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कृपया मेरी इस वेदना पर यकीन करें कि 30 साल के अपने पत्रकारीय जीवन में मैंने कभी किसी एक खबर का ब्यौरा जानने के लिए इतनी मगजमारी या इतनी मेहनत नहीं की, जितना बीते चार दिनों में ‘गरीब कल्याण रोजगार अभियान’ का ब्यौरा जानने के लिए की. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि तमाम सरकारी शोर-शराबे से लेकर डुगडुगी बजाकर मुनादी करवाने के चिरपरिचित अंदाज के साथ शुरू हुई 50,000 करोड़ रुपये की योजना में ‘गरीब, कल्याण और रोजगार’ तीनों का वास्ता था. यही तीनों तो असली ‘भारत’ हैं.
यानी, मेरा सारा पत्रकारीय कौशल और अनुभव भी ये पता नहीं लगा पाया कि बिहार और बंगाल की चुनावी बेला को ध्यान में रखकर घोषित हुआ केन्द्र सरकार का चमत्कारी अभियान वास्तव में जमीन पर कब से और कितना चमत्कार दिखा पाएगा? कोरोना की मार खाकर बदहवासी के साथ अपने गांवों को लौटे कितने स्किल्ड (हुनरमन्द) प्रवासी मजदूरों को, कितने दिनों का, कितनी आमदनी वाला और कैसा रोजगार देकर उनका उद्धार करके उन्हें और उनके गांवों को खुशहाल बना पाएगा?
दरअसल, किसी भी सरकारी योजना को तमाम बन्दिशों से गुजरना पड़ता है. जैसे, यदि सरकार एक बांध बनाना चाहे तो महज इसका एलान होने या बजट आबंटन होने या शिलान्यास होने से काम शुरू नहीं हो जाता. जमीन पर काम शुरू होने की प्रक्रिया खासी लंबी और जटिल होती है. मसलन, बांध कहां बनेगा, वहां का नक्शा बनाने के लिए सर्वे होगा, सर्वे से विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (DPR) बनेगी, फिर तरह-तरह के टेंडर होंगे और टेंडर अवार्ड होने के बाद बांध के निर्माण का काम शुरू होगा. इसके साथ ही ये पता लगाया जाएगा कि बांध में कितना इलाका डूबेगा, वहां के लोगों का पुर्नवास कहां और कैसे होगा, इसकी लागत और अन्य झंझट क्या-क्या होंगे? इसके बाद भी सारा मामला इतना जटिल होता है कि दस साल की परियोजना, अनुमानित लागत के मुकाबले पांच गुना ज्यादा वास्तविक लागत से तीस साल में तैयार हो पाती है.
इसी तरह ये जानना भी जरूरी है कि सरकार 50,000 करोड़ रुपये की जिस ‘गरीब कल्याण रोजगार अभियान’ की बात कर रही है, उसके विभिन्न आयाम क्या-क्या हैं? क्योंकि अभी तक सरकार ने इस अभियान को ‘गड्ढे खोलने वाली’ मनरेगा से अलग बताया गया है. मनरेगा में 202 रुपये मजदूरी और साल के 365 दिनों में से कम से कम 100 दिन काम की गारंटी की बातें हैं.
इसी तरह, ‘गरीब कल्याण रोजगार अभियान’ को लेकर फिलहाल, इतना ही बताया गया है कि इसे देश के 733 में से 116 जिलों में 125 दिनों तक प्रवासी मजदूरों की सहायता के लिए मिशन मोड में चलाया जाएगा. ये जिले 6 राज्यों – बिहार (32), उत्तर प्रदेश (31), मध्य प्रदेश (24), राजस्थान (22), ओडिशा (4) और झारखंड (3) के हैं. इनमें से बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश तो ऐसे हैं जिन्हें 1980 में बीमारू राज्य का खिताब मिला था.
बीते 40 वर्षों में इन बीमारू राज्यों ने विकास के एक से बढ़कर एक अद्भुत ध्वजवाहकों की सरकारें देखीं, लेकिन कोई भी अपने राज्य को बीमारू के कलंक से उबार नहीं सका. उल्टा जिन आधार पर ये बीमारू बताए गये थे, उसके मुताबिक इनके अलग हुए झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड भी बीमारू की श्रेणी में ही पहुंच गए.
अगली ज्ञात जानकारी है कि ‘गरीब कल्याण रोजगार अभियान’ को 12 विभिन्न मंत्रालयों का साझा कार्यक्रम बनाया जाएगा. इनके नाम ग्रामीण विकास, पंचायती राज, सड़क परिवहन एवं राजमार्ग, खान, पेयजल और स्वच्छता, पर्यावरण, रेलवे, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस, नयी और नवीकरणीय ऊर्जा, सीमा सड़क, दूरसंचार और कृषि मंत्रालय.
