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पूर्वी UP की ‘बिटिया’ प्रियंका गांधी बदल सकेगी कांग्रेस की किस्मत?

2019 लोकसभा चुनावों के लिए प्रियंका गांधी को आगे लाने के कदम से पूर्वी यूपी के ब्राह्मणों में नया अहसास जगा है.

आरती जेरथ
नजरिया
Published:
पूर्वी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस महासचिव के तौर पर बहन प्रियंका गांधी वाड्रा को उतारकर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने  बड़ा दांव खेला है.
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पूर्वी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस महासचिव के तौर पर बहन प्रियंका गांधी वाड्रा को उतारकर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने बड़ा दांव खेला है.
(फोटो: The Quint)

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पूर्वी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस महासचिव के तौर पर बहन प्रियंका गांधी वाड्रा को उतारकर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने हिन्दी हृदय प्रदेश की लड़ाई में बड़ा दांव खेला है. यह जितना नाटकीय है उतना ही रणनीतिक भी.

नाटकीय इसलिए है क्योंकि यह पहल 2019 के आम चुनाव के एन वक्त पर तब की गयी है जब 100 दिन भी बाकी नहीं रह गये हैं. यह रणनीतिक कदम इसलिए है क्योंकि आंशिक तौर पर ही सही, इसमें न सिर्फ एसपी-बीएसपी का गणित गड़बड़ाने की क्षमता है बल्कि अमित शाह की 80 में से 74 सीटें जीतने के दम्भ का दम भी यह निकाल सकती है.

प्रमाणित है प्रियंका की दक्षता और करिश्मा

कांग्रेस पार्टी की ब्रह्मास्त्र मानी जाती रही प्रियंका के इस्तेमाल के फैसले से ये साफ है कि पूर्वी यूपी ही 2019 में मुख्य रणक्षेत्र है.

यह बीजेपी के रणबांकुरों की धरती है. नरेंद्र मोदी का लोकसभा क्षेत्र यहीं पड़ता है. यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने गोरखपुर से पांच बार लोकसभा का चुनाव जीता है और, अमित शाह ने इस इलाके में धुआंधार समय बिताया है जहां उन्होंने राज्य की जातीय पेचीदगियों का अध्ययन किया. इसी ज्ञान का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने 2014 के लोकसभा चुनाव में और फिर तीन साल बाद 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी के लिए चौंकाने वाली जीत हासिल की.

चुनाव अभियान से तस्वीर बदल देने की प्रियंका की क्षमता पर संदेह नहीं होना चाहिए. पहली बार उन्होंने 1998 में अपनी दक्षता दिखलायी, जब उन्होंने सुषमा स्वराज की नाक के नीचे से वेल्लारी सीट चुरा ली थी और अपनी मां सोनिया गांधी को पहली बार संसद पहुंचाने में मदद की.

फिर 1999 में प्रियंका ने जनता दल के अरुण नेहरू को रातों-रात अपने भावनात्मक अभियान के जरिए रायबरेली में पस्त कर दिया. तब पिता की पीठ पर चाकू घोंपने का आरोप उन्होंने अपने चाचा पर लगाया था. उन्होंने मतदाताओं से पूछा था, “क्या आप एक धोखेबाज को चुनना चाहते हैं?” और, प्रियंका की भावनात्मक आह्वान की पीठ पर सवार होकर कांग्रेस उम्मीदवार सतीश शर्मा चुनाव जीत गये.

“प्रियंका नहीं, इस युग की इंदिरा गांधी है”

मजेदार बात ये है कि उस समय रायबरेली के हर मतदाता की जुबान पर था, “प्रियंका नहीं ये आंधी है, इस युग की इंदिरा गांधी है”

ऐसी ही आंधी पैदा करने के लिए प्रियंका के उसी करिश्मे पर राहुल 20 साल बाद भरोसा करते दिख रहे हैं. यह बहुत सोच-समझ कर खेला गया जुआ है. पूर्वी यूपी के कई हिस्से हैं, खासकर अवध का इलाका, जहां एसपी और बीएसपी दोनों कमजोर हैं. ये ऐसे निर्वाचन क्षेत्र हैं जहां ब्राह्मणों का अच्छा खासा प्रभाव है. एक तो आबादी के कारण और दूसरा इसलिए कि परम्परागत रूप से इनकी भूमिका दूसरों को प्रभावित करने के लिहाज से नेतृत्वकारी रही है.

यह भी याद रखने की जरूरत है कि 2009 के आम चुनाव में कांग्रेस ने यूपी में खुद को दोबारा जिन्दा कर सबको चौंका दिया था. तब पार्टी ने 21 लोकसभा सीटें जीती थीं. इनमें से कई सीटें अवध से आती हैं जहां कांग्रेस जीत के लिए जरूरी ब्राह्मण, कुर्मी, मुसलमान और गैर जाटव दलितों का सामाजिक गठजोड़ बनाने में सफल रही थी.

ऐसा लगता है कि प्रियंका के जरिए ब्राह्मणों को आकर्षित करते हुए राहुल की नजर एक बार फिर ऐसे ही गठबंधन पर है. हाल में राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने जो रणनीति बनायी थी, यह उसका विस्तार है.

एमपी और छत्तीसगढ़ की आबादी में ब्राह्मणों की हिस्सेदारी अच्छी खासी है और ये लोग एससी-एसटी एक्ट को कमजोर करने वाले सुप्रीम कोर्ट के आदेश को संशोधित करने की वजह से बीजेपी से नाराज थे.

पूर्वी यूपी के ब्राह्मणों में ‘बिटिया’ है प्रियंका

राहुल के ‘टेम्पल रन’ और उनके हिन्दू प्रतीकवाद ने सवर्णों को बीजेपी से दूर करते हुए आकर्षित करने का काम किया. यह रणनीति तीनों राज्यों में व्यापक रूप से कांग्रेस को मजबूत करने में सफल रही.

लोकसभा चुनावों के लिए प्रियंका को आगे लाने के कदम से पूर्वी यूपी के ब्राह्मणों में नया अहसास जगा है. वे उन्हें अपनी ‘बिटिया’ के रूप में सम्मान करते हैं और उसमें इंदिरा गांधी की झलक देखते हैं.

बहुत सम्भव है कि प्रियंका इसी राह पर खुद को इंदिरा गांधी वर्जन-2 के तौर पर पेश करें और ब्राह्मणों तक पहुंचने की कोशिश करें. यह मुश्किल नहीं है क्योंकि वो कई वर्षों से इस समुदाय के सम्पर्क में हैं. यही काम राहुल ने नहीं किया है.

बीजेपी की कीमत पर ही सफल हो सकती है प्रियंका

जब यूपी में 1990 के दशक में हिन्दुत्व की बयार बही थी तभी से ब्राह्मण भगवा दल के साथ हैं. लेकिन योगी आदित्यनाथ के रूप में ठाकुर मुख्यमंत्री के आने के बाद से वे बीजेपी में घुटन महसूस कर रहे हैं. एससी/एसटी एक्ट विवाद के बाद यह असंतोष बढ़ा है. ठीक वैसे ही, जैसे एमपी और छत्तीसगढ़ में देखने को मिला था. राहुल निश्चित रूप से उम्मीद कर रहे हैं कि प्रियंका इस असंतोष को भुना सकती हैं.

रॉबर्ट वाड्रा प्रकरण और दूसरी चुनौतियां

राहुल ने प्रियंका को चुनौतीपूर्ण जिम्मा सौंपा है. रॉबर्ट वाड्रा से जुड़ी ‘अड़चन’ प्रियंका गांधी का पीछा छोड़ने वाली नहीं है और माना जा रहा है कि बीजेपी उसके पति के पीछे शिकारी कुत्ते की तरह पड़ने वाली है और उन्हें अधिक से अधिक मामलों में उलझाने वाली है. सम्भव है कि उनकी गिरफ्तारी भी हो. सांगठनिक मशीनरी का घनघोर अभाव और उसका नुकसान भी प्रियंका को झेलना होगा.

यूपी में कांग्रेस लड़खड़ा रही है और अगर 2009 में अल्पकालीन पुनरोद्धार को छोड़ दें, तो यह लगातार पतन की ओर बढ़ती गयी है. क्या अपने भावनात्मक अभियान से प्रियंका असम्भव को सम्भव बना सकती हैं?

उन्हें अपने शब्दों से बांधना आता है और वह मोदी की भाषण शैली की बराबरी कर सकती हैं. वह भीड़ खींचने वाली नेता हैं और टीवी में भी वह बनी रहती हैं. लेकिन क्या इतने भर से वह अमित शाह की संगठित चुनाव मशीनरी को चतुराई में मात दे सकती हैं?

2014 में प्रियंका ने कुछ मौकों पर टीवी में प्रकट होकर और रोड शो के जरिए रायबरेली और अमेठी में मोदी को चुनौती देने की कोशिश की थी, लेकिन तब उन्हें असफलता हाथ लगी थी.

कांग्रेस के लिए यूपी में खुद को बनाए रखना जरूरी

2017 में विधानसभा चुनाव के दौरान एसपी-कांग्रेस गठबंधन के पीछे की प्रेरणा प्रियंका गांधी ही थीं. यह घातक सिद्ध हुआ लेकिन 2019 न तो 2014 है और न ही 2017.

आज मोदी पांच साल में सरकार की विफलताओं को लेकर बैकफुट पर हैं.

निश्चित रूप से राहुल गांधी एसपी-बीएसपी गठबंधन से कुछ झटक लेने की उम्मीद नहीं कर सकते, लेकिन अगर 2019 के अभियान में प्रियंका का प्रवेश होता है तो उससे कांग्रेस देश के सबसे अहम प्रदेश में खुद को बचाए रख सकती है. राहुल ने यह साफ कर दिया है कि देश की सबसे पुरानी पार्टी को मिटाया नहीं जा सकता.

(लेखक दिल्ली में पत्रकार हैं. यह उनकी राय है. इसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विन्ट का इससे कोई लेना-देना नहीं है और न ही वह इसके लिए जिम्मेदार है.)

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