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पंजाब चुनाव: चरणजीत सिंह चन्नी हारे नहीं, उन्हें हराया गया

चन्नी को हराने के लिए न केवल पार्टी के नेताओं ने प्रयास किया, बल्कि बाहरी शक्तियां भी पूरा जोर लगा रहीं थी.

डॉ. उदित राज
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>चरणजीत चन्नी</p></div>
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चरणजीत चन्नी

(फोटो: Altered by Quint)

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पंजाब में चुनाव के पहले कांग्रेस के जीतने का पूरा माहौल था. चरणजीत सिंह चन्नी की देश में बड़ी छवि बन गई थी. पूरे देश से आवाज आ रही थी कि कांग्रेस पंजाब में वापसी करेगी. आम आदमी पार्टी टक्कर में तो जरूर थी, लेकिन 2017 के मुकाबले में नहीं. देश में एक आवाज गई कि गांधी परिवार में दिल है कि एक दलित को अहम सूबे का सीएम बनाया. राष्ट्रपति या राज्यपाल बनना बड़ी बात नहीं रह गई, समय अंतराल इनकी शक्तियां कम हुई हैं.

जैसे चन्नी सीएम बने, सिद्धू ने उनसे ऐसा व्यवहार किया जैसे कि कोई जूनियर हो. यह दलितों को बर्दाश्त नहीं हुआ. जब तक चन्नी संभलें, तब तक कुछ क्षति हो चुकी थी. माना कि दलितों की आबादी करीब 36 % है, लेकिन ये बंटे हुए हैं. इनका ही वोट पड़ जाता तो भी कांग्रेस जीत जाती.

सवाल बनता है कि दूसरी जातियां तो अपने नेता के साथ फौरन चली जाती हैं, तो दलित क्यों नहीं? सदियों से हुकुम मानने वाले जल्दी से अपनों को नेता नहीं मानते. बहुजन आंदोलन से दलितों में विभाजन बढ़ा है और पंजाब में रामदासिया बनाम मुजहबी का फैसला बाध्य. दूसरी बात, अब वो दलित नहीं रह गए कि जब चाहो भेड़ की तरह पीछे लगा लो. कैप्टन अमरिंदर सिंह के समय में दलितों के साथ न्याय नहीं हुआ था. कैप्टन अमरिंदर सिंह, मंत्रियों और विधायकों तक से नहीं मिलते थे. राज-काज नौकरशाही चला रही थी.

सबसे ज्यादा क्षति नवजोत सिंह सिद्धू ने की. बाहर की आलोचना से जनता इतनी जल्दी यकीन नहीं करती, लेकिन जब प्रदेश का मुखिया ही ऐसा करे तो क्यों यकीन न करें? जो भी सरकार घोषणा करती थी, विपक्ष से पहले प्रदेश अध्यक्ष ही हवा निकाल देते थे. उनकी बेटी ने भी चन्नी पर प्रहार किया. इससे यह भी संदेश गया कि चन्नी दलित हैं, वे क्या करेगें? जातिवादी मानसिकता उभारने में सिद्धू के बयान सहयोगी सिद्ध हुए. सवर्ण जातियों ने सोचा कि पहले चन्नी को निपटा लो और भगवंत सिंह मान, जो जट सिख से थे, उन्हें वोट दिया.

सुनील जाखड़ जब अध्यक्ष थे, तो कभी भी पार्टी ऑफिस आते नहीं थे. संगठन के स्तर पर स्थिति बड़ी खराब थी. दूसरे प्रदेश से आए कार्यकर्ता चुनाव लड़ा रहे थे. उम्मीदवार गलत चुने गए. बाहर से प्रचार करने गए लोगों का वहां के समाज से जुड़ाव नहीं था. जिनका वहां के समाज से लेना-देना न था, उन्होंने प्रचार किया और मीडिया को संबोधित किया. पंजाब के प्रभारी मिलते ही नहीं थे. दिल्ली के हजारों ऑटो-ट्रांसपोर्टर पंजाब में जाकर AAP के झूठ का पर्दाफाश करना चाहते थे, लेकिन पंजाब के नेतृत्व का सहयोग नहीं मिला. वे इतना ही चाहते थे कि पंजाब में किससे समन्नव स्थापित करें और कहां प्रचार करें.

