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रजनीकांत का निजी राजनीतिक झुकाव बीजेपी की तरफ है. ये कोई नया खुलासा नहीं है. न ही कोई ऐसी चीज, जिसे पिछले दिनों की उनकी टिप्पणियों से समझने की जरूरत है. ये बात 2004 से ही साफ है, जब उन्होंने राज्य में बीजेपी-एआईएडीएमके गठबंधन को अपने समर्थन की जानकारी दी थी.
तब उन्होंने गठबंधन के लिए न कोई प्रचार किया था और न ही उनके लिए वोट मांगे थे, लेकिन उन्होंने ये जरूर कहा था कि वे बीजेपी के लिए वोट करेंगे. ये अलग बात है कि 2004 के चुनाव में एआईएडीएमके और बीजेपी का गठबंधन बुरी तरह पराजित हुआ और उन्हें एक भी लोकसभा सीट हासिल नहीं हुई.
असल में उस चुनाव में बीजेपी ने ऐन चुनाव से पहले डीएमके से एआईएडीएमके की तरफ शिफ्ट किया था. जानकार कहते हैं कि उन्हें इस गलती का खामियाजा 40 सीटों के रूप में भुगतना पड़ा. निश्चित तौर पर पिछले 14 साल में चीजें बदली हैं. लेकिन अब रजनीकांत कहां खड़े हैं? और अगर उनका स्टैंड साफ है, तो भी इससे क्या कोई फर्क पड़ता है?
पहली बात तो ये है कि रजनीकांत अभी भी लोगों को खींचने वाले सितारे हैं, जैसा कि वे पहले थे. लेकिन एक राजनीतिक के रूप में उनका परिवर्तन बहुत ही अनिश्चित जान पड़ता है. रजनीकांत को इस बात की घोषणा किए हुए करीब एक साल बीत गए कि वे राजनीति में उतर रहे हैं, लेकिन अभी भी उनकी ओर से कोई राजनीतिक पार्टी का ऐलान बाकी है. ऐसे में रजनीकांत की खुद की ये स्वीकारोक्ति सही लगती है कि असल में वे अभी भी राजनेता नहीं हैं.
ये बात महत्वपूर्ण है क्योंकि 2004 का उदाहरण हमारे सामने है कि सिर्फ रजनीकांत की ओर से किसी को समर्थन का ऐलान चुनाव जीतने के लिए काफी नहीं है. अगले आमचुनाव पर असर डालने के लिए पहले उन्हें फुल टाइम राजनेता होना होगा.
दूसरी बात ये कि हाल ही में रजनीकांत ने बयान दिया था कि बीजेपी मजबूत है क्योंकि वे सारी दूसरी पार्टियों का अकेले मुकाबला कर रही है. उनकी ये बातें बीजेपी और नरेंद्र मोदी की ओर उनके झुकाव को दिखाती है. ये भी सही है कि अपनी आखिरी फिल्म ‘काला’ (2018) में उनका चरित्र एक हिंदुत्ववादी नेता के साथ आर्थिक ग्रोथ के पैरोकार की तरह गढ़ा गया.
असल में फिल्म के चरित्र के साथ पीएम के व्यक्तित्व से समानता जरूर दिखी. तभी तो इस फिल्म ने इस चर्चा को जन्म दिया कि क्या वे इसके बहाने बीजेपी के करीब होने की छवि पेश कर रहे हैं और ये बताना चाह रहे हैं कि हिंदुत्व के शुभंकर नहीं हैं.
डीएमके का कांग्रेस, लेफ्ट, एमडीएमके, वीसीके और आईयूएमएल के साथ मजबूत गठबंधन है.
डीएमके ने पहले ही अगले चुनाव के मिजाज को तय कर दिया है. और उनकी नजर में ये है द्रविड़ियन राजनीतिक फिलॉस्फी बनाम बांटने वाली हिंदुत्ववादी ताकतों के बीच मुकाबला. ऐसे में अपनी बेहद कमजोर मौजूदगी वाले इस प्रदेश में बीजेपी की कोशिश एआईएडीएमके के अलग-अलग घटकों को साथ लाने के साथ पीएमके जैसी पार्टियों को जोड़कर एक विकल्प खड़ा करने की है.
