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Ram Mandir: आडवाणी के दिन बीत गए, लेकिन क्या मोदी हिंदुओं को जीत पाएंगे?

नरेंद्र मोदी के लिए चुनौती यह है कि उन्हें एक खत्म हो चुके मुद्दे को फिर से तैयार करना होगा.

आरती जेरथ
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>Ram Mandir: आडवाणी के दिन बीत गए, लेकिन क्या मोदी हिंदुओं को जीत पाएंगे?</p></div>
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Ram Mandir: आडवाणी के दिन बीत गए, लेकिन क्या मोदी हिंदुओं को जीत पाएंगे?

(फोटोः क्विंट हिंदी)

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ऐसा माना जाता है कि 6 दिसंबर 1992 को ध्वस्त बाबरी मस्जिद के खंडहरों से दूर जाते हुए लालकृष्ण आडवाणी, जिन्होंने यह सब शुरू किया था, ने अपने दिवंगत करीबी सहयोगी प्रमोद महाजन से उदास स्वर में कहा, "उन्होंने मेरे आंदोलन को नष्ट कर दिया है."

उस भयावह दिन पर भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के सबसे शक्तिशाली मुद्दे को लेकर जो राजनीतिक झटका लगा, उस पर आडवाणी का स्पष्ट आकलन कई सालों बाद अनुभवी पत्रकार वीर सांघवी ने अपने ब्लॉग 'आस्क वीर' में जाहिर किया है.

विध्वंस के बाद की उथल-पुथल भरी घटनाओं ने आडवाणी को भविष्यवक्ता साबित कर दिया. एक साल बाद, बीजेपी तीन उत्तरी राज्यों यूपी, मध्य प्रदेश और राजस्थान में विधानसभा चुनाव हार गई.

राम मंदिर का मुद्दा ठंडे बस्ते में चला गया क्योंकि आडवाणी की जगह अटल बिहारी वाजपेयी जैसे सर्वसम्मत व्यक्तित्व ने ले ली, जिनकी व्यापक स्वीकार्यता ने बीजेपी को "अकेलेपन" से बाहर निकाला और गठबंधन की राजनीति के युग में प्रवेश कराया, और गठबंधन सरकार का मुखिया बनाकर सत्ता में ला दिया.

राम मंदिर: बीजेपी ने एक भूले हुए मुद्दे को जिंदा कर दिया

भले ही 2014 में नरेंद्र मोदी ने पूर्ण बहुमत के साथ बीजेपी को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया, लेकिन इसकी स्थिति अपरिवर्तित रही. मंदिर मिला, लेकिन उस साल पार्टी के घोषणापत्र में सिर्फ दो लाइन का जिक्र था, क्योंकि मोदी "सब का साथ सब का विकास" और ''अच्छे दिन'' के दोहरे मुद्दे पर आगे बढ़े थे.

तीन दशक बाद, समय का पहिया घूम गया.

तीसरा कार्यकाल जीतने के लिए बिना नए दूरदर्शी एजेंडे के पीएम मोदी की बीजेपी अतीत की ओर मुड़ गई है और उस मुद्दे को फिर से जिंदा करने की कोशिश कर रही है, जिसे मस्जिद के विध्वंस के बाद आडवाणी की बीजेपी ने लोकप्रियता खोने के डर से त्याग दिया था.

अब मोदी के लिए चुनौती यह है कि उन्हें एक खत्म हो चुके मुद्दे को फिर से तैयार करना होगा और उससे चुनावी विजेता बनना होगा. यह एक कठिन रास्ता है, लेकिन मंदिर से जुड़े हर संगठन - राम मंदिर ट्रस्ट, बीजेपी, आरएसएस, वीएचपी और उसके सभी सहयोगी - 22 जनवरी को मंदिर के उद्घाटन को 'द ग्रेटेस्ट शो ऑन अर्थ' बनाने की जोरदार कोशिश में लगे हैं.

क्या मोदी आडवाणी की पहल का श्रेय ले सकते हैं?

पीएम मोदी के कार्यकर्ताओ और समर्थकों द्वारा देश भर में यात्राएं और बैठकें आयोजित करना, राम लला की मूर्ति के प्राण प्रतिष्ठा के अवसर पर कीर्तन और आरती आयोजित करना, राम धुन की मोबाइल ट्यून का प्रचार करना और हर कोने और चौराहे को पोस्टरों और भगवा झंडों से पाट देने में एक बेचैनी देखने को मिलती है.

