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PMLA: ड्रग्स माफिया पर शिकंजा कसने से लेकर आलोचकों और किसानों को चुप कराने तक?

2024 की शुरुआत में, ED द्वारा दो किसानों को PMLA के तहत समन जारी किए जाने की खबर सामने आई.

अभिनव सेखरी
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>2024 के पहले दिन ED द्वारा दो किसानों को PMLA के तहत समन जारी किए जाने की खबर सामने आई. </p></div>
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2024 के पहले दिन ED द्वारा दो किसानों को PMLA के तहत समन जारी किए जाने की खबर सामने आई.

(फोटो: क्विंद हिंदी द्वारा एडिटेड)

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पिछले दशक में (2013-2023) कानूनी हल्कों से निकलकर आम लोगों की बातचीत का हिस्सा बन गए कई शब्दों में, PMLA और ED भी शामिल हैं. प्रिवेंशन ऑफ मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट, 2002 के तहत प्रवर्तन निदेशालय (ED) की तरफ से दर्ज मामलों की संख्या में इस दशक में जबरदस्त बढ़ोत्तरी हुई है, जिसमें ताजा मामला आम आदमी पार्टी (AAP) और दिल्ली एक्साइज पॉलिसी मामले के संदर्भ में दर्ज केस का है. संसद में दिए गए एक जवाब से पता चलता है कि 2018-19 में कुल 195 मामले दर्ज किए गए, जबकि 2022 के शुरुआती दो महीनों में ही 579 मामले दर्ज किए जा चुके थे.

इन ताबड़तोड़ कार्रवाइयों का देश के लिए क्या मतलब है? जवाब स्वाभाविक रूप से इस बात पर निर्भर करता है कि आप सवाल किससे पूछ रहे हैं.

आलोचकों के लिए PMLA और ED एक और दमनकारी एब्रिवेशन MISA (मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट 1971) की याद दिलाते हैं, क्योंकि इसमें भी जांच और जमानत के मामले में सख्त प्रावधान हैं और ED द्वारा केंद्र सरकार की आलोचना करने वालों को चुनिंदा तरीके से निशाना बनाया जाता है. समर्थकों के लिए, PMLA की कार्रवाइयां कोई चिंता की बात नहीं है, बल्कि यह जरूरी है क्योंकि मनी लॉन्ड्रिंग हकीकत है. सुप्रीम कोर्ट ने भी 2022 में प्रावधानों की वैधता की पुष्टि की है. इसके अलावा, तथाकथित चुनिंदा तरीके से कानून के इस्तेमाल के आरोप में दम नहीं है क्योंकि गलत तरीके से कमाई संपत्तियों को जब्त करने और उन्हें जनता को वापस लौटाने में यह कानून अचूक साबित हुआ है.

तो क्या मामला इतना ही सीधा है जैसे हर सिक्के के दो पहलू होते हैं? मेरी दलील है कि ऐसा नहीं है, और ED जाहिर तौर पर एक के बाद दूसरी सरकारों की शह पर PMLA को जिस दिशा में ले जा रही है, उससे जुड़ी चिंताओं को हमें पूरी गंभीरता से लेना चाहिए.

2002 से 2012 का दौर: सिर्फ ‘गंभीर अपराध’ से ‘हर अपराध’ का बदलाव

PMLA का एक असामान्य विधायी इतिहास है, खासकर अगर हम इसकी तुलना आज से करते हैं जहां जोर इस बात पर है कि पहले कानून पारित कर दिया जाए और विचार-विमर्श बाद में होता है. एक अंतर-मंत्रालय समिति को मनी लॉन्ड्रिंग विरोधी कानून तैयार करने का काम सौंपा गया था और 4 अगस्त 1998 को PMLA विधेयक लोकसभा में पेश किया गया. इसने वित्त संबंधी स्थायी समिति में भेजा गया जिसने मार्च 1999 में संसद में अपनी रिपोर्ट पेश की.