बीजेपी इस उम्मीद में भी है कि ऐसे किसी गठजोड़ का हिस्सा रजनीकांत भी बनें और यहां तक कि वे चेहरे के रूप में उसका अगुवाई करें. जबकि उनके पीछे ये सारी पार्टियां आपस में इकट्ठा हों. लेकिन सच्चाई इतनी सहज और सरल नहीं है.
पहली बात तो ये है कि सत्ताधारी AIDMK पार्टी पूरी तरह से बिखर चुकी है और फिलहाल वे साथ में सिर्फ इस वजह से हैं कि जब जयललिता की मृत्यु हुई तो वे सत्ता में थे. ऐसा लगता है कि उनकी अब राज्य में बेहद कम विश्वसनीयता रह गई है. और रजनीकांत ने खुद अपने साथी एक्टर विजय की ब्लॉकबस्टर फिल्म ‘सरकार’ के विवाद में इस पर सवाल उठाया है.
लेकिन इस तरह के विवाद के साथ जुड़ना खुद रजनीकांत की विश्वसनीयता को कम करेगा. याद रखना चाहिए कि अपनी एक राजनीतिक पार्टी की घोषणा करते हुए रजनीकांत ने कहा था कि उनकी पार्टी राज्य की सभी 234 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ेगी. ऐसे में उनकी ये बात संसदीय चुनाव में अलग नहीं हो सकती. इस लिहाज से अगर वे अपनी पार्टी के साथ सामने आते हैं तो उनसे उम्मीद रहेगी कि वे लोकसभा की सभी सीटों पर खुद के उम्मीदवार मैदान में उतारें.
इसके साथ ही इतिहास की बात करें, तो पीएमके का रजनीकांत से पुराना विवाद रहा है. यहां तक कि 2004 में पीएमके के कार्यकर्ताओं ने रजनीकांत पर हमला तक किया था और उनके खिलाफ बयान जारी किया था. 2017 में भी पीएमके लीडर अंबुमणि रामदास ने कहा था कि रजनीकांत को राज्य में शासन करने का सपना नहीं देखना चाहिए क्योंकि यहां ‘ज्यादा सक्षम’ नेता इसके लिए पहले से हैं.
ऐसे में रजनीकांत के लिए ये बेहद मुश्किल काम है कि वे एआईएडीएमके और पीएमके, दोनों के साथ गठबंधन बना पाएं.
ये देखते हुए कि राजनीतिक गणित विपक्ष के पक्ष में है, अकेले रजनीकांत और बीजेपी के बीच का गठबंधन कुछ खास असर पैदा नहीं करेगा और ये रजनीकांत को तमिलनाडु में हिंदुत्व के चेहरे के रूप में ब्रांड करेगा.
रजनीकांत धार्मिक और हिंदू हो सकते हैं, लेकिन वे नहीं चाहेंगे कि उनकी ब्रांडिंग सांप्रदायिक या द्रविड़ियन सिद्धांतों के खिलाफ होने की बने. ऐसी कोई भी ब्रांडिंग रजनीकांत को राज्य की बहुसंख्यक आबादी से उन्हें काट देगी.
इस नजरिये से देखें तो रजनीकांत के लिए यहां विरोधाभासी चीजें काम कर रही हैं. रजनीकांत को समझना आसान नहीं रहा है और अकसर जब उनके आसपास ज्यादा विवाद जन्म ले लेते हैं, तो वे चुप्पी साध ले लेते हैं. ऐसे में इस बात के आसार ज्यादा दिख रहे हैं कि वे संभवत: फिलहाल संसदीय चुनाव से दूर रहने का विकल्प चुनें और इसके नतीजों के बाद विधानसभा चुनाव के लिए नए सिरे से अपनी बिसात बिछाएं.
रजनीकांत के ही एक चर्चित और लोकप्रिय डायलॉग की बात करें तो- “मैं तूझे कभी नहीं बताऊंगा कि मैं कैसे और क्या करुंगा. तुम तभी जानोगे, जब मैं वो कर चुका होऊंगा.” क्या हम 2019 चुनाव से पहले उनकी ओर से ऐसा ही एक्ट देखेंगे? उम्मीद कम है, लेकिन अपनी स्क्रिप्ट सिर्फ रजनीकांत ही जानते हैं.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं. आप उनसे @TMVRaghav पर संपर्क कर सकते हैं. इस लेख में लिखे विचारों का क्विंट समर्थन नहीं करता है.)
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