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बृहस्पतिवार को लोकसभा में कांग्रेस विधायक दल के नेता अधीर रंजन चौधरी (Adhir Ranjan Chaudhary) की टिप्पणी से जो बेढंगी बहस शुरू हुई, उसे टाला जा सकता था. अधीर रंजन चौधरी ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू (President Draupdi Murmu) को संबोधित करने के लिए "राष्ट्रपत्नी" शब्द का इस्तेमाल किया और यह भौंड़ा विवाद पैदा हो गया.
यूं अधीर रंजन चौधरी ने यह टिप्पणी कांग्रेस के प्रदर्शन के दौरान, यानी सदन के बाहर की थी. इस विवाद के बाद उन्होंने ‘जुबान फिसल गई थी’ कहकर इस टिप्पणी पर माफी मांगी और कहा कि उनकी कमजोर हिंदी की वजह से ऐसा हुआ. आम तौर पर सत्ताधारी पार्टी की इस जीत के बाद यह झगड़ा यहीं खत्म हो सकता था.
लेकिन सरकार और विपक्ष के बीच लाग-डांट का रिश्ता है, इसलिए इस फसाद के बाद दोनों पक्षों के बीच एक और तू-तू-मैं-मैं शुरू हो गई. वैसे यह विचित्र बात नहीं कि संसद में सरकार और विपक्ष एक दूसरे पर उंगलियां उठाएं लेकिन बात को कभी हाथ से निकलने नहीं दिया जाता. यह जरूर है कि इसके लिए सदन में नेतागण के आपसी सहयोग और अध्यक्ष की होशियारी की जरूरत होती है. पर इस मामले में लोकसभा में ये दोनों नदारद थे.
'राष्ट्रपत्नी' वाली टिप्पणी को लेकर संसद में हंगामा पूरी तरह टाला जा सकता था.
यह विचित्र नहीं कि संसद में सरकार और विपक्ष एक दूसरे पर उंगलियां उठाएं लेकिन बात को कभी हाथ से निकलने नहीं दिया जाता. यह जरूर है कि इसके लिए सदन में नेतागण के आपसी सहयोग और अध्यक्ष की होशियारी की जरूरत होती है. पर इस मामले में लोकसभा में ये दोनों नदारद थे.
बृहस्पतिवार को जो हुआ, उससे यही महसूस होता है कि सरकार और विपक्ष के बीच न तो कोई तालमेल है, और न ही आपसी ताल्लुकात.
जब यूपीए की सरकार थी, तो सदन के नेता के रूप में प्रणव मुखर्जी अपने दिन की शुरुआत एल.के.आडवाणी, एम.एम.जोशी, सुषमा स्वराज और सदन के दूसरे नेताओं को फोन करके करते थे.
सांसदों को नई इमारत से ज्यादा गुजरे हुए समय की इबारत की जरूरत है. उस संस्था के गौरव को वापस लौटाने की जरूरत है.
जरूरी है कि सांसद खुद को उस मकसद के लिए समर्पित करें जिसके लिए संसद की स्थापना हुई थी: बहस, चर्चा और कानून.
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पर तीखा हमला करते हुए केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी के लहजे और तेवर से विपक्षी दल हैरान रह गए. स्मृति ईरानी ने सोनिया को “महिला विरोधी, दलित विरोधी और आदिवासी विरोधी” कहा और यह भी आरोप लगाया कि “उनकी शह पर एक महिला का अपमान हुआ है.” उन्होंने मांग की कि सोनिया गांधी अपने कलीग अधीर रंजन चौधरी की टिप्पणी पर माफी मांगें.
जैसे ही सदन स्थगित हुआ, सोनिया गांधी सीनियर बीजेपी सांसद रमा देवी के पास गईं और उनसे पूछा कि जब अधीर रंजन चौधरी ने अपनी गलती की माफी मांग ली है तो भी उन पर निशाना क्यों साधा जा रहा है. इस वक्त, स्मृति ईरानी जिन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पर जुबानी हमला किया था, ने बीच में दखल देने की कोशिश की जिसके जवाब में सोनिया ने उनसे बात न करने को कहा. इसके बाद जो हुआ उससे वरिष्ठ सांसद और बाकी सभी दंग रह गए. सत्तारूढ़ पार्टी के सांसदों की सोनिया गांधी के साथ तीखी बहस हुई. उन्हें राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) की सुप्रिया सुले और कुछ कांग्रेसी सांसदों के साथ हिफाजत से बाहर ले जाना पड़ा.
यानी बृहस्पतिवार को जो हुआ, उससे यही महसूस होता है कि सरकार और विपक्ष के बीच न तो कोई तालमेल है और न ही आपसी ताल्लुकात. फिलहाल दोनों पक्षों के बीच चौतरफा टकराव है. पहले ऐसा नहीं था. संसदीय कार्य मंत्री विपक्ष के नेता और दूसरे नेताओं की बीच कड़ी का काम करते थे. वे संभावित मुद्दों पर चर्चा करते थे और तय करते थे कि कैसी पहल की जाएगी.
इसी तरह प्रमोद महाजन और कमलनाथ, दोनों ने संसदीय मामलों के मंत्री के रूप में सदन में भिड़ंत की उम्मीद को कम करने के लिए विपक्ष के साथ मिलकर काम किया. पर अब ऐसा बर्ताव देखने को नहीं मिलता.
विपक्षी दलों का मानना है कि संसद के बाहर सरकारी एजेंसियां उन पर निशाना साधती हैं और संसद के भीतर उनकी आवाज दबाई जा रही है. वे इल्ज़ाम लगाती हैं कि सरकार संसद के दोनों सदनों में अपने बहुमत का इस्तेमाल करके, उनके साथ ज्यादतियां कर रही है. सीनियर एमपी शशि थरूर का कहना है कि ”हमें कीमतों में इजाफे, जीएसटी दरों में बढ़ोतरी, ईंधन की कीमतों जैसे मुद्दों को उठाने और बहस करने की इजाजत नहीं दी जाती.”
इन परस्पर विरोधी दावों के बीच सांसदों की छवि मैली होती जाती है. बृहस्पतिवार को जो कुछ हुआ, उससे इन संस्थाओं और उनकी संजीदगी से लोगों का भरोसा टूट रहा है. भारत की संसद में जीवंत और शानदार बहस का समृद्ध इतिहास रहा है. इसने नई राह दिखाने वाले कई कानून बनाए हैं. जवाहरलाल नेहरू, फिरोज गांधी, मधु लिमये, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, इंद्रजीत गुप्ता, सोमनाथ चटर्जी जैसे सांसदों ने अपने वक्तृत्व कौशल और अपने तर्कों की गहराई से संसदीय वाद-विवाद को चमकदार बनाया है.
बदकिस्मती से यह बीते दिनों की बात रह गई है.
इतना फैलाव हो चुका है कि सार ही खत्म हो गया है. स्थगन और गतिरोध रोजमर्रा का चलन है और बहस दुर्लभ हो गई है.
साल के आखिर तक संसद की नई इमारत तैयार हो जाएगी. लेकिन सांसदों को नई इमारत से ज्यादा गुजरे हुए समय की इबारत की जरूरत है. उस संस्था के गौरव को वापस लौटाने की जरूरत है. लेकिन इसके लिए जरूरी है कि वे खुद को उस मकसद के लिए समर्पित करें जिसके लिए संसद की स्थापना हुई थी: बहस, चर्चा और कानून.
(लेखक सीनियर पत्रकार हैं. उनका ट्विटर हैंडिल @javedmansari है. यह एक ओपिनियन पीस है और इसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंटन न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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