इस बीच लोकसभा भंग हो गई तो नया विधेयक (PMLA बिल 1999) पेश किया गया, जिसमें समिति की कई सिफारिशों को शामिल किया गया. यह विधेयक लोकसभा से पारित होने के बाद 8 दिसंबर 1999 को राज्यसभा द्वारा एक चयन समिति को भेजा गया था और इस समिति ने 29 अगस्त 2001 को अपनी रिपोर्ट पेश की थी. समिति के सुझाए संशोधनों को शामिल किया गया और नवंबर 2002 में संशोधित विधेयक संसद से पारित हो गया. (गजट में 17 जनवरी 2003 को प्रकाशित किया गया). आखिरकार इसे 1 जुलाई 2005 को लागू किया गया.

शुरुआती PMLA बिल, दो समितियों की रिपोर्टें और उसको लेकर बहसें, सभी इस बात की पुष्टि करते हैं कि PMLA की परिकल्पना गंभीर अपराधों से पैदा होने वाली अवैध संपत्ति से निपटने के लिए एक उपकरण के रूप में की गई थी, न कि सभी अपराधों के लिए. भारत ने ब्रिटेन जैसे देशों के ‘हर अपराध’ वाले नजरिये के उलट ‘गंभीर अपराध’ के नजरिये को अपनाने का विकल्प चुना था. पहले नजरिये के तहत, PMLA कानून सिर्फ कुछ गंभीर अपराधों से जुटाए काले धन के मामलों से निपटने के लिए लागू होगा, जो इस कानून की अनुसूची में दर्ज किए गए हों. इसमें किसी भी आपराधिक गतिविधि से मनी लॉन्ड्रिंग के दायरे में अवैध संपत्ति जुटाने पर रोक लगाना मकसद नहीं था.

इस सोच पर चलते हुए 1998 की स्थायी समिति यह जानकर “अचंभित” थी कि PMLA की अनुसूची “इतनी व्यापक है कि खातों में हेराफेरी और नकली फायर आर्म्स रखने जैसे अपराध को भी अनुसूची में जगह दी गई है” और उन्होंने इसे काफी ज्यादा छोटा करने की सिफारिश की थी. इस व्यवस्था को परिष्कृत कर अनुसूची में दो-श्रेणी बनाई गई, जिसने PMLA का दायरा बड़ा बनाए रखा लेकिन तथाकथित छोटे अपराधों को ‘पार्ट B’ में रखा गया, ताकि PMLA केवल तभी लागू हो जब कथित दागी संपत्ति 30 लाख रुपये या इससे ज्यादा हो और चुनिंदा गंभीर अपराधों (युद्ध छेड़ना और ड्रग्स के अपराध) को ‘पार्ट A’ में रखा गया, जहां धन की कोई सीमा लागू नहीं थी.

यह वर्गीकरण PMLA के तहत प्रक्रिया की कठोरता के मामले में भी फर्क बनाता था. मामलों में बिना वारंट के गिरफ्तारी की ताकत केवल उसी दशा में थी अगर मामला ‘पार्ट A’ अनुसूची के अपराध से जुड़ा है जिसमें तीन साल से ज्यादा की सजा का प्रावधान था. ऐसे मामलों में धारा 45 के तहत जमानत पर और पाबंदियां लागू होतीं. बाकी सभी मामलों में जमानत का सामान्य कानून लागू होता.

हालांकि 2002 से 2005 के बीच PMLA में कुछ बदलाव किए गए थे, लेकिन ये इसकी अनुसूची और 1 जुलाई 2005 को लागू की गई दो-हिस्से की व्यवस्था से जुड़े नहीं थे. 2008 तक अनुसूची का दायरा और बढ़ाने के लिए अंतरराष्ट्रीय दबाव था. दो-श्रेणी व्यवस्था को खत्म करने के बजाय सरकार ने यह सुनिश्चित करने के लिए कि “कठोर धन शोधन निवारण कानून के प्रावधानों का फील्ड स्तर पर कानून लागू करने वाली एजेंसियों द्वारा दुरुपयोग न किया जाए” एक छोटे पार्ट-A को बनाए रखने का फैसला लिया

इसके साथ ही, दूसरे देशों के मामलों में पैसे की सीमा का नुकसानदायक असर हुआ. मीडिया के दबाव में किए गए PMLA 2008 के संशोधनों में सिर्फ पार्ट-A में आतंकवाद विरोधी अपराधों को शामिल किया गया और मौद्रिक सीमा को कायम रखते हुए पार्ट-B में और ज्यादा अपराध शामिल किए गए, और जहां किसी भी मामले का अगर सरहद पार से संबंध था तो ऐसे मामलों में 30 लाख रुपये की सीमा को खत्म कर दिया गया.

