मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019ओपिनियन | बीजेपी की राजनीति का तुरुप का पत्ता हैं विजय रुपानी

ओपिनियन | बीजेपी की राजनीति का तुरुप का पत्ता हैं विजय रुपानी

अल्पसंख्यक जैन समुदाय से विजय रुपानी को मुख्यमंत्री बनाकर संघ और बीजेपी ने खेला मास्टर स्ट्रोक

हर्षवर्धन त्रिपाठी
नजरिया
Updated:
गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रुपानी (फोटो: फेसबुक)
i
गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रुपानी (फोटो: फेसबुक)
null

advertisement

2013 के आखिर में बीजेपी पूरी तरह से बदल गई. ये अंदाजा शायद ही किसी को लगा हो. ये अंदाजा इसलिए नहीं लगा क्योंकि, नरेंद्र मोदी के बीजेपी की ओर से प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनने के एलान के बाद अंदाजा लगाने वाले सारे राजनीतिक पंडित तो यही अंदाजा लगाने में फंसे रह गए कि गुरु-चेले की ये लड़ाई बीजेपी को दो फाड़ करेगी क्या?

इस अंदाजा लगाने में राजनीतिक पंडितों को ये कतई समझ में नहीं आया कि दरअसल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिंदूओं को एकजुट करने के लिए सामाजिक अभियान के साथ राजनीतिक दांव भी चलने जा रहा है. एक ऐसा दांव जो मंडल-कमंडल से बहुत आगे का था. ये दांव था देश में अनुमानित राजनीति को ध्वस्त करने का. और इस राजनीति के लिए विशुद्ध हिंदुत्व वाले चेहरे लालकृष्ण आडवाणी से बहुत बेहतर चेहरा था नरेंद्र मोदी का. नरेंद्र मोदी का इसलिए क्योंकि, मोदी उस घांची तेली समाज से आते थे जो, किसी भी तरह से किसी जातीय ताकत का केंद्र नहीं बन सकता था.

इसलिए नरेंद्र मोदी संघ की उस हिंदू संगठन की कल्पना के सटीक वाहक थे. साथ ही नरेंद्र मोदी हिंदू हृदय सम्राट से बड़े सलीके से विकास पुरुष बन चुके थे. नरेंद्र मोदी पहले ऐसे राज्य के नेता थे जिनकी चर्चा दुनिया के मंचों पर होती थी. हैदराबाद को साइबराबाद बना देने के बाद भी दुनिया के मंच पर चंद्रबाबू नायडू भी कभी उस तरह से हाथों-हाथ नहीं लिए गए.

इसीलिए जब 2014 में देश को चौंकाने वाला नतीजा आया तो, लोग विकास और हिंदुत्ववादी छवि की ही राजनीति को समझने में लगे रहे. जबकि, सच्चाई ये रही कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और नरेंद्र मोदी बहुत अच्छे तरीके से हिंदू समाज को एकसाथ लाने के काम में बखूबी लगे हुए थे. इसीलिए किसी भी राज्य में तय जातीय समीकरण के लिहाज से मई 2014 के बाद बीजेपी का कोई भी नेता प्रतिष्ठित नहीं होता दिखेगा.

इस बात को जो भी समझेगा, वो आसानी से समझ जाएगा कि विजय रुपानी ही भारतीय जनता पार्टी की सरकार के मुख्यमंत्री पद के योग्य क्यों साबित हुए हैं. वैसे तो रुपानी के पक्ष में संघ, अमित शाह और नरेंद्र मोदी तीनों का प्रिय होना सबसे आसानी से समझ में आ जाने वाला समीकरण है. लेकिन, मामला इतना भर नहीं है.

विजय रूपानी (फोटो:PTI)

दरअसल विजय रूपानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की हिंदू राजनीति के सबसे बड़ा चेहरा बन सकते हैं. हिंदुस्तान में आजादी के बाद से बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक की राजनीति में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए हमेशा ये चिंता की वजह बन जाती थी कि अल्पसंख्यक के नाम पर मुसलमान ही सामने दिखता था. यहां तक कि सिख भी कभी अल्पसंख्यक नहीं हो पाया. हां, 1984 दंगों की याद में भले सिख को अल्पसंख्यक कहकर याद किया जाता हो. इसाई भी सिर्फ चर्च पर हमले के समय ही अल्पसंख्यकों की कतार में खड़े होते थे. ऐसे में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर एक तगड़ा आरोप हमेशा चस्पा रहता था कि संघ अल्पसंख्यक विरोधी है.

इसीलिए संघ लंबे समय से देश के दूसरे अल्पसंख्यकों की हिंदू समाज या उससे आगे बढ़कर कहें कि, सनातन समाज में शामिल करने के काम में चुपचाप लगा रहा. बौद्ध, जैन और सिख समाज के लोगों में संघ ने बहुत काम किया. बौद्धों को दलित चेतना और अंबेडकर के बहाने दूसरी राजनीतिक पार्टियों ने संघ और भारतीय जनता पार्टी के विरोध में खड़ा करने की कोशिश की.

अभी भी कर रहे हैं. लेकिन, संघ का बौद्धों में प्रभाव ही है कि इस समय यानी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के करीब 6 महीने पहले से धम्म चेतना यात्रा में बौद्ध भिक्षु भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में माहौल बनाने में जुटे हैं. इस पर मुख्य धारा की मीडिया का ध्यान शायद ही जाए. और संघ चाहता भी नहीं है कि उसके कामों पर मीडