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2002 की गर्मियों में शुरू हुए ऑपेरशन पराक्रम के ठीक कुछ दिनों बाद कालूचक के एक आर्मी कैंप पर आतंकी हमला हुआ. मई 2002 में इस आर्मी कैंप पर हमले में सैनिकों के परिवारों के कई सदस्य मारे गए थे. इस हमले के बाद सेना के एक रिटायर्ड चीफ ने सांसदों और रणनीतिक विशेषज्ञों के सामने परमाणु हमले की संभावनाओं के साये में पाकिस्तान से सीमित युद्ध पर एक प्रजेंटेशन दिया था.
इसे भूलना नहीं चाहिए कि ऑपरेशन पराक्रम 1971 के बांग्लादेश युद्ध के बाद भारतीय सेना का एक मात्र सबसे बड़ा सैनिक अभियान था. यह ऑपरेशन भारतीय संसद पर आतंकी हमले का नतीजा था.
यह 1987 के उस ऑपरेशन ब्रासटेक्स से भी बड़ा था, जिसने पाकिस्तान के तत्कालीन तानाशाह जिया उल हक को लगभग यह विश्वास दिला दिया था कि भारत उनके देश के खिलाफ हमले की तैयारी करने वाला है. भारत पर 2001 में दो आतंकी हमले हो चुके थे. एक जम्मू-कश्मीर की असेंबली और दूसरा दिसंबर में देश की संसद पर. फिर कालूचक के हमले ने तो जैसे भारतीय नेतृत्व के सब्र का बांध ही तोड़ दिया.
देश में युद्ध और आक्रोश का माहौल था. माहौल बदला लेने की भावना से भरा हुआ था. सेना पहले से ही लड़ाई की मनोदशा में थी. दोनों ओर के दस लाख सैनिक अपने हथियार और गोला-बारूद के साथ आमने-सामने खड़े थे.
इसके कुछ महीनों पहले ही भारत अपनी एक स्ट्राइक फोर्स को लगभग बर्खास्त कर चुका था. दरअसल अंबाला स्थित सेकेंड स्ट्राइक कोर,जिसे खरगा कोर के नाम से भी जाना जाता है की स्वर्गीय जनरल कपिल विज के कमान की कुछ टुकड़ियां इंदिरा गांधी नहर को पार कर गई थी और इसने हमले की पोजीशन ले ली थी.
यह जगह अंतरराष्ट्रीय सीमा से महज दो किलोमीटर दूर है. भारतीय सेना के इस पैंतरे से पाकिस्तान बुरी तरह घबरा गया और उसने अमेरिका को इसकी शिकायत की. अमेरीकियों ने 24x7 सैटेलाइट फीड के जरिये इस शिकायत की पुष्टि की और उसने तत्कालीन एनडीए सरकार पर न्यूक्लियर महायुद्ध शुरू करने का आरोप लगाया.
अमेरिकी दबाव ने असर दिखाया और एनडीए सरकार तुरंत पीछे हट गई.
अमेरिका को शांत करने के लिए जनरल विज की बलि ले ली गई. जबकि वह सिर्फ युद्ध की स्टैंडर्ड प्रक्रिया के तहत ही कार्रवाई कर रहे थे. यहां यह याद रखना जरूरी है कि यह सब कारिगल में 1999 के जून-जुलाई में घुस आए पाकिस्तानी घुसपैठियों को भगाने के महज तीन साल बाद हो रहा था. कारगिल के इस युद्ध में हमारे अफसरों और सैनिकों को भारी बलिदान देना पड़ा था क्योंकि उन्होंने बर्फीली ढलानों पर चढ़ कर लड़ाई लड़ी थी. दुश्मन ऊपर थे और हम नीचे. यह क्रीमिया के युद्ध में लाइट ब्रिगेड की कूच की तरह था, जिसे लॉर्ड टेनिसन ने अपनी कविता - इन द वेली ऑफ डेथ रोड द सिक्स हंड्रेड – में अमर कर दिया है.
बहरहाल, उस पूर्व आर्मी चीफ के पावर प्वाइंट प्रजेंटेशन पर आते हैं, जिसके बारे में वहां मौजूद एक स्टाफ ने बताया था. जैसे-जैसे पावर प्वाइंट प्रजेंटेशन बढ़ रहा था, यह तय हो गया था कि परमाणु युद्ध शुरू करने की हदें काफी डायनेमिक थीं.
आखिर वे हदें क्या होतीं, जिनसे परमाणु युद्ध शुरू हो सकता था?
भारत अंतरराष्ट्रीय सीमा या नियंत्रण रेखा पार कर ले. लाहौर पर हमला कर दे या फिर क्वेटा पर हमला कर दे, जहां पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम विकसित किए जाते हैं. ये सारे पैमाने अस्पष्ट थे. बहरहाल भारत-पाकिस्तान के बीच परमाणु युद्ध की इन सारी अवधारणाओं पर अनिश्चितता की धुंध ही लिपटी रही. यह पाकिस्तान की उस बदली हुई रणनीति से पहले की बात है, जब उसने परमाणु सामग्री को बड़ी चालाकी से अपने हथियारों में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था.