जब यह फैसला लिया गया तो स्थायी समिति ने उसी समय साथ ही अपनी “ख्वाहिश जाहिर की कि सरकार को FATF का पूर्ण सदस्य बनने के लिए जरूरी पहल करनी चाहिए…” न केवल इसलिए कि यह आम महत्व का मामला है, बल्कि इसलिए कि रिपोर्ट दिसंबर 2008 में आई थी और FATF एक और ऐसा मंच था जहां भारत 26/11 के भयानक आतंकवादी हमले के बाद पाकिस्तान के खिलाफ पाबंदियों पर जोर दे सकता था. भारत को FATF की पूर्ण सदस्यता 2010 में मिली और इस सदस्यता की शर्तों में से एक PMLA के ढांचे को और ज्यादा मजबूत बनाने के लिए FATF द्वारा दिए गए सुझावों पर अमल करना (या अमल का वादा करना) था.

FATF द्वारा सुझाए गए या बल्कि दोहराए गए बदलावों में से एक, 30 लाख रुपये की धन की सीमा को पूरी तरह से खत्म करना था. इस बार, संसद ने भी प्रस्ताव का पूरी तरह से समर्थन किया, और इस सीमा को हटाने के साथ ही 2011 PMLA संशोधनों के माध्यम से मौजूदा पार्ट-B के सभी अपराधों को व्यावहारिक रूप से पार्ट-A में डाल कर लागू करने की पहल की गई. इन बदलावों को स्थायी वित्त समिति के पास समीक्षा के लिए भेजा गया, जिसने अपनी 56वीं रिपोर्ट में इनका समर्थन किया. भले ही PMLA अभी भी यूनाइटेड किंगडम द्वारा अपनाए गए ‘हर अपराध’ के दृष्टिकोण से कुछ हद तक दूर है, PMLA के तहत ‘गंभीर अपराध’ दृष्टिकोण के प्रति प्रतिबद्धता अब काफी कमजोर हो गई है.

मगर बात सिर्फ इतनी नहीं थी. याद रखें कि धन की सीमा लागू करने की वजह क्षेत्रीय स्तर की एजेंसियों द्वारा कानून के दुरुपयोग का डर था. यह भी याद रखें कि पार्ट-A बनाम पार्ट-B व्यवस्था में जमानत के नजरिए से बड़ा फर्क था— यहां तक ​​कि छोटे अपराधों से जुड़े PMLA मामलों में भी जमानत अब बहुत मुश्किल है. हालांकि 2012 में कानून में किए गए बदलावों को स्वीकार करते समय 56वीं रिपोर्ट या संसद में बहस के दौरान इन चिंताओं के बारे में शायद ही कहीं आवाज उठाई गई थी. [राज्यसभा का यह संग्रह भी अध्ययन के लिए एक उपयोगी संसाधन है]

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2012 का संशोधन और उसके नतीजे: PMLA को उसकी बंदिशों से आजाद करना

उस शुरुआती दशक में PMLA में कई और बदलाव किए गए थे, जिन्होंने PMLA के केसों में बढ़ोत्तरी में योगदान दिया. लेकिन मेरा मानना है कि PMLA के संशोधनों से इसके दमनकारी कानून में बदलाव को समझने के लिए, महत्वपूर्ण बदलाव गंभीर अपराध दृष्टिकोण को बिना किसी शर्त के बिना यह सोचे इतना कमजोर कर दिया गया कि इस तरह के कदम का प्रक्रिया पर क्या असर होगा– खासतौर से गिरफ्तारी और जमानत के मामले में. संसद की बहस को पढ़ने से पता चलता है कि सदन के ज्यादातर लोगों की अभी भी यह राय थी कि PMLA मुख्य रूप से टेररिज्म फाइनेंसिंग और ड्रग्स के धन से निपटने के लिए एक हथियार बना रहेगा. मगर इसके बजाय जो किया गया वह कहीं ज्यादा गहरा बदलाव लाने वाला था.

