advertisement
2020 में मध्य पूर्व के देशों में तेजी से आ रहे राजनीतिक बदलाव का असर दुनिया के दूसरे हिस्सों तक नजर आ रहा है. मसलन, अमेरिका की पहल पर संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) और इजरायल के बीच ऐतिहासिक संधि, कश्मीर पर सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच तनातनी, ईरान और चीन के बीच कारोबारी समझौते से भारत को झटका, लेबनान की राजधानी में धमाके से राजनीतिक उथल-पुथल और तुर्की में जोर पकड़ता इस्लामिक राष्ट्रवाद.
ऐसे में सवाल ये है कि हाल के दिनों में मध्य पूर्व के देशों से भारत के संबंध सुधरे हैं या बिगड़े हैं? बदलते समीकरणों के चलते इन देशों के भारत से कूटनीतिक रिश्तों पर क्या असर पड़ेगा?
सबसे पहले बात यूएई और इजरायल के बीच हुई ऐतिहासिक संधि की. 72 साल की दुश्मनी भुलाकर दोनों देशों ने हाथ मिलाया तो मध्य पूर्व में खलबली मच गई. 1948 में इजरायल के वजूद में आने के बाद ये किसी भी अरब देश के साथ इसका तीसरा शांति समझौता है. पहला 1979 में मिस्र के साथ हुआ और दूसरा 1994 में जॉर्डन के साथ. नई सुलह के सूत्रधार अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने उम्मीद जताई कि आने वाले समय में दूसरे अरब देश भी यूएई को फॉलो करेंगे. हालांकि खाड़ी देशों में फिलहाल बहरीन और ओमान को छोड़कर किसी और देश के इजरायल के करीब आने की संभावना नहीं दिख रही है.
भारत ने अपनी पहली प्रतिक्रिया में ही सूझबूझ के साथ तीनों देशों से अपने संबंध की अहमियत बता दी. इजरायल और फिलिस्तीन के बीच दशकों से जारी संघर्ष के बावजूद भारत दोनों देशों से अच्छे रिश्ते बनाए रखने में कामयाब रहा है. समझौते के बाद भारत ने साफ किया वो हमेशा से फिलिस्तीन के हितों का भी समर्थक रहा है. साथ में ‘दो-राष्ट्र समाधान’ पर बातचीत की उम्मीद जताकर कर भारत ने दोनों पक्षों को संतुष्ट कर दिया. वैसे तो फिलिस्तीन हमेशा से भारत का मित्र देश रहा है, लेकिन 2018 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दौरे ने इस संबंध को और गहराई दी. मोदी फिलिस्तीन जाने वाले भारत के पहले प्रधानमंत्री थे. इसलिए राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने इस मौके पर प्रधानमंत्री मोदी को फिलिस्तीन के सर्वोच्च नागरिक सम्मान से नवाजा.
2017 में इजरायल का दौरा कर पीएम मोदी वहां जाने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री बने. इजरायली पीएम बेंजामिन नेतन्याहू और पीएम मोदी की मुलाकातों में दोनों नेताओं के बीच मजबूत व्यक्तिगत संबंध भी साफ नजर आता है. कारोबार के हिसाब से आज भारत इजरायल के हथियारों का सबसे बड़ा खरीदार है, उम्मीद है कि जल्द ये व्यापार 20 बिलियन डॉलर तक पहुंच जाएगा.
यूएई से भारत के मौजूदा संबंध को इसी बात से समझा जा सकता है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी 2015, 2018 और 2019 में तीन बार वहां का दौरा कर चुके हैं, जबकि क्राउन प्रिंस शेख मोहम्मद बिन जायद अल नहयान दो बार 2016 और 2018 में भारत आ चुके हैं. 60 बिलियन डॉलर से ऊपर के कारोबार के साथ संयुक्त अरब अमीरात 2019 में भारत का तीसरा सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर था. उम्मीद जताई गई थी कि ये आंकड़ा 2020 के आखिरी तक 100 बिलियन डॉलर तक पहुंच जाएगा.
अब बात सऊदी अरब की जो अरब देशों के आपसी विवादों से अलग इस वक्त पाकिस्तान से बेहद नाराज है. हालात ऐसे आ गए कि पाकिस्तान को दी जाने वाली आर्थिक मदद सऊदी अरब ने रोक दी. पिछले साल सऊदी अरब ने खस्ताहाल पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए 20 अरब डॉलर के समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. लेकिन कश्मीर पर पाकिस्तान के अनर्गल आलाप और मुस्लिम देशों का अलग गुट बनाने की धमकी ने सब पर पानी फेर दिया.
हालांकि पाकिस्तान की धमकी का असर उल्टा हो गया और सऊदी अरब ने आर्थिक मदद पर ब्रेक लगा दिया. हालात पर काबू पाने के लिए पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष कमर जावेद बाजवा को रियाद दौड़ना पड़ा. लेकिन क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने उनसे मिलने से इनकार कर दिया. उधर पूरा मामला बिगड़ने के बाद पाकिस्तानी विदेश महमूद कुरैशी तुरंत चीन रवाना हुए. माना जा रहा है कि सऊदी अरब से तल्खी बढ़ने के बाद पाकिस्तान चीन से और आर्थिक मदद की गुहार लगाएगा. चीन ने हमेशा की तरह कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान का समर्थन किया है. ये भारत के लिए कोई नई बात नहीं है.