मोदी इतने समझदार हैं कि वह ये समझ सकते हैं कि एक ही कार्ड दो बार नहीं खेला जा सकता. उन्होंने मंदिर के तख्ते पर नई परतें जोड़ दी हैं और आडवाणी की स्मृति के अंतिम अवशेषों को मिटाने के लिए उस पर अपनी व्यक्तिगत छाप छोड़ दी है.

जहां आडवाणी का आंदोलन मुस्लिम उत्पीड़न के प्रतीक के रूप में मस्जिद के खिलाफ सांप्रदायिक और ध्रुवीकरण भावनाओं से भरा था, वहीं मोदी को उम्मीद है कि यह उद्घाटन का जोरशोर से उनकी निगरानी में होना इसे हिंदू द्वारा पुनःप्राप्ति के उत्सव में बदल देगा.

त्यौहार हर किसी को पसंद होते हैं. पीएम मोदी के इवेंट मैनेजरों की टीम 22 जनवरी को दूसरी दिवाली में बदलने की कोशिश में है, जो कि शिशु राम के लिए घर वापसी है, और अयोध्या में वयस्क राम की वनवास से वापसी से कम महत्वपूर्ण नहीं है.
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प्राण प्रतिष्ठा ने संप्रदायों को बांट दिया है, लेकिन मोदी चिंतित नहीं हैं.

विडंबना यह है कि जहां आडवाणी अपने मंदिर आंदोलन से हिंदुओं और मुसलमानों को विभाजित करने में सफल रहे, वहीं मोदी ने न केवल राजनीतिक वर्ग बल्कि हिंदू साधु-संतों को भी बांट दिया है.

ज्यादातर राजनीतिक दल, खासकर कांग्रेस, इस आयोजन का बहिष्कार कर रही है, ये वही कांग्रेस है जिसके नेता राजीव गांधी मस्जिद का ताला खोलने और उसे अस्थायी राम मंदिर में बदलने के लिए जिम्मेदार थे.

विपक्ष की प्रतिक्रिया कोई आश्चर्य की बात नहीं है. मस्जिद पर दावा करने वाले वक्फ बोर्ड और मूल वादी निर्मोही अखाड़ा के बीच भूमि विवाद से लेकर 1987 में पालमपुर में पार्टी द्वारा पारित एक प्रस्ताव के बाद राम मंदिर बीजेपी का मुख्य राजनीतिक मुद्दा बन गया.

अयोध्या में "भव्य मंदिर" बनाने का वादा तब से पार्टी के हर चुनावी घोषणापत्र में रहा है.

चार प्रमुख हिंदू पीठों और निर्मोही अखाड़े के प्रमुख शंकराचार्यों की प्रतिक्रिया आश्चर्य की बात है. सभी ने चिंता व्यक्त की है कि मंदिर का उद्घाटन और मूर्ति की प्रतिष्ठा हिंदू परंपराओं और अनुष्ठानों के अनुसार नहीं की जा रही है.

हालांकि मोदी आलोचना से चिंतित नहीं दिखते हैं. विपक्ष द्वारा बहिष्कार से उनकी बात को बल मिलता है कि ये पार्टियां 'हिंदू विरोधी' हैं. साधु-संतों की चिंताओं को मंदिर ट्रस्ट के सचिव और वीएचपी नेता चंपत राय ने गलत बताकर खारिज कर दिया है.

अगर धर्म जनता के लिए नशा है, तो मोदी को लगता है कि वह अपने हिंदू निर्वाचन क्षेत्र को मंदिरों और लाभार्थी योजनाओं के रेवड़ियों से खुश रख रहे हैं.

मोदी की धार्मिक गारंटी?

राम मंदिर मोदी की "गारंटी" का एक उदाहरण है. दो और मस्जिदों पर दावेदारी का काम चल रहा है, एक मथुरा में शाही ईदगाह में कृष्ण जन्मभूमि मंदिर और दूसरी वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद.

उन्हें अपने पूर्व गुरु आडवाणी को गलत साबित करने के लिए चुनाव तक अपनी लय बरकरार रखनी होगी. सवाल यह है कि क्या वह गर्मियों तक इस लय को बरकरार रख पाएंगे? और क्या मतदाता आर्थिक मोर्चे, खासकर रोजगार के वादों को पूरा करने में उनकी असमर्थता को नजरअंदाज करंगे?

हमें इसका जवाब मई 2024 में पता चलेगा.

(आरती आर जेरथ दिल्ली स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं. इनका ट्विटर हैंडल है @AratiJ. यह एक ओपीनियन आर्टिकल है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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