यहां एक उदाहरण से समझने में मदद मिल सकती है. IPC की धारा 420 के तहत धोखाधड़ी के हर मामले में जरूरी है कि कुछ धन/संपत्ति एक पक्ष से दूसरे पक्ष के पास गई हो— जिससे किसी को गलत तरीके से नुकसान हुआ हो और किसी को गलत तरीके से फायदा हुआ हो. धोखाधड़ी एक संज्ञेय और गैर-जमानती अपराध है, इसलिए बिना वारंट के गिरफ्तारी की जा सकती है. लेकिन चूंकि इसमें सिर्फ सात साल तक की सज़ा है, इसलिए पुलिस को सिर्फ असाधारण मामलों में ही गिरफ्तारी का निर्देश दिया जाता है, और जमानत के सामान्य नियम तय करते हैं कि किसी व्यक्ति को हिरासत में रखना चाहिए या नहीं. धारा 420 पहले PMLA अनुसूची के पार्ट-B में थी, जिसका मतलब है कि केवल ऐसे मामले जहां दागी संपत्ति का मूल्य 30 लाख से ज्यादा है, PMLA के तहत आएंगे.

इसके अलावा, चूंकि यह पार्ट-B के तहत अपराध था, इसका मतलब था कि जमानत के सामान्य नियम PMLA मामले पर भी लागू होते रहेंगे. 2012 के बाद इसमें बदलाव किया गया और इसे रेट्रोस्पेक्टिव इफेक्ट (पूर्वकालिक प्रभाव) से लागू किया गया. इस तरह धारा 420 के तहत दर्ज कोई भी मामला PMLA के तहत जांच के लिए खुला होगा. और अपने साथ काफी कठोर जमानत की शर्त भी लाएगा, जहां कोई शख्स तब तक जमानत का हकदार नहीं होगा जब तक वह साबित नहीं कर देता कि वह अपराध के लिए दोषी नहीं है. याद रखें कि यह सब किसी अदालत द्वारा अपने फैसले में मुजरिम करार दिए बिना मुमकिन है.

PMLA में 2012 के संशोधनों से बनाई गई इस व्यवस्था में स्पष्ट मनमानी के नतीजे में सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में जमानत वाले हिस्से को रद्द कर दिया. लेकिन संसद ने प्रतिक्रिया देने में देर नहीं की— लोगों को राहत देने और कठोर जमानत नियमों को सिर्फ गंभीर अपराध के आरोप के मामलों तक सीमित करने की कोशिश करने के बजाय, जमानत के मामले में गंभीर अपराध वाले तर्क को पूरी तरह खत्म ही कर दिया. शायद पहली बार, यह तर्क दिया गया कि सभी मनी लॉन्ड्रिंग गंभीर अपराध थे, और इस तरह के वर्गीकरण की कोई जरूरत नहीं थी. जब 2022 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा संशोधित हिस्से की वैधता की समीक्षा की गई, तो उसने सरकार के तर्क को स्वीकार कर लिया.

कोई गलतफहमी न रहे, ‘सभी मनी लॉन्ड्रिंग गंभीर है’ शब्दों का खेल है. निश्चित रूप से हमारे पास अपराध से धन जुटाने वालों से निपटने के लिए मजबूत कानून होना चाहिए. लेकिन क्या इस विधायी हित के लिए एक विशेष कानून का इस्तेमाल करके कथित आपराधिक गतिविधि के माध्यम से कोई भी धन जुटाने से जुड़े सभी मामलों से निपटने की जरूरत है जो जमानत के मामले में हालात काफी खराब बना देता है? ऐसा नहीं होना चाहिए.

असल में, यह आश्चर्यजनक विरोधाभास पैदा करता है जहां एक ही अपराध— धोखाधड़ी के अपराध में कुछ धन शामिल होना जरूरी होता है— को PMLA के तहत जमानत के मामले में दमनकारी तरीके से लागू किया जाता है. लेकिन एक दूसरे कानून में यह लंबे समय से आजमाई हुई जमानत व्यवस्था के अधीन है, जो ऐसा नहीं करता है गलत तरीके से न्यायिक विवेक के हाथ नहीं बांधता है. 

