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दो ही दिन पहले सुब्रमण्यम स्वामी ने कहा था कि अगर भारत को आर्थिक विकास की गति दस फीसदी तक पहुंचानी है तो भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन को शिकागो वापस भेज दिया जाना चाहिए. लगता है स्वामी की बात सुन ली गई है.
रघुराम राजन ने आरबीआई के स्टाफ को लिखे एक खत में कहा है कि वो गवर्नर के रूप में एक और कार्यकाल के लिए दावा नहीं करेंगे. राजन ने शिक्षा के क्षेत्र में वापसी की इच्छा जताई है.
इस खबर के आने के साथ ही सोशल मीडिया पर कई तरह की कमेंट्री शुरू हो गई है. कई तो ये भी कह रहे हैं की राजन का जाना सही है, क्योंकि हम उन्हें डिजर्व नहीं करते. चर्चा शुरू हुई है तो दूर तलक जाएगी.
लेकिन आखिर ऐसा क्या हुआ कि राजन को अपना कार्यकाल खत्म होने से दो महीने पहले एक वीकेंड पर इस तरह की चिट्ठी लिखनी पड़ी?
जाहिर तौर पर, उनको लेकर हो रही राजनीति से वो दुखी थे. रघुराम राजन की खास बात ये थी कि वो खुले दिमाग से अपनी बात रखते थे, जिसे राजनीतिक हलकों में पसंद नहीं किया जाता था.
पब्लिक सेक्टर बैंकों की स्थिति सुधारने के लिए आरबीआई की कई पहलों को लेकर भी वो आलोचना के शिकार होते रहे. राजनीतिक गलियारों में ये बात आई की सरकार ने बैंकों के सुधार के लिए योजनाएं तो बना ली हैं लेकिन इसे आगे कैसे बढ़ाया जाए इस पर कोई साफ दिशा नहीं दिखती.
राजन की साफगोई भी उन पर भारी पड़ी. क्रोनी कैपिटलिज्म की निंदा और अभी के माहौल में अपनी भाषणों में हिटलर का हवाला. ये भाषण सही भी थे तो भी कई लोगों पर नागवार लगे.
उन्होंने आर्थिक सुधारों की धीमी रफ्तार पर भी सरकार की खिंचाई की जिसे स्वाभाविक रूप से पसंद नहीं किया गया.
इसके अलावा मॉनिटरी पॉलिसी कमेटी और सार्वजनिक कर्ज जैसे मुद्दों पर भी राजन और केंद्र सरकार आमने-सामने ही रहे.
राजन का फैसला केंद्र सरकार के लिए नई चुनौतियां खड़ी कर सकता है. अब तक पब्लिक सेक्टर बैंकों की हालत सुधारने का काम रघुराम राजन के जिम्मे था, जिसे वो बखूबी निभा रहे थे. लेकिन अब ये चुनौती प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वित्त मंत्री अरुण जेटली के दरवाजे आ पहुंची है. राजन के बचे हुए कार्यकाल यानी अगले दो महीनों में बैंकों की कितनी मरम्मत हो सकेगी इसका तो पता नहीं लेकिन पब्लिक सेक्टर बैंकों के लिए तो ये जाहिर तौर पर एक बड़ा सेटबैक है.
अर्थशास्त्रियों और निवेशकों के बीच एक हस्ती, रघुराम राजन के दूसरे कार्यकाल के बारे में बीते कई महीनों से बातचीत की जा रही है.
विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों के एक बड़े हिस्से का तो ये भी मानना है कि उनके जाने से दुनियाभर में एक गलत सिग्नल जाएगा और इसका सीधा असर विदेशी निवेश पर पड़ेगा. हालांकि ये बात एक अतिश्योक्ति भी साबित हो सकती है.
कुल मिलाकर देखा जाए तो रघुराम राजन का ये फैसला सरकार के लिए पचा पाना और इतनी जल्दी उनका रिप्लेसमेंट ढूंढना कोई आसान काम नहीं होगा. शायद अगर राजन अपनी पॉलिटिकल करेक्टनेस का ख्याल रखते तो मौजूदा कॉम्बिनेशन देश की अर्थव्यवस्था को सुधारने की दिशा में और लंबे समय तक काम कर सकता था.
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Published: 18 Jun 2016,07:24 PM IST