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पंडितों का मानना है कि अगर बीजेपी को अगली सरकार बनाने का न्योता मिलता है, तो नितिन गडकरी भी अपनी दावेदारी पेश कर सकते हैं. अगर ऐसा होता है, तो यह ऐतिहासिक होगा. यह भारतीय लोकतंत्र के लिए तो अच्छी खबर है, लेकिन बीजेपी के लिए नहीं. पार्टी अगर एकजुट हो, तो आम चुनाव में फायदा होता है, जबकि अंदरूनी सत्ता संघर्ष से उसे नुकसान हो सकता है.
भारतीय संविधान में प्रधानमंत्री के लिए एक या दो कार्यकाल जैसी पाबंदी नहीं है. इसलिए जब उन्हें कोई चुनौती देता है, तो लाजिमी है कि वह खुद को पद पर बनाए रखने की कोशिश करेंगे. शायद इसी वजह से इमरजेंसी के दौरान कहा जाता था, ‘गोंद लगी हुई है सिंहासन पर.’
कई देशों में राष्ट्राध्यक्ष के लिए कार्यकाल की सीमाएं भी तय हैं. अमेरिका में राष्ट्रपति के लिए पहले कार्यकाल की कोई सीमा नहीं थी, लेकिन वहां 1940 के मध्य में इस रूल को बदल दिया गया.
प्रधानमंत्री के लिए कार्यकाल की कोई सीमा नहीं और एक लोकसभा के लिए पांच साल के कार्यकाल को अगर एक साथ देखें, तो इससे राजनीति और गवर्नेंस, दोनों के लिए समस्याएं खड़ी होती हैं. राजनीतिक समस्या खास तौर पर उन पार्टियों के लिए है, जहां वंशवाद नहीं चलता.
बीजेपी और सीपीएम जैसी विचारधारा केंद्रित दो पार्टियां इस लिस्ट में आती हैं. यही हाल एआईएडीएमके, बीएसपी, जेडीयू, टीएमसी जैसे क्षेत्रीय दलों का भी है. हम देख चुके हैं कि जब इन पार्टियों के संस्थापक नहीं रहते, तब उनके लिए जिम्मेदारियों का निर्वाह कितना मुश्किल हो जाता है.
इसके उलट जिन पार्टियों में वंश के हिसाब से विरासत का फैसला होता है, वहां ‘बैड गवर्नेंस’ की समस्या खड़ी होती है. ऐसी पार्टियों में अंदर से कोई नेता लीडर को चैलेंज नहीं कर पाता, जिसका सामना अब नरेंद्र मोदी को करना पड़ रहा है. राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस और राज्य स्तर पर एसपी और डीएमके जैसी पार्टियां इसकी मिसाल हैं.
देश के बारे में मेरी जो समझ है, उसे देखते हुए ‘प्रधानमंत्री के कार्यकाल के लिए 'नो लिमिट’ और ‘लोकसभा के लिए पांच साल के टर्म’ की समीक्षा होनी चाहिए. मुझे लगता है कि हमें एक नेता को एक ही बार प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री बनाने का नियम बनाना चाहिए और लोकसभा और विधानसभा के लिए कार्यकाल छह या सात साल कर देना चाहिए.
इससे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री जो करना चाहते हैं, उसके लिए उन्हें पर्याप्त समय मिलेगा और री-इलेक्शन की टेंशन नहीं सताएगी. इस व्यवस्था में अगले चुनाव का सिरदर्द पार्टी पर होगा.
सच तो यह है कि 6 साल का एक कार्यकाल मिलने पर वे पार्टी के दबाव से आजाद हो जाएंगे. यह बात कितनी सही है, इसकी तस्दीक मोदी और मनमोहन सिंह, दोनों से करवाई जा सकती है, जिन्हें अपनी पार्टियों की तरफ से दबाव का सामना करना पड़ा है.
इस बात को बहुत कम लोग जानते हैं लेकिन 1947 से 1955 के बीच जवाहरलाल नेहरू को भी ऐसे दबाव का सामना करना पड़ा था, इसलिए 1955 में अवाड़ी अधिवेशन के बाद उन्होंने कुछ बड़ी गलतियां कीं. इनमें आर्थिक नीतियां भी शामिल थीं.
अभी लोकसभा और विधानसभा के लिए पांच साल का जो कार्यकाल है, उसमें सरकार का पांचवां वर्ष लोक-लुभावन नीतियों और चुनावी तैयारियों की भेंट चढ़ जाता है. इसलिए असल में कार्यकाल चार साल का ही होता है.
प्रधानमंत्रियों और मुख्यमंत्रियों के लिए अगर एक ही कार्यकाल की बंदिश लगाई जाए, तो जन-प्रतिनिधि बीच में सरकार नहीं गिरा पाएंगे. इससे होने वाले फायदे को कम करके नहीं आंका जा सकता.
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Published: 17 Jan 2019,09:00 PM IST