई थी. जब भारत में भयानक सूखा पड़ा तो उस साल अनाज का उत्पादन 890 लाख टन से घटकर 720 लाख टन हो गया. जॉनसन ने ‘शॉर्ट टिथर’ नीति अपनाई. उन्होंने पहले दो महीने का अनाज और फिर एक बार में एक महीने का अनाज भेजने को मंजूरी दी. वह सहायता तो भेज रहे थे लेकिन भारत सरकार को इस बात के लिए मजबूर कर रहे थे कि वो अपनी कृषि नीति में सुधार करे.

इसके बाद सूखे का प्रकोप जारी रहा पर जॉनसन ने और कड़ा रुख अपना लिया. उन्होंने ‘शिप टू माउथ’ नीति लागू की. यानी मदद इतनी कम दी गई कि सरकार अनाज को भंडार में नहीं रख सकती थी. इसे सीधे लोगों को दिया जाने लगा. यह लोगों का पेट भरने के लिए पर्याप्त नहीं था. अलबामा के एक अखबार ने तो जख्मों पर नमक छिड़ने का काम किया. उसने लिखा- नए भारत के नेता भीख मांग रहे हैं.

भारत ने अपने पैरों पर खड़ा होना सीखा

यह बेइज्जती बहुत थी. भारत के नेताओं और वैज्ञानिकों ने कम पैदावार की समस्या को सुलझाने का फैसला किया. वैज्ञानिक नॉर्मन ई बोरलॉग मैक्सिको में गेहूं की हाइब्रिड बौनी किस्म पर प्रयोग कर रहे थे. भारत के कृषि मंत्री सी सुब्रमण्यम ने प्रयोग के तौर पर मैक्सिकन बीजों की रोपाई के लिए कहा. इन बीजों के कारण प्रति हेक्टेयर 5,000 किलो गेहूं की पैदावार हुई जो भारतीय किस्म के गेहूं की पैदावार से पांच गुना ज्यादा था. इसके बाद उन्होंने 150 खेतों में किसानों को सीधे इस बीज को लगाने को कहा. उन्होंने नई दिल्ली के अपने बंगले में भी इन बीजों को रोपा.

1966 में भारत ने बोरलॉग से 18,000 किलो बीज मंगाए थे. 1968 में गेहूं की पैदावार 1964 की तुलना में 120 लाख टन से बढ़कर 170 लाख टन हो गई. पहली बार अनाज का उत्पादन 1000 लाख टन पर पहुंच गया (इस साल उत्पादन लगभग 3000 लाख टन के करीब है). भारत इसे हरित क्रांति कहता है. इसके बाद कई बड़े बदलाव हुए. 1970 में ऑपरेशन फ्लड या श्वेत क्रांति ने दूध का उत्पादन बढ़ाया. ऑयलसीड मिशन ने एक दशक में उत्पादन को दोगुना किया. पोल्ट्री रिवोल्यूशन चुपचाप तरीके से हुआ, लेकिन इसके चलते लोगों की आय में इजाफा हुआ. 1961 में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष अंडे की उपलब्धता सात थी, जो अब बढ़कर 75 हो गई है!

इसी तरह आर्थिक क्रांति की अलख जगानी होगी

तो, भारत चीन को रोकने के लिए सिर्फ अमेरिकी हथियारों के भरोसे नहीं बैठ सकता. जैसे हम कृषि क्षेत्र में अपने पैरों पर खड़े हुए, उसी तरह हमें दोहरे अंकों वाली आर्थिक वृद्धि को हासिल करने के लिए आर्थिक क्रांति की अलख जगानी चाहिए. चीन के साथ छह गुने अंतर को तभी कम किया जा सकता है और हम सुरक्षित और सुखी रह सकते हैं.

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