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19 साल की उम्र में, लाहौर के सेक्रेड हार्ट कॉन्वेंट और नैनीताल के कॉलेज से निकलते ही, उन्हें प्यार हो गया और उन्होंने अपनी पसंद के व्यक्ति से शादी कर ली. उनके पिता उपेन्द्रनाथ गांगुली, एक साहसी, उदार ब्राह्मण, जो आधुनिक बांग्लादेश के बारिसाल से निकलकर उस वक्त के संयुक्त प्रांत (United Provinces) में बस चुके थे, ने शादी का विरोध किया.
आखिरकार, उनकी बेटी सुंदर, प्रतिभाशाली थी - एक शिक्षक और तेजतर्रार – वह खुद से 23 साल बड़े मुस्लिम से शादी क्यों करेगी? लेकिन वो रुकी नहीं और 1928 में उन्होंने इलाहाबाद में आसफ अली से शादी कर ली.
शादी के करीब दो साल बाद नमक सत्याग्रह के दौरान उन्हें जेल भेज दिया गया. तब हमारे औपनिवेशिक मालिकों ने उनकी जमानत से इंकार कर दिया: किसी ने अदालत में तर्क दिया कि वह एक 'आवारा' थीं. हो सकता है रही हों. लेकिन इस तर्क से तूफान खड़ा हो गया. अंग्रेजों की कैद में मौजूद हर महिला ने अरुणा की रिहाई होने तक जेल से अपनी रिहाई से इनकार कर दिया. आखिरकार उन्हें रिहा कर दिया गया.
किसी ना किसी को हमारा जोन ऑफ आर्क बनना था. वो बनीं, और 8 अगस्त, 1942 को बॉम्बे के गोवालिया टैंक मैदान में स्वतंत्रता का झंडा फहरा दिया. उसके बाद मार्क्सवादियों और कांग्रेस कार्यकर्ताओं के एक दल के साथ वो भूमिगत हो गईं.
वो स्वतंत्रता आंदोलन की रानी थीं. वो महात्मा और नेहरू की दुलारी थीं –ये बंगाली महिला, जिसने सभी बाधाओं के बावजूद, एक मुसलमान, आसफ अली से शादी की थी, जेल गईं और फिर 1942 के बाद भूमिगत हो गईं.
मेरे लिए वो जीवन भर अरुणापिशी रहीं. उन्होंने मेरे पिता को उनकी पहली (और आखिरी) नौकरी देशभक्त, एक वामपंथी समाचार पत्र, में दी थी, जो कि बंद हो चुकी है. आज के लोगों से बिलकुल उलट, उन्होंने सभी आधिकारिक पदों, पुरस्कारों और बाकी सबकुछ ठुकरा दिया.
एक कृतज्ञ सरकार ने उन्हें लुटियंस दिल्ली में एक अपार्टमेंट दिया. उन्होंने फैसला किया कि वहां किताबें संग्रहित करेंगी – और मुझ जैसे नन्हे मेहमान आएंगे. अरुणापिशी अपने दिवंगत पति के नाम पर बनी सड़क, आसफ अली मार्ग - पर एक छोटे से अपार्टमेंट में रहती रहीं.
उन्हें भारत के साथ-साथ वामपंथी देशों में सम्मानित किया गया, लेकिन उन्होंने सम्मान को कभी तवज्जो नहीं दी. लियोनिद ब्रेज़नेव ने जब उन्हें ऑर्डर ऑफ लेनिन से सम्मानित किया, तो उन्होंने बड़े आराम से मुझे, तब एक बच्चा, मेडल वाला लाल बॉक्स थमा दिया. उनकी मृत्यु के एक साल बाद, 1997 में, उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया: जिसकी भी उन्हें शायद ही परवाह होती.
अरुणापिशी के पास एक कार थी. एक टूटा-फूटी नीली फिएट, और नंदन सिंह नाम का एक नेपाली ड्राइवर था, जो आखिरी वक्त तक उनके साथ रहा. दिल्ली और कलकत्ता के बीच इतने सालों में नंदन सिंह और मैं दोस्त बन गए थे.
छुट्टियों में एक बार दिल्ली में रेलवे स्टेशन और पंजाब भवन, जहां हम अरुणापिशी के अतिथि बनकर रुके थे, के बीच सवारी के दौरान मैंने कनॉट
प्लेस में जली हुई दुकानों और इमारतों को देखा. ‘नंदन सिंह,’ मैंने पूछा, ‘यहां क्या हुआ?’
‘बुरा वक्त आ गया, भैया,’ उसने कहा. वो नवंबर 1984 की शुरुआत की बात थी, अरुणापिशी की आजीवन प्रशंसक रहीं इंदिरा गांधी को गोली मार दी गई थी और उनकी पार्टी ने खौफनाक बदला लिया था. अरुणापिशी कभी इसे बर्दाश्त नहीं करतीं.
हैप्पी बर्थडे अरुणपिशी - और मेरी मां के साथ छोड़ी गई तस्वीरों के एल्बम समेत हर चीज के लिए धन्यवाद.
(लेखक दिल्ली-बेस्ड वरिष्ठ पत्रकार हैं. आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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Published: 16 Jul 2020,07:52 AM IST