PMLA के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने की जरूरत तब और भी अजीब लगती है जब हम देखते हैं कि कैसे कानून उस संपत्ति की फौरन जब्ती की इजाजत देता है, जिस पर अपराध की कथित आय होने का आरोप लगाया गया है. आखिरकार संपत्ति की ऐसी जब्ती और बहाली PMLA की सफलता (जिनमें से ज्यादातर हिस्सा केवल 3 मामलों का है) का पैमाना बताया जा रहा है, न कि इसके मामले अंजाम तक पहुंचने को जिसका अनुपात मार्च 2023 तक 1000 से अधिक में से बेहद कम सिर्फ 25 था.

मौजूदा हालात: हर मर्ज की एक दवा

2024 की शुरुआत में, ED द्वारा दो किसानों को PMLA के तहत समन जारी किए जाने की खबर आई और इस पर हंगामा मच गया, जिसके बाद ED को मामले को बंद करने का सार्वजनिक ऐलान करना पड़ा. यह मामला PMLA के दो दशकों के सफर का सार दर्शाता है, कि किस तरह बड़े अपराधियों को उनके जुर्म से फायदा उठाने से रोकने के लिए बनाया गया एक कड़ा कानून एक ऐसा कानून बन गया है, जिसे किसी भी शख्स के खिलाफ लागू किया जा सकता है, जहां कथित तौर पर कुछ पैसे का आदान-प्रदान होता है और ED के अधिकारियों को अपनी मर्जी से दमनकारी PMLA प्रावधानों को लागू करने के लिए लगभग असीमित अधिकार देता है.

PMLA के बदलाव जरूरतों और अंतरराष्ट्रीय दबावों के चलते किए गए. लेकिन इसका मतलब यह नहीं यह इस प्रक्रिया में लिए गए फैसलों को सही ठहरा देता है, खासतौर से इस मामले में कि कैसे PMLA के तहत इसके मकसद को हासिल करने के लिए गलत तरीके से ताकत का इस्तेमाल किया जा रहा है. लोगों की अवैध कमाई को कब्जे में लेना एक ऐसा काम है जो निश्चित रूप से उस व्यक्ति के लिए जमानत पर रिहा होना असंभव बनाने पर निर्भर नहीं है, जिसके खिलाफ मामला अभी भी शुरू नहीं हुआ हो.

यहां राणा कपूर का मामला एक अच्छा उदाहरण है. 2020 में गिरफ्तार होने के बाद उन्होंने PMLA के तहत अधिकतम कैद का आधे से ज्यादा समय हिरासत में बिताया और दिसंबर 2023 में उन्हें जमानत दे दी गई, क्योंकि उनका मुकदमा अभी तक शुरू भी नहीं हुआ है (हालांकि वह अभी भी जेल से बाहर नहीं आए हैं). फिर भी, इस दौरान यह पक्का करने के लिए कि संपत्ति ठिकाने न लगा दी जाए, ED कई हजार करोड़ रुपये की संपत्ति सीज़ कर दी. PMLA के तहत मनमानी और अनुचित रूप से कठोर दमनकारी व्यवस्था ने कानून की प्रक्रिया को ही सजा में बदल दिया है और प्री-ट्रायल हिरासत को पूरी तरह से सजा जैसा बना दिया है.

PMLA की कार्रवाइयों के बारे में सबसे ज्यादा उत्सुकता से तब पढ़ा जाता है जब इसे राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ लागू किया जाता है, चाहे बदलाव संगठित हों या असंगठित, एक बार जब हम उस कार्रवाई के पीछे के तर्क को समझ लेते हैं तो यह साफ हो जाता है कि मौजूदा रवैया कानून का इस्तेमाल कर जनता के एक वर्ग को परेशान करने वाला नहीं है. इसके बजाय, आज यह एक एजेंसी द्वारा कानून का सहारा लेकर जनता के किसी भी वर्ग को परेशान करने की ताकत का प्रतीक है जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता के तर्क को तब तक जूते की नोक पर रखती है, जब तक कि कोई और एजेंसी मामला दर्ज नहीं कर लेती है. और यह सब आत्म नियंत्रण और संतुलन की उस एजेंसी की अच्छी व्यवस्था के बीच हो रहा है. काश वो यह बात समझते भी.

(अभिनव सेखरी दिल्ली में एक वकील और स्कॉलर हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और यह लेखक के अपने विचार हैं. द क्विंट इनके लिए जिम्मेदार नहीं है.)

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