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ट्विटर के चीफ जैक डोरसी भारत को अशांत करके खुद शांति की तलाश में विपश्यना करने चले गए. कैसे ठीक होगी भारतीय समाज की वो बीमारी, जिसका नाम 'ब्राह्मणवादी पितृसत्ता' है?
जैक डोरसी का अपराध ये नहीं है कि उन्होंने पितृसत्ता के खिलाफ पोस्टर पकड़ा. पितृसत्ता का विरोध एक आसान चीज है. कोई भी पढ़ा-लिखा आदमी नहीं मिलेगा, जो कहे कि वह पितृसत्ता का समर्थक है. ये लगभग वैसी ही बात है कि सच बोलना चाहिए. हिंसा नहीं करनी चाहिए. बोलते सभी हैं, लेकिन समाज में झूठ भी बोला जाता है और हिंसा भी खूब होती है. जो आदमी निजी या सामाजिक जीवन में पितृसत्ता के हिसाब से औरतों के साथ बर्ताव करता है, वह आदमी भी मजे से पितृसत्ता के खिलाफ जुलूस में नारे लगा सकता है.
बहस पितृसत्ता पर नहीं, बल्कि इस बात को लेकर है कि डोरसी ने पितृसत्ता को ब्राह्मणवादी क्यों कह दिया? दिक्कत पितृसत्ता को ब्राह्मणवादी कहे जाने से है.
पितृसत्ता और खासकर ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को लेकर बहस छिड़ गई है. पितृसत्ता वाला पोस्टर हाथ में लेकर ट्विटर के सीईओ जैक डोरसी ने एक तस्वीर क्या खिंचाई, कुछ लोगों के दिलों-दिमाग में आग सी लग गई. लेकिन डोरसी ने तय कार्यक्रम के मुताबिक अपना मोबाइल, लैपटॉप आदि जमा कराया और विपश्यना करने चले गए.
वे खुद शांति की तलाश कर रहे हैं, लेकिन इस बीच भारतीय समाज और हमारा डायस्पोरा यानी विदेश में बसे भारतीय मूल के सवर्ण बेहद अशांत हो गए हैं. ट्विटर के भारतीय अधिकारियों ने घुमा-फिराकर ये कहा है कि जैक को इस पोस्टर के बारे में पता नहीं था.
भारत यात्रा के कार्यक्रम के तहत उन्हें कुछ महिला एक्टिविस्ट से मिलना था और इसी मुलाकात के दौरान एक दलित एक्टिविस्ट ने उन्हें ये पोस्टर दिया. इसे कुछ लोग माफीनामा कह रहे हैं, तो कुछ लोग कह रहे हैं कि माफी तो जैक को मांगनी होगी. लेकिन विपश्यना कर रहे जैक को तो इस विवाद की खबर ही नहीं है. कहना मुश्किल है कि जैक इस बारे में कोई व्यक्तिगत बयान देंगे या नहीं.
दरअसल अरुणा संघपाली लोहिताक्षी ने ये पोस्टर जैक को थमाकर एक गुरिल्ला युद्ध वाली कार्यवाही कर दी है. बहुजन आंदोलन की विचारक और कार्यकर्ता अरुणा ने कागज के एक टुकड़े से पूरी दुनिया में वो बहस पहुंचा दी है, जिसे आम तौर पर भारत के अंदर दबा-छिपाकर रखा जाता था. अब मामला खुल ही गया है तो इस पर बात कर लेते हैं.
पितृसत्ता एक बीमारी है. औरत को मर्द से कमतर और गुलाम मानने का मर्दाना रोग. इसके कई रूप है.
इस बीमारी के शिकार लोग मानते हैं कि बलात्कार इसलिए होते हैं क्योंकि लड़कियां उकसाने वाले कपड़े पहनती हैं या देर तक घर के बाहर रहती हैं. वे कभी लड़कियों के जींस पहनने पर रोक लगाते हैं, तो कभी उनके मोबाइल फोन रखने पर.
इस बीमारी के शिकार लोगों ने आज से डेढ़ सौ साल पहले अंग्रेजों से बहस की थी कि लड़की से किस उम्र में सेक्स किया जाए, इसकी कोई सीमा तय न की जाए क्योंकि किसी भी उम्र की लड़की से सेक्स करना उनका अधिकार है. शादी रजस्वला होने से पहले करने का धार्मिक विधान पितृसत्ता है और बीमारी भी.
यह बीमारी जिन लोगों को लग जाती है, वे औरतों के साथ छेड़खानी को सामान्य बात मानते हैं और इसके लिए सजा दिए जाने को मर्दों पर होने वाला अत्याचार बताते हैं. इस बीमारी से पीड़ित लोग अपनी पत्त्नी को अपनी जायदाद मानते हैं, लेकिन खुद शादी के बाहर यहां-वहां सेक्स कर आते हैं और इसमें उन्हें कोई बुराई नहीं दिखती.
इस बीमारी से पीड़ित व्यक्ति हर साल होने वाली लगभग दस हजार दहेज हत्याओं पर चिंतित नहीं होता, लेकिन इस बात की शिकायत खूब करता है कि किस तरह कुछ लोग दहेज निरोधक कानून में गलत फंस गए. इस बीमारी के हो जाने पर आदमी औरतों से एक खास तरह के दब्बू व्यवहार की उम्मीद करने लगता है और स्वतंत्र हैसियत वाली औरतें उसके लिए रंडी हो जाती हैं.
इसे क्रोनिक यानी लंबी चलने वाली बीमारी माना जाता है. आसानी से ठीक भी नहीं होती है.
आधुनिकता और लोकतंत्र के साथ इसके कुछ लक्षण कमजोर पड़े हैं. जैसे सती प्रथा और बाल विवाह पर रोक लगी है, लेकिन बीमारी पूरी तरह ठीक नहीं हुई.
इसके कीटाणु सबसे ज्यादा धर्मग्रंथों में होते हैं, जो किस्सों-कहानियों की शक्ल में बच्चों को दिमाग में डाल दिए जाते हैं. अगर महाभारत में सती की कहानी है और बताया जाए कि माद्रि ने अपनी पति पांडु के मरने पर सती होकर महान काम किया था, तो एक बच्चे के दिमाग में बड़े होने पर भी ये बात दर्ज रह सकती है.
किताबों, टीवी सीरियल और फिल्मों के जरिए ये रोग दिमाग को संक्रमित कर सकता है. जैसे कि एक बच्चा अगर बचपन में देखता है कि माताएं बेटों के लिए तो व्रत करती हैं, लेकिन इस बात के लिए चिंतित रहती हैं कि कहीं बच्ची न पैदा हो जाए, तो फिर वह औरत और मर्द को आसानी से समान कैसे मान पाएगा.
अगर बच्चा परिवार में ये देखे कि औरतें तो पतियों के लंबे जीवन के लिए व्रत करती हैं, लेकिन पति अपनी पत्नी के लिए ऐसा कुछ नहीं करता, तो ऐसा बच्चा बड़ा होकर आसानी से एक समतावादी विचार रखने वाला आदमी नहीं बन पाएगा. अगर एक बच्ची बचपन से सुने कि वह तो पराया धन है जिसका कन्या”दान” होना है, तो वह मानसिक रूप से कमजोर तो हो ही जाएगी. एक साथ पढ़ने वाले बेटों और बेटियों में जब सिर्फ बेटों को महंगे कोचिंग के लिए भेजा जाता है, उस दिन तय हो जाता है कि परिवार पितृसत्ता के विचार से चल रहा है.
इसका शिकार कोई भी हो सकता है. किसी भी धर्म, जाति, प्रांत का आदमी, शहरी से लेकर ग्रामीण और पढ़े लिखे से लेकर अनपढ़ तक को ये बीमारी हो सकती है. ऐसे में ब्राह्मणवादी पितृसत्ता या ब्राह्मिनीकल पेट्रियाकी को ध्वस्त करने की बात क्यों हो रही है? दलित या ओबीसी की पितृसत्ता भी तो उतनी ही खतरनाक है. ये सही भी है.
भारत में पितृसत्ता को ब्राह्मणवादी इसलिए कहा जाता है, क्योंकि इसका स्रोत धार्मिक ग्रंथ, श्रुत और स्मृतियां हैं. ये सारे ब्राह्मण ग्रंथ हैं. जिस ग्रंथ में औरतों को कंट्रोल करने की बात है, उसी धर्म में ब्राह्मणों की श्रेष्ठता और शूद्रों के दमन की भी बात है.