इनके बीच समन्वय की जिम्मेदारी ग्रामीण विकास मंत्रालय की होगी. अभियान के तहत कम्युनिटी सैनिटाइजेशन कॉम्पलेक्स, ग्राम पंचायत भवन, वित्त आयोग के फंड के तहत आने वाले काम, नेशनल हाइवे वर्क्स, जल संरक्षण और सिंचाई, कुएं की खुदाई, वृक्षारोपण, हॉर्टिकल्चर, आंगनवाड़ी केन्द्र, प्रधानमंत्री आवास योजना (ग्रामीण), प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना, रेलवे, श्यामा प्रसाद मुखर्जी RURBAN मिशन, PMKUSUM, भारत नेट के फाइबर ऑप्टिक बिछाने, जल जीवन मिशन आदि 25 स्कीम्स में काम कराये जाएंगे.
अब जरा 50,000 करोड़ रुपये की भारी भरकम रकम की महिमा को भी खंगाल लिया जाए. एक मोटा अनुमान है कि किसी भी सरकारी निर्माण पर करीब आधी रकम मजदूरी पर खर्च होती है. इसका मतलब ये हुआ कि ‘गरीब कल्याण रोजगार अभियान’ के तहत ताजा एलान में मजदूरी का हिस्सा करीब 25,000 करोड़ रुपये होगा. इसे यदि 125 से विभाजित करें तो रोजाना का 200 करोड़ रुपये बैठेगा.
इसे 116 खुशनसीब जिलों से विभाजित करें तो हरेक जिले के हिस्से में रोजाना के 1.72 करोड़ रुपये आएंगे. अब यदि हम ये मान लें कि स्किल्ड प्रवासी मजदूरों को मनरेगा के मजदूरों के मुकाबले डेढ गुना वेतन भी मिला तो इसका औसत रोजाना 300 रुपये बैठेगा. इस 300 रुपये से यदि 1.72 करोड़ रुपये को विभाजित करें तो हम पाएंगे कि हरेक जिले में 57,471 प्रवासी मजदूरी की ही 125 दिनों तक किस्मत संवर पाएंगी.
अलबत्ता, अगर मजदूरी 300 रुपये से ज्यादा हुई तो मजदूरों की संख्या उसी अनुपात में घटती जाएगी. अब जरा सोचिए कि इस अभियान से उन एक करोड़ से ज्यादा प्रवासी मजदूरों में से कितनों का पेट भरेगा, जिन्हें रेलवे की श्रमिक स्पेशल ट्रेनों के जरिये शहरों से उनके गांवों को भेजा गया है. यहां उन अभागे प्रवासी मजदूरों का तो कोई हिसाब ही नहीं है जो चिलचिलाती धूप में सैकड़ों किलोमीटर लंबी सड़कों को पैदल नापकर या रेल की पटरियों पर चलकर अपने गांवों को पहुंचे हैं.
जरा तस्वीर का दूसरा पहलू भी देखिए कि वित्त मंत्रालय ने 2016 के आर्थिक सर्वेक्षण में बताया था कि देश में कुल कामगार 48 करोड़ से ज्यादा हैं और हरेक तीसरा कामगार प्रवासी मजदूर है. यानी, प्रवासियों मजदूरों की संख्या 16 करोड़ बैठी. हालांकि, महीने भर पहले जब वित्त मंत्री ने 21 लाख करोड़ रुपये के पैकेज का ब्यौरा दिया तो उन्होंने प्रवासी मजदूरों की संख्या को 8 करोड़ मानते हुए उन्हें तीन महीने तक 5 किलो चावल या गेहूं मुफ्त देने के बजट का वास्ता दिया था. साफ है कि गरीब कल्याण रोजगार अभियान के असली लाभार्थियों की संख्या जितनी बड़ी है, उसके लिए 50,000 करोड़ रुपये और 12 मंत्रालयों की सारी कवायद ऊंट के मुंह में जीरा ही साबित होगी.
बिहार की मौजूदा विधानसभा का कार्यकाल 29 नवंबर तक है. इससे पहले जनादेश आ ही जाएगा. और हां, ‘गरीब कल्याण रोजगार अभियान’ की 125 दिनों की मियाद 26 अक्टूबर को खत्म हो जाएगी. हालांकि, सरकार का कहना है कि वो इस अभियान को आगे भी जारी रख सकती है. लेकिन बात कैसे और कब आगे बढ़ेगी? इसे जानने के लिए तो इंतजार करना ही होगा.
तब तक यदि प्रवासी मजदूरों के सामने भूखों मरने की नौबत आ गई तो सरकार का वैसे ही कोई दोष नहीं होगा, जैसे कोरोना संक्रमितों की संख्या का रोजाना अपना ही रिकॉर्ड तोड़ने में. या फिर लद्दाख में 20 सैनिकों की शहादत या चीन की घुसपैठ में.
(ये आर्टिकल सीनियर जर्नलिस्ट मुकेश कुमार सिंह ने लिखा है. आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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Published: 21 Jun 2020,07:41 PM IST