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अमेरिका का राष्ट्रपति बनने के बाद डोनाल्ड ट्रंप की जो विदेश नीति रही है, उसे देखते हुए लगता है कि नरेंद्र मोदी की वहां की इस बार की यात्रा ठंडी रहेगी. प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी जब पहली बार अमेरिका गए थे तो उनका किसी रॉकस्टार की तरह स्वागत हुआ था. मोदी का वह दौरा काफी सफल रहा था, लेकिन इन दिनों वॉशिंगटन की फिजा बुझी-बुझी सी है.
ट्रंप के इलेक्शन कैंपेन के तार कथित तौर पर रूस से जुड़े होने के आरोपों के बाद अमेरिका में सियासी तूफान मचा है. यह एक ऐसी पॉलिटिकल फिल्म है, जिसमें कोई इंटरवल नहीं है. एफबीआई डायरेक्टर जेम्स कॉमी को पद से हटाकर क्या ट्रंप ने इस मामले में जांच को प्रभावित करने की कोशिश की? इसे लेकर रोज नए खुलासों, लीक और कांग्रेस में चल रही सुनवाई पर पूरे देश की नजरें टिकी हैं. इस बीच, कई विदेशी नेता आए, लेकिन अमेरिकी अखबारों में उनका बहुत कम जिक्र हुआ.
जिस दुनिया की शक्ल तय करने में अमेरिका ने बड़ी भूमिका निभाई है, उसमें आगे उसका क्या रोल होगा? यह सवाल सबके मन में है और इसी बीच मोदी की यात्रा हो रही है. भारतीय रणनीतिकारों के जेहन में अगर पहले यह सवाल था कि अमेरिका ना तो दोस्त है और ना ही दुश्मन, तो ट्रंप सरकार के आने के बाद उनकी यह धारणा और मजबूत हुई है.
एच-1बी वीजा फ्रॉड को रोकने की बात ट्रंप लगातार करते रहे हैं. उन्होंने यह आरोप भी लगाया था कि भारत ने अरबों डॉलर की वित्तीय मदद के लिए पेरिस क्लाइमेट एग्रीमेंट किया. ट्रंप सरकार ने जिन 16 देशों के साथ अमेरिका का व्यापार घाटे में है, उनकी समीक्षा का भी आदेश दिया है. इन सबके बीच मोदी पहली बार ट्रंप से मिलने जा रहे हैं. दोनों नेताओं के बीच इसे अच्छी शुरुआत नहीं माना जा सकता. ना ही इनमें से किसी भी मसले का दोनों नेताओं की मुलाकात में हल निकलने जा रहा है.
अमेरिका ने आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई, इकोनॉमिक ग्रोथ को बढ़ावा और इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में सुरक्षा सहयोग बढ़ाने को दोनों देशों के लिए प्राथमिकता बताया है. ये ऐसे मामले हैं, जिनसे दोनों देशों के रिश्तों में गर्मी लौट सकती है, लेकिन जबतक इनमें सहयोगी की तस्वीर साफ नहीं की जाती, तबतक कुछ हाथ नहीं लगेगा. मिसाल के लिए, आतंकवाद से लड़ाई में सिर्फ आईएसआईएस के जिक्र से बात नहीं बनेगी. इसमें उन देशों का जिक्र भी करना होगा, जो विदेश नीति के तौर पर इसका इस्तेमाल करते आए हैं. पाकिस्तान ऐसा ही देश है.
क्या मोदी को अभी अमेरिका जाना चाहिए था? क्या उन्हें अमेरिका जाने वाले दुनिया के शुरुआती लीडर्स में शामिल होना चाहिए, जिससे भारत ‘फर्स्ट फ्रेंड’ होना का दावा कर सके या ट्रंप सरकार की पॉलिसी देखने के बाद भारत को इस तरह की पहल करनी चाहिए थी?
विदेश सचिन रेक्स टिलरसन ने इस मामले में शांति बनाए रखने की अपील की थी, लेकिन ट्रंप ने पहले तो कतर की आतंकवाद को पनाह देने वाला बताया और उसकी आलोचना की और इसके साथ ही उसे 21 अरब डॉलर के हथियार बेचने की इजाजत दे दी. इसलिए भारत को लेकर उनका रुख क्या रहता है, इसका अनुमान लगाना मुश्किल है. अगर वह गर्मजोशी भी दिखाते हैं और पॉलिसी लेवल पर कोई पहल करते हैं तो उस पर अमल होना मुश्किल है. उसकी वजह यह है कि ट्रंप एडमिनिस्ट्रेशन में कई पद खाली हैं.
अमेरिकी राष्ट्रपति के तेवर शुरू में चीन और पाकिस्तान को लेकर कड़े थे. तब वह रूस की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए दिख रहे थे. उस समय भारत को अमेरिका की विदेश नीति में प्राथमिकता मिलने की गुंजाइश बनी थी. हालांकि, अब वह गर्मजोशी और उम्मीद नहीं दिख रही है.
अगर ट्रंप भारत को अमेरिकी हितों से जोड़कर देखते हैं तो दोनों देशों के रिश्ते मजबूत होते रहेंगे, भले ही उसकी रफ्तार सुस्त हो. हालांकि, ऐसा हो सकता है कि वह यह सवाल पूछ बैठें, ‘भारत ने अमेरिका के लिए हाल में क्या किया है?’ इस सवाल का जवाब देना भारत को भारी पड़ सकता है.
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