भारत में पितृसत्ता जाति सत्ता के साथ कदम मिलाकर चलती है. जाति को स्थिर बनाए रखने के लिए पितृसत्ता का मजबूत होना जरूरी शर्त है. अगर औरत का अपने शरीर पर अधिकार हो और वह अपनी मर्जी से अपने पसंद के आदमी से शादी करे और अपनी पसंद के मर्द के साथ बच्चे पैदा करे, तो जाति संस्था का नाश हो जाएगा.
जातिवाद को बचाए रखने के लिए बेहद जरूरी है कि औरत की सेक्सुअलिटी को नियंत्रित किया जाए और खासकर उसका विवाह जाति के अंदर किया जाए और उसका बच्चा हर हाल में अपनी ही जाति के मर्द से पैदा हो. रक्तशुद्धता के बगैर जाति नहीं चल सकती.
अगर किसी औरत का पति मर जाए, तो जाति व्यवस्था को बहुत दिक्कत होती है. उस “फालतू” (बाबा साहेब इसके लिए सरप्लस शब्द का इस्तेमाल करते हैं) औरत का क्या किया जाए? रास्ता ये है कि या तो उसे जलाकर मार दिया जाए, जो सती प्रथा के रूप में अंग्रजों के शासन काल तक में जारी थी. दूसरा तरीका ये है कि उसे जिंदा छोड़ दिया जाए. जिंदा छोड़ने में खतरा है कि वो समाज में प्रदूषण फैलाएगी. उस जिंदा औरत को अगर शादी करने की इजाजत दे दी जाए तो जाति के अंदर शादी करके अपनी जाति की एक विवाह योग्य कन्या का शादी का अवसर कम कर देगी.
जाति से बाहर वह शादी करे तो समस्या का समाधान हो सकता है, लेकिन इसकी इजाजत नहीं है. तीसरा विकल्प है कि उसे जिंदगी भर विधवा रखा जाए और उसे सेक्स से वंचित रखा जाए. यही सबसे आसान तरीका है. हालांकि इससे समाज में अनैतिकता फैलती है, लेकिन इसे बर्दाश्त कर लिया जाता है. इसलिए विधवा औरतों के सजने-संवरने पर रोक है. कई इलाकों में उनका सिर मुड़ दिया जाता है. उन्हें शोक के कपड़े जिंदगी भर पहनने पड़ते हैं या फिर उन्हें आश्रमों के हवाले कर दिया जाता है. (देखें किताब कास्ट्स इंन इंडिया. लेखक- डॉ. बी.आर. आंबेडकर)
भारत में औरत को दबाकर रखे जाने की व्यवस्था को धार्मिक आधार वे ग्रंथ देते हैं, जिन्हें बेहद पवित्र माना जाता है. इसलिए इन ग्रंथों के पूज्य बने होने की सूरत में न तो जाति व्यवस्था का अंत होगा और न नही ब्राह्मण पितृसत्ता का. क्या हम इस मामले में इस रास्ते पर चल सकते हैं, जो बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर ने अपनाया था?
बाबा साहेब ने 25 दिसंबर, 1927 को सार्वजनिक रूप से मनुस्मृति जलाई थी, जो अछूतों और महिलाओं की दासता को वैचारिक आधार प्रदान करता है! बाबा साहेब ने हिंदू कोड बिल बनाकर इस बीमारी का पूरा इलाज बताया था. लेकिन मरीज नाराज हो गया और डॉक्टर को अस्पताल छोड़ना पड़ गया.
इसी बात पर बाबा साहेब को केंद्रीय कैबिनेट से इस्तीफा देना पड़ा था. विरोधियों ने कहा कि इस तरह तो हिंदू धर्म नष्ट हो जाएगा. लेकिन इलाज के बिना भी तो मरीज मर जाएगा. या फिर अपनी बीमारी फैलाता रहेगा. (एनिहिलेशन ऑफ कास्ट, लेखक- डॉ. बी.आर. आंबेडकर).
किसी भी पुरानी बीमारी की तरह पितृसत्ता का इलाज लंबा चलेगा. इसमें डॉक्टर और मरीज, दोनों को धैर्य से काम लेने की जरूरत पड़ेगी. जल्दबाजी से मामला बिगड़ सकता. दवा बीच में बंद करना खतरनाक होगा.
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