बीएसपी को ठीक-ठाक वोट मिले हैं, हालांकि प्रदेश स्तर पर वोट की क्षति इसलिए भी हुई है क्योंकि वहां वो नहीं लड़ीं कि अकाली दल को वोट मिल सके. राजनीतिक बयानबाजी तो हुई, लेकिन अंबेडकरी दलित से संवाद न किया जा सका. उनको सही संदेश न दिया जा सका कि यह चुनाव संविधान, आरक्षण और बाबा साहब डॉ अंबेडकर की विरासत बचाने का है. पब्लिक मीटिंग न करके कर्मचारी-अधिकारी और आंबेडकरी दलित से आमने-सामने संवाद करना चाहिए था.

चरनजीत सिंह चन्नी को हराने के लिए न केवल पार्टी के नेताओं ने प्रयास किया, बल्कि बाहरी शक्तियां भी पूरा जोर लगा रहीं थी. जिस दिन से दलित को राहुल गांधी ने मुख्यमंत्री बनाया, था पूरी कांग्रेस निशाने पर आ गई. चन्नी की सफलता से राहुल गांधी का नेतृत्व मजबूत होता, जो हर हाल में बीजेपी को मंजूर नहीं है. यह कुछ कांग्रेस के बड़े नेताओं को भी मंजूर नहीं था.
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कभी-कभी जनता के भोलेपन पर आश्चर्य होता है कि क्यों मोदी और बीजेपी, राहुल गांधी पर ही बार-बार हमला करते हैं? जनता क्या देख नहीं रही है कि राहुल गांधी ही ऐसे नेता हैं जो गत 8 साल से प्रत्येक मुद्दे पर बीजेपी को घेरते हैं. बेरोजगारी, कोरोना की मार, महंगाई और आर्थिक असमानता की बात करते रहे. चीन के अतिक्रमण पर कोई और नेता नहीं बोला. विकास की समझ मोदी या बीजेपी के किसी नेता में राहुल गांधी के करीब भी नहीं है. इनका कोई नेता भी राहुल गांधी से दस मिनट तक संवाद नहीं कर सकता. इन्हें आता क्या है हिंदू -मुस्लिम , झूठ बोलना और चालाकी के अलावा.

बीजेपी को लगा कि कहीं दलित सीएम का मॉडल सफल हुआ तो पूरे देश में मांग बढ़ेगी कि इनको भी ऐसा करना चाहिए. हो सकता है बड़े राज्य जैसे उत्तर प्रदेश में ऐसी मांग उठ जाए. इससे कांग्रेस का विस्तार होना शुरू हो जाए. किसानों को नीचा दिखाना और अपने फैसले को सही साबित करने के लिए कांग्रेस को हराना और AAP को जिताने से ऐसा संदेश भेजा गया कि किसान आंदोलन से कुछ फर्क नहीं पड़ा.

उत्तर प्रदेश का चुनाव बीजेपी के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण था और पंजाब में हेराफेरी करते तो लोग शक करते, इसलिए आम आदमी पार्टी की जीत कराने में मदद की गई. अरविंद केजरीवाल कह चुके हैं कि उनका खानदान संघी रहा है और वे भी हैं. कौन नहीं जानता कि अन्ना हजारे के आंदोलन के पीछे बीजेपी का हाथ रहा.

AAP के मजबूत होने से मोदी का कांग्रेस मुक्त लक्ष्य की प्राप्ति का एजेंडा छुपा हुआ है. बीजेपी, आम आदमी पार्टी से कांग्रेस को कमजोर करवा रही है. आम आदमी पार्टी को मीडिया के माध्यम से चर्चा करा रही है कि कांग्रेस का विकल्प आम आदमी पार्टी है. मुसलमान और दलित, दोनों कांग्रेस का राष्ट्रीय स्तर पर जनाधार हैं, कुछ राज्यों जैसे, उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल छोड़कर.

चन्नी को हराकर यह भी संदेश देने की कोशिश है कि दलित नैया पार नहीं लगा सकते. वास्तव में यह मनोवैज्ञानिक खेल है और कांग्रेस को फिर से जोड़ने का प्रयास तेज करना चाहिए. जब बीएसपी खत्म हो रही है तो इससे अच्छा अवसर क्या हो सकता है. कुल मिलाकर चन्नी हारे नहीं, बल्कि उन्हें हराया गया.

(उदित राज, असंगठित कामगार एवं कर्मचारी कांग्रेस एवं अनुसूचित जाति/जनजाति परसंघ के राष्ट्रीय चेयरमैन हैं. लेखक पूर्व आईआरएस और पूर्व लोकसभा सदस्य रह चुके है. ये एक ओपिनियन पीस है. यहां लिखे विचार लेखक के अपने हैं और क्विंट का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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