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तमिल भाषा में एक कहावत है, जिसका हिंदी तर्जुमा है… जैसे आप पानी में मिट्टी के घोड़े को लेकर उतर जाएं! यह कहावत तमिलनाडु की राजनीति में बीजेपी की भव्य और सुनियोजित इंट्री पर एकदम खरी उतरती है.
गृह मंत्री अमित शाह के लिए दक्षिण की गंगा सदानीरा कावेरी को पार करना मुश्किल नहीं लग रहा था. पार्टी ने सत्तारूढ़ अखिल भारतीय अन्ना द्रविण मुनेत्र कषगम (AIADMK) के साथ गठबंधन कर लिया है. लेकिन बीमारी से चंगा होने के बाद रजनीकांत के हालिया बयान से लगता है कि पार्टी को उनका आशीर्वाद नहीं मिल पाएगा. बशर्ते रजनी अन्ना की किसी ब्लॉकबस्टर के क्लाइमेक्स की तरह पासा पलट जाए.
कई हफ्ते पहले रजनीकांत ने अपनी राजनीतिक पार्टी बनाने का ऐलान किया था, लेकिन अब रजनी की कहानी का एंटी क्लाइमेक्स सामने है. उन्होंने चुनावी राजनीति से दूर रहने की घोषणा की है. यूं बीजेपी के समर्थकों ने अपनी उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा है. वे आस लगाए बैठे हैं कि (रजनी अन्ना बीजेपी को उसी तरह समर्थन देंगे, जैसे 1996 में उन्होंने अन्नाद्रमुक नेता जे. जयललिता को दिया था.
इससे पहले 2018 में आरएसएस विचारक एस. गुरुमूर्ति इच्छा जाहिर कर चुके हैं कि बीजेपी को रजनीकांत का साथ मिलेगा.
इसी से गुरुमूर्ति, जोकि अब तमिल पॉलिटिकल वीकली तुगलक का संपादन कर रहे हैं, ने हाल फिलहाल में भी यह भरोसा जताया है कि रजनी की ‘आध्यात्मिक’ राजनीति कई मायने में बीजेपी की मदद करेगी. वह उम्मीद लगाए बैठे हैं. लेकिन अब यह सिर्फ उनकी अभिलाषा भर है.
रजनीकांत कई सालों से राजनीति में धूप- छांव का खेल खेल रहे थे. फिर उन्होंने यह मुनादी की कि वह अपनी पार्टी बनाएंगे, लेकिन किसी द्रविड़ पार्टी से कोई गठबंधन नहीं करेंगे. चूंकि राजनीति में उनका प्रवेश ‘आध्यात्मिक’ है. वह एक धर्मपरायण हिंदू हैं इसलिए सभी को ऐसा लग रहा था कि वह बीजेपी के लिए मुफीद हैं, लेकिन सब कुछ इतना आसान भी नहीं है.
पेरियर ई. वी. रामास्वामी नायकर जैसे विख्यात नास्तिक राजनेताओं की बदौलत उन्हें बहुत कुछ मिला है. पिछड़ों को कॉलेज में कोटा से लेकर सरकारी नौकरियां हासिल हुई हैं.
यूं रजनी के लिए अच्छी और साफ सुथरी राजनीति का वादा पूरा करना आसान नहीं था. इसके अलावा एक बात यह भी है कि जमीनी स्तर की राजनीति में सुपरस्टार एम जी रामचंद्रन की तरह रजनीकांत का कोई वैचारिक आधार नहीं है. फिर फिल्मों के ग्लैमर की भी अपनी एक हद होती है.
रजनी की योजना थी कि राजनीति में चंद अच्छे, लेकिन अनजान लोगों को उतारा जाए. साथी कलाकार कमल हसन से घनिष्ठता के कारण यह अनुमान लगाया गया था कि वह और कमल की मक्कल निथि मय्यम (पीपुल्स जस्टिस सेंटर) तमिलनाडु की पढ़ी लिखी जनता के सामने एक नया राजनीतिक विकल्प रखेंगे. दोनों का जबरदस्त फैन क्लब मिल-जुलकर राज्य की राजनीति को नई दिशा देगा. वैसे अब भी इस बात की उम्मीद है कि रजनी कमल की तरफ झुक जाएं, क्योंकि एम के स्टालिन की द्रमुक और अन्नाद्रमुक के समर्थकों की भीड़ में उनका जनाधार शायद ही टिक पाएगा. कमल हासन ने यह साफ संकेत दिया है कि वह रजनी के साथ मिलकर काम कर सकते हैं.
पर रुकिए. तमिलनाडु में सब कुछ बहुत अस्थिर है. 21 नवंबर को पलानीस्वामी ने कहा था कि बीजेपी-अन्नाद्रमुक का गठबंधन 2021 के विधानसभा चुनावों तक जारी रह सकता है. लेकिन इस हफ्ते अन्नाद्रमुक ने यह स्पष्ट संदेश दे दिया है कि गठबंधन का बड़ा भाई अन्नाद्रमुक ही रहेगा. साथ ही उसके नेतृत्व में ही सत्ता साझा करने पर बातचीत होगी.
रजनी एक ट्रंप कार्ड हो सकते थे, लेकिन अब वह दो कदम पीछे हट गए हैं. इसलिए उनका पत्ता चला नहीं जा सकता. जैसा कि तमिल कहावत है, वह एक मिट्टी के घोड़े जैसे हैं.
तमिलनाडु की राजनीति की बदलती बयार में राजनीतिक गठबंधन का अनुमान नहीं लगाया जा सकता. अगर अन्नाद्रमुक टूट जाती है और रजनी एक स्टार प्रचारक बनते हैं, तो बीजेपी के दिन फिर सकते हैं. लेकिन फिलहाल यह उम्मीद नहीं दिखती. अमित शाह भले ही बीजेपी को राष्ट्रीय पार्टी बताते हों और नई दिल्ली में बैठे ‘भोले भाले’ न्यूज एंकर्स उनकी बात मान लेते हों, लेकिन विंध्याचल के पार दक्षिण की असली सच्चाइयां कुछ और ही हैं.
(लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. रॉयटर्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, बिजनेस स्टैंडर्ड और हिंदुस्तान टाइम्स के साथ लंबे समय तक काम कर चुके हैं. वह @madversity पर ट्विट करते हैं. यह एक ओपिनियन लेख है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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