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उद्धव ने राज ठाकरे का ‘BJP वाला लाउडस्पीकर’ बंद नहीं कराया तो बहुत महंगा पड़ेगा

Raj thackeray ने लाउडस्पीकर पर अल्टिमेटम के बाद मोहलत दी, इसके पीछे किसका हाथ?

ज्योति पुनवानी
नजरिया
Updated:
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 राज ठाकरे

द क्विंट

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क्या राज ठाकरे Raj Thackeray मुंबई और महाराष्ट्र में कोई बड़ा संकट खड़ा करने की तैयारी कर रहे हैं? उनके हाल के भाषणों के कारण जो हंगामा हुआ है, उसके अनुसार ऐसा ही प्रतीत हो रहा है. महाराष्ट्र के सबसे वरिष्ठ राजनेता और सत्ताधारी महा विकास अघाड़ी (एमवीए) गठबंधन की मुख्य प्रेरक शक्ति माने जाने वाले शरद पवार Sharad Pawar ने राज ठाकरे पर राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की ओर से बोलने का आरोप लगाया है.

राज ठाकरे की मुख्य मांग (सरकार मस्जिदों से लाउडस्पीकर हटा दे) को ध्यान में रखते हुए अधिकांश राजनीतिक विश्लेषक पवार के आकलन से सहमत हैं. ठाकरे ने अल्टीमेटम देते हुए कहा है कि अगर ऐसा नहीं किया गया तो उनके समर्थक मस्जिदों के बाहर लाउडस्पीकर पर हनुमान चलीसा का पाठ करेंगे. महाराष्ट्र से दूर वाराणसी में बीजेपी समर्थक अब इस अल्टीमेटम पर अमल कर रहे हैं.

हालांकि, यही एकमात्र संकेत नहीं है. महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) के अध्यक्ष ने दोनों भाषणों में (पहला, शिवाजी पार्क में गुड़ी पड़वा यानी महाराष्ट्रीयन हिंदू नव वर्ष पर अपनी परंपरागत रैली में और दूसरा, 12 अप्रैल को पार्टी के गढ़ ठाणे में) उन मुद्दों को उठाया जिन्हें केवल भाजपा प्रवक्ता ही उठाएंगे.

'विश्वासघात' के मुद्दे को जाहिर करने में थोड़ी देर हो चुकी है

राज ठाकरे का मुख्य विरोध सत्ताधारी गठबंधन के दो प्रमुख स्तंभों के खिलाफ था. एक हैं शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे. उद्धव उनके चचरे भाई भी हैं और इन्हीं के कारण उन्होंने शिव सेना का साथ छोड़ा था. वहीं दूसरे हैं राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के प्रमुख शरद पवार. राज ठाकरे ने पवार पर अक्टूबर 2019 के विधानसभा चुनावों के जनादेश के साथ विश्वासघात करने का आरोप लगाया है. 2019 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी और शिवसेना ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा था. जहां 288 सीटों वाली विधानसभा में बीजेपी ने 105 और शिवसेना ने 56 सीटें जीतकर सरकार के लिए बहुमत हासिल किया था. लेकिन जब मुख्यमंत्री पद की बात आयी तो शिवसेना अपने ही राज्य में खुद को छोटा साबित नहीं होने देना चाहती थी वहीं बीजेपी सीएम पद पर बने रहने के लिए अड़िग थी. ऐसे में गठबंधन टूट गया और शिवसेना ने एनसीपी और कांग्रेस की मदद से सरकार बनाई.

यह देखते हुए कि एमवीए गठबंधन की सरकार ने लगभग ढाई साल पूरे कर लिए हैं, ऐसे में इस "विश्वासघात" को जाहिर करने में थोड़ी देर हो चुकी है. यह एक ऐसी शिकायत थी जो केवल बीजेपी ही कर सकती थी.

लेकिन चिंता का एक विषय यह भी है कि जमीनी स्तर के कुछ शिव सैनिक दो वजहों से अपनी शिकायत के बारे में कहते रहते हैं. पहला यह कि ठाकरे परिवार पर छापेमारी केवल इसलिए हुई है क्योंकि वे अब बीजेपी से संबद्ध नहीं हैं और दूसरा, शिवसेना के नेताओं का उन नेताओं के साथ मिलकर काम करना जिनका पार्टी के संस्थापक बाल ठाकरे ने विरोध किया था. गांधी परिवार, शरद पवार और छगन भुजबल इनमें से प्रमुख है. 1990 में भुजबल ने पवार के खेमे में शामिल होने के लिए शिवसेना का साथ छोड़ दिया था और वह बाल ठाकरे को गिरफ्तार करने वाले राज्य के इतिहास में सिर्फ दूसरे गृह मंत्री हैं.