उस दौर में राजनीतिक नेतृत्व के लिए यह बड़ा मुश्किल हो गया था कि एक्शन-रिएक्शन के किसी ठोस अनुमानित वजह के बगैर युद्ध का फैसला कर ले. इस पूरे परिदृश्य में एक चीज स्थिर थी और वह यह कि समीकरण अस्थिर बने हुए थे. जबकि उस दौरान इंडियन आर्मी के सिपाही एलओसी के नजदीक गश्त कर रहे थे.
ऑपरेशन पराक्रम में जो कवायद शुरू हुई थी उसमें फोर्स के किसी एक जगह से युद्धस्थल तक पहुंचने के बीच का समय इतना था कि दुश्मन को इसकी काट के लिए पर्याप्त समय मिल रहा था. इसके बाद ही कोल्ड स्टार्ट सिद्धांत सामने आया, जिसमें आर्मी मोबिलाइजेशन का वक्त घटा कर 48 घंटे या इससे भी कम किया जा सके. इसमें पूरी कोर को ले जाने के बजाय हमलावर कोर को ले जाया जाता है. हालांकि भारत ने सार्वजनिक तौर पर इस तरह के सिद्धांत अपनाने से इनकार किया है.
ऑपरेशन पराक्रम का कोई तार्किक नतीजा न निकलते देख तत्कालीन पीएम अटल बिहारी वाजपेयी ने इसे नवंबर 2002 में रोक दिया था. 11 महीने की इस कवायद के दौरान मिलिट्री की आवाजाही और फ्रेंडली फायरिंग में बड़ी तादाद में सैनिक मारे गए और घायल हुए.
लेकिन हमारी सेना को एक बड़ा सबक मिला.
पाकिस्तान के प्रति लोगों के गुस्से के बावजूद वाजपेयी ने 1999 के बसंत में साहसिक लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण लाहौर यात्रा के दौरान मीनार-ए-पाकिस्तान जाकर उसके अस्तित्व को स्वीकारा.
इसके बाद 2002 से 2004 के बीच भारत और पाकिस्तान के रिश्ते कई बार टकराहट की चरम पर पहुंचते दिखे. वाजपेयी की यह यात्रा लोगों की भावनाओं को शांत करने की कवायद बन कर रह गई.
वर्ष 2004 में यूपीए की सरकार आने के बाद से पाकिस्तान की ओर से आतंकी हमले होते रहे. लेकिन ऐसे में जब भी लोगों ने पमाणु युद्ध जैसे विकल्प की बात की तो परिस्थितियां पहले जैसी अस्थिर थीं. यहां तक कि 26/11 के हमले के बाद भी युद्ध के विकल्प पर गौर नहीं किया गया क्योंकि उनके सेनाध्यक्षों ने उन्हें सलाह दी थी युद्ध विकल्प नहीं है.
डिप्लोमेसी ही ऐसा औजार है जिससे इस समस्या का अंत हो सकता है भले ही यह ज्यादा असरदार साबित न हो.
अब जब देश में शासन बदल गया है और मोदी जी राज में हैं तो भी जमीनी हालात नहीं बदले हैं. परमाणु युद्ध से जुड़े समीकरण अब भी यथावत हैं. कोई भी सैन्य हालात या वार गेमिंग निश्चित तौर पर यह नहीं बता सकती कि भारत पाकिस्तान के बीच कोई लड़ाई सीमित रह सकती है या फिर पूरी फैल सकती है.
जब रणभेरी बजती है और सेनाएं कूच करती हैं तो तमाम सैन्य सलाहें बेकार हो जाती हैं. अतार्तिकता की भविष्यवाणी का कोई तार्किक तरीका नहीं है. हर आतंकी हमले के साथ ही पीएम की बढ़-चढ़ कर की गई बातें खोखली साबित हुई हैं.
अपनी झुंझलाहट और झेंप मिटाने के लिए उन्होंने युद्धोन्माद की इस आवाज को हमेशा ऊंचा रखा है.
उनके सामने वाजपेयी जी के जमाने के ढर्रे पर नजर टिकाए रखने के अलावा कोई चारा नहीं है, जब न तो पाकिस्तान के साथ शांति थी और न ही युद्ध हो रहा था. 2016 से मई 2019 तक यही स्थिति रहने वाली है.
फिर न दोहराया जाए उड़ी
बहरहाल, इस परेशान कर देने वाले अंतराल में प्रधानमंत्री के दौरान पहला काम जो करना चाहिए वह यह है कि वह बोलना कम कर दें. जरा उन बहादुर सैनिकों के बारे में सोचें जिन्होंने उरी अटैक में अपनी जान दे दी. इसके बजाय ठोस कदम उठाने पर जोर हो. भारत उरी अटैक जैसे आतंकी हमलों को रोकने की क्षमता विकसित करे. सबसे अच्छी स्थिति तो यह होगी कि उरी जैसे हमले दोबारा न हों.
(लेखक कांग्रेस के नेता हैं और यूपीए सरकार में मंत्री रह चुके हैं. ये लेखक के अपने विचार हैं.)
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Published: 24 Sep 2016,04:14 PM IST