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रामविलास पासवान के 2016 के एक ट्वीट से पता चलता है कि उन्होंने राजनीति का सफर क्यों चुना. ठीक 51 साल पहले उनके पास ऑप्शन था कि वह बिहार में विधायक बनें या फिर पुलिस अफसर. एक दोस्त ने कहा कि फैसला लेते वक्त यह ध्यान रखना कि सरकार बनना है या सर्वेंट. राजनीति को चुनकर उन्होंने सरकार का हिस्सा बनने का फैसला किया.
पिछले 31 साल में से 21 साल वह 6 अलग-अलग प्रधानमंत्रियों के कैबिनेट में अलग-अलग विभाग के मंत्री रहे. उन्होंने 9 लोकसभा का चुनाव जीता और बिहार विधानसभा में तो उनकी एंट्री 1969 में ही हो गई थी.
हर चुनाव में जीत के बाद शायद उनका यह भरोसा मजबूत हो जाता होगा कि उन्हें तो सरकार का हिस्सा ही रहना है.
राजनीति के एक्सपर्ट उनकी विरासत को दो कसौटी पर परखेंगे-
दोनों ही कसौटियां पर एक्सपर्ट्स उनको ज्यादा नंबर देने में शायद कंजूसी ही करेंगे.
एक्सपर्ट्स तर्क देंगे कि सत्ता में बने रहने के लिए उन्होंने कितने समझौते किए. कभी वीपी सिंह के दलित-पिछड़ा सशक्तिकरण की राजनीति के वह विश्वस्त नेता रहे. तो देश की पहली और एकमात्र गैर-कांग्रेस और गैर-बीजेपी की अवधारणा पर बनी सरकार के मजबूत सिपाही भी रहे. और 1998 के बाद तो कभी बीजेपी की अगुवाई वाली, फिर कांग्रेस की अगुवाई वाली और फिर बीजेपी के नेतृत्व में बनी एनडीए की सरकार का वह अहम हिस्सा रहे.
इस दौरान ऐसा भी मौका आया, जब उन्होंने विचारधारा के नाम पर 2002 में वाजपेयी के कैबिनेट से इस्तीफा दिया. उसके कुछ साल बाद बिहार में उन्होंने ऐलान किया कि जिस गठबंधन को उनकी पार्टी का सहयोग चाहिए उसे एक मुस्लिम को अपना मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाना होगा.
हालांकि, मेरा मानना है कि पासवान की विरासत को ठीक से समझने के लिए हमें उस बिहार को जानना होगा जिसमें उन्होंने शुरुआती सालों में सांस ली थी.
1960 के दशक का बिहार सामंती था और वहां संभ्रांत जातियों की तूती बोलती थी. उसी दौरान लोहिया के पिछड़ा पावे सौ में साठ के नारों ने समाज के कुछ तबकों को अपनी ओर खींचना शुरू कर दिया था. उस समय की राजनीति में सपने देखने वाले लालू प्रसाद, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान जैसे नेताओं को इसमें एक अवसर दिखा होगा. उन्हें लगा होगा कि उस समय की सर्व शक्तिशाली कांग्रेस से मुकाबला करने के लिए इस तरह की राजनीति असरदार हो सकती है.
शुरुआती सालों में तो यह बदलाव काफी झंझट वाला रहा. लेकिन धीरे-धीरे बदलाव की जड़ें मजबूत होने लगीं. हमें लगने लगा था कि संभ्रांत जातियों के वर्चस्व में कमी आ रही है. हम देख पा रहे थे कि पिछड़ों को यह एहसास होने लगा था कि उनके वोट में कितनी ताकत है और वे इस ताकत को असरदार तरीके से इस्तेमाल करना चाहते थे. राज्य की राजनीति तेजी से बदल रही थी और सामाजिक ताना-बाना भी इस बदलाव के असर से अछूता नहीं था.
ऐसा कहना जल्दबाजी होगी कि राज्य में संभ्रांत जातियों का वर्चस्व पूरी तरह से खत्म हो गया. लेकिन पासवान जैसे नेताओं की राजनीति की वजह से इस वर्चस्व को लगातार चुनौती मिलने लगी और कई मौकों पर तो वर्चस्व टूटा भी.
क्या बिहार जैसे राज्य के लिए इस तरह का बदलाव अहम नहीं है?
बिहार के एक पिछड़े इलाके में 1980 के दशक में बड़े होने के दौरान मैं महसूस करता था कि मेरे गांव के पिछड़े तबके के लोग मेरे पिताजी का काफी सम्मान करते थे. मेरे पिताजी गांव के सरपंच थे और पुराने कांग्रेसी नेता.
उसके बाद के दशकों में माहौल बदलने लगा. मुझे पता चला कि मेरे पिताजी ने अपनी पुस्तैनी जमीन का एक हिस्सा गांव के कुछ दलित परिवारों के हाथों बेचने का फैसला किया है. और एक बड़ा बदलाव जिसे सभी महसूस कर सकते थे वो ये था कि अब सम्मान के हकदार सिर्फ कुछ खास सरनेम वाले ही नहीं थे.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि पासवान और भी बड़े सामाजिक बदलाव के सपने को साकार करने की क्षमता रखते थे. लेकिन जितना वह कर गए उसकी भी तो सही समीक्षा होनी ही चाहिए और उन्हें उनके हिस्से का क्रेडिट मिलना ही चाहिए.
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Published: 09 Oct 2020,02:57 PM IST