भुजबल वर्तमान में खाद्य और नागरिक आपूर्ति मंत्री हैं. राज ठाकरे ने अपने दोनों भाषणों में भुजबल का उल्लेख किया है. ठाकरे ने उनकी ओर इशारा करते हुए कहा कि जेल से रिहा हुए एक राजनेता कैबिनेट मंत्री के रूप में शपथ लेने वाले पहले व्यक्ति हैं. बेशक, उन्होंने यह कहना छोड़ दिया कि शपथ लेने से पहले भुजबल डेढ़ साल के लिए जमानत पर बाहर थे और तब से उनके खिलाफ एक मामला खारिज कर दिया गया है.

जो लोग राज ठाकरे को भाषण के दौरान सुन रहे थे उन्हें ठाकरे ने इस बात की भी याद दिलाई कि एक "विदेशी" के प्रधानमंत्री बनने के मुद्दे पर पवार कांग्रेस से बाहर चले गए थे, लेकिन सोनिया गांधी के साथ काम पर वे जल्दी लौट आए थे.

बेहरामपाड़ा में राज ठाकरे को कैसे मिला मुस्लिम समर्थन

हालांकि न तो पुराने राजनीतिक कदमों की पुनरावृत्ति जो अब इतिहास बन चुके हैं और न ही महाराष्ट्र के दो कैबिनेट मंत्री (पूर्व गृह मंत्री अनिल देशमुख और अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री नवाब मलिक केंद्रीय एजेंसियों द्वारा लगाए गए आरोपों की वजह से जेल में हैं.) की वर्तमान स्थिति पर ठाकरे के जुबानी हमलों को भाषण सुनने वाले श्रोताओं से कोई उत्साहजनक प्रतिक्रिया मिली. इससे भी ज्यादा चौंकाने वाली बात यह है कि मनसे प्रमुख राज ठाकरे ने जब मराठा साम्राज्य के संस्थापक और महाराष्ट्र सबसे बडे़ आईकॉन शिवाजी को मुख्य रूप से एक ऐसे हिंदू शासक के रूप में चित्रित करने का प्रयास किया जिसने मुसलमानों से लड़ाई लड़ी ["उनके हरे झंडों के खिलाफ शिवाजी महाराज ने भगवा झंडा उठाया" ]. तो राज ठाकरे को इस दांव पर भी श्रोताओं ने ज्यादा तव्वजो नहीं दी.

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ठीक इसी तरह सालों तक बाल ठाकरे ने महाराष्ट्र के हिंदुओं को भड़काया व उकसाया. वास्तव में शिवसेना प्रमुख द्वारा शिवसेना या "शिवाजी की सेना" का इस्तेमाल मुंबई के कई दंगों में मुसलमानों पर हमला करने के लिये किया गया था. जिनमें से 1992-93 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हुआ दंगा सबसे हालिया और सबसे बड़ा था. इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि मुंबई के मुसलमान मराठा शासक को नापसंद करने लगे.

लेकिन तब से लेकर अब तक एक पूरी पीढ़ी बड़ी हो गई है और एक धर्मनिरपेक्ष शासक के रूप में शिवाजी के बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है. मुसलमानों ने भी शिवाजी पर लिखा है. शिवाजी के बारे में लिखा गया है कि उनकी सेना में न केवल मुसलमानों को वरिष्ठ पदों पर रखा गया था, बल्कि उनके दौर में सभी समुदायों पर निष्पक्ष रूप से शासन होता था.

इसी तरह, ठाकरे निवास यानी मातोश्री के पास ही मौजूद बेहरामपाड़ा की मुस्लिम कॉलोनी पर राज ठाकरे के हमले भी शिवसेना के एक पुराने जुनून की प्रतिध्वनि थी, जिसने बेहरामपाड़ा को अवैध अप्रवासियों के लिए एक आश्रय स्थल के रूप में प्रदर्शित किया था. हालांकि 1992-1993 के दंगों की जांच कर रहे श्रीकृष्ण आयोग के सामने पार्टी के नेता इस आरोप को साबित नहीं कर पाए.

विडंबना यह है कि 1995 में पार्टी के सत्ता में आने के बाद शिवसेना के पार्षदों और विधायकों ने वहां के नागरिकों को सुविधाएं प्रदान करके बेहरामपाड़ा में लोकप्रियता हासिल की. दरअसल, खुद राज ठाकरे ने एक समय में बेहरामपाड़ा और उसके आसपास के इलाकों में रहने वाले मुसलमानों का समर्थन हासिल किया था.

इन असामान्य बातों से मनसे प्रमुख ने खुद अपने सामान्य जुझारू स्वभाव से बिल्कुल अलग तस्वीर बना ली है. एक शख्सियत जिसने अपने पहले चुनाव में 13 विधानसभा सीटें जीती थीं या एक ऐसा वक्ता जिसने 2019 के लोकसभा चुनावों में मोदी विरोधी अभियान चलाया था, उसके लिए इस नई छवि के साथ सामंजस्य बिठाना मुश्किल था. उनकी मशहूर मिमिक्री और पैनी बुद्धि बमुश्किल दिखाई दे रही थी. यहां तक ​​कि लाउडस्पीकरों को हटाने की उनकी मांग भी उनके लंबे भाषण के काफी बाद में आई है. इसमें भी वो वोटरों को ही कमजोर याददाश्त के लिए दोष देने लगे. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या बाल ठाकरे वाले इस अंदाज से राज ठाकरे शिव सैनिकों को उस तरह आकर्षित कर पाएंगे, जैसा कभी बीजेपी नहीं कर पाई?

मीडिया द्वारा धमकियों को हाईलाइट क्यों किया जा रहा है

मीडिया ने जिस तरह से लाउडस्पीकर की मांग को हाईलाइट किया और फिर बीजेपी समर्थित टीवी चैनलों ने इसे मुद्दा बना दिया. उसके परिणामस्वरुप महाराष्ट्र के मुसलमान जो अब तक बीजेपी शासित राज्यों में अपने समुदाय पर किए जा रहे अपमान से बचे हुए थे, उनके लिए मस्जिदों में लाउडस्पीकर एक चिंता का विषय बन गया है. मुंबई के कुछ इलाकों से लाउडस्पीकरों की शिकायतें आना शुरू हो गई हैं.

जैसा कि एनसीपी मंत्री जयंत पाटिल का कहना है कि, अब जो कुछ बचा है, वह असदुद्दीन ओवैसी के आने का है. सबसे दिलचस्प बात यह है कि शिवसेना के प्रवक्ता संजय राउत ने ठाकरे को बीजेपी का "नया हिंदू ओवैसी" कहा है.

हालांकि जिज्ञासाओं के बीच राज ठाकरे ने 3 मई यानी रमजान ईद तक मस्जिद से लाउडस्पीकरों को हटाने की अपनी समय सीमा स्थगित कर दी है और अपनी दूसरी रैली में सरकार से मुस्लिम धार्मिक नेताओं के साथ इस मुद्दे पर चर्चा करने के लिए कहा है.

क्या एक बार फिर ठाकरे अपनी हरकतों से बच निकलेंगे?

एक ऐसा नेता जो अल्टीमेटम देने के लिए जाना जाता है उससे 3 मई तक मिलने वाली इस रियायत का मतलब यह हो सकता है कि पुलिस ने मनसे प्रमुख से यह कहा हो कि इस बार उनके ट्रेडमार्क भड़काऊ भाषण और उनके समर्थकों द्वारा की जाने वाली हिंसा से उन्हें (राज ठाकरे को) बचकर नहीं जाने दिया जाएगा. अब तक हर सरकार चाहे वह कांग्रेस-एनसीपी हो या देवेंद्र फडणवीस की बीजेपी-शिवसेना सरकार हो, ने उन्हें अशांति फैलाने की छूट दी है. इसके बदले में उन्होंने (सरकारों ने) शिवसेना के वोटों को छीनने के लिए चुनाव में उनका इस्तेमाल किया है. लेकिन अब सरकार का नेतृत्व शिवसेना प्रमुख और उनके कट्टर विरोधी उद्धव ठाकरे कर रहे हैं. ऐसे में अपने चचरे भाई को ज्यादा छूट देना मुख्यमंत्री के लिए आत्मघाती हो सकता है.

मुस्लिम नेताओं ने अपनी ओर से अपने समुदाय को यह संदेश देना शुरू कर दिया है कि लाउडस्पीकर को थोड़ा धीमा कर देना चाहिए. रमजान के महीने में सेहरी से पहले ही यानी तड़के साढ़े तीन बजे से ही मस्जिदों में लाउडस्पीकर बजने लगते हैं.

लाउडस्पीकर की समस्या लंबे समय से समुदाय में कई लोगों के लिए चिंता का विषय रही है. लेकिन एक ऐसे नेता के द्वारा अल्टीमेटम देना जिसके पास चुनावी समर्थन की कमी है और जो स्पष्ट रूप से हिंदुत्व की राजनीति कर रहा है, उस समुदाय को गलत संदेश देता है जो पहले से ही पूरी तरह से घिरा हुआ है. समुदाय और सरकार के बीच केवल एक बारीक समझ ही दोनों पक्षों को अपनी गरिमा बनाए रखते हुए इस समस्या को सुलझाने में मदद कर सकती है.

(ज्योति पुनवानी, मुंबई की पत्रकार हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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Published: 19 Apr 2022,09:31 PM IST

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