जहां तक कश्मीर के मुद्दे का सवाल है यूएई के साथ सऊदी अरब भी अपना रुख साफ कर चुका है. दोनों देश इसे भारत का अंदरूनी मामला मानते हैं और पाकिस्तान की तमाम कोशिशों के बावजूद अंतरराष्ट्रीय मंच पर इस मसले को उठाने के लिए राजी नहीं हैं. भारत और सऊदी अरब के बीच पिछले कुछ सालों में कूटनीतिक और कारोबारी संबंध मजबूत हुए हैं. 2016 और 2019 में पीएम मोदी ने सऊदी अरब का दौरा किया तो फरवरी 2019 में क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान भारत आए. दोनों देशों के बीच कई समझौते हुए जिसमें आतंकवाद के खिलाफ सहयोग भी शामिल था. आज भारत और सऊदी अरब के बीच कारोबार करीब 27 अरब डॉलर का बताया जाता है.
मध्य पूर्व में फिलहाल भारत के लिए दो बातें चिंताजनक हैं. पहली, ईरान और चीन के बीच ट्रेड डील और दूसरी, तुर्की के साथ तकरार. अमेरिका के साथ परमाणु समझौता टूटने के बाद ईरान ने चीन का हाथ थाम लिया है. न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक करीब 400 अरब डॉलर के इस समझौते के तहत ईरान अगले 25 सालों तक सस्ते दाम पर चीन को कच्चा तेल मुहैया कराएगा, जिसके बदल चीन ईरान में भारी निवेश करेगा. इस निवेश में चाबहार रेल प्रोजेक्ट भी शामिल है जिससे, चीन का साथ मिलने के बाद, ईरान ने भारत को अलग कर दिया है.
चार साल पहले भारत के साथ हुई डील में चाबहार से अफगानिस्तान की सीमा पर जाहेदान तक रेल लाइन बिछाने की योजना थी. ये डील 2016 में प्रधानमंत्री मोदी की ईरान यात्रा के दौरान हुई. भारत चाबहार बंदरगाह को भी विकसित कर ईरान के रास्ते मध्य एशिया के देशों तक अपना संपर्क मार्ग तैयार करना चाहता था. पाकिस्तान के ग्वादर पोर्ट के मुकाबले अरब सागर में ईरान के चाबहार पोर्ट तक भारत की पहुंच की कूटनीतिक और व्यापारिक अहमियत थी. अब ईरान में चीन के निवेश की बात ने भारत की मुश्किलें बढ़ा दी हैं.
पिछले साल तक भारत को अमेरिका से कुछ छूट हासिल थी. जिसके तहत पाबंदियों के बावजूद ईरान से कारोबार जारी था. 2019 में अमेरिका ने उस छूट को खत्म कर दिया. नतीजा ये हुआ कि 2019-20 के कारोबारी साल में भारत और ईरान के बीच व्यापार 17 बिलियन डॉलर से घटकर 3.5 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया. घटते व्यापार का असर कूटनीतिक रिश्तों पर भी हुआ. कभी कश्मीर पर भारत के समर्थन में रहे ईरान ने अपना सुर बदल लिया है. पिछले साल जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म किए जाने के बाद ईरान ने भी भारत की आलोचना की. आज भी वो इस मुद्दे पर पाकिस्तान के सुर में सुर मिला रहा है.
मध्य पूर्व में भारत के लिए सबसे बड़ी मुसीबत बना है तुर्की. खासकर इस्लामिक राष्ट्रवादी रेचेप तैय्यप अर्दोआन के राष्ट्रपति बनने के बाद भारत के साथ तुर्की के समीकरण बिगड़ गए हैं. जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म किए जाने के बाद पाकिस्तान के इशारे पर अर्दोआन संयुक्त राष्ट्र संघ में इस मसले को उठा चुके हैं. हालांकि सितंबर 2019 में अर्दोआन के इस रुख के बाद भारत ने भी जवाबी कदम उठाए. संयुक्त राष्ट्र संघ में अर्दोआन के भाषण के बाद प्रधानमंत्री मोदी तुर्की के विरोधी देश साइप्रस, आर्मीनिया और ग्रीस के नेताओं से मिले. जहां साइप्रस और ग्रीस के साथ तुर्की का सीमा विवाद बहुत पुराना है, आर्मीनिया के लोग 1915 में हुए नरसंहार के लिए तुर्की को जिम्मेदार मानते हैं.
इसके बाद सीरिया में कुर्द लड़ाकों के खिलाफ तुर्की के आक्रामक रवैये की भारत ने जमकर निंदा की और संयम से काम लेने का आह्वान किया. फिर प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले साल अक्टूबर में होने वाली अपनी तुर्की यात्रा भी रद्द कर दी. इसके अलावा भारत ने तुर्की के साथ रक्षा कारोबार भी कम कर दिया है, हथियारों का निर्यात घटा दिया है, और देश के मौजूदा हालात को देखते हुए भारतीय नागरिकों को तुर्की ना जाने की एडवाइजरी भी जारी कर दी.
(ओम तिवारी दिल्ली के एक पत्रकार और स्तंभकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @theomtiwari है. इस लेख में दिए गए विचार उनके अपने हैं, क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं.)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: 23 Aug 2020,03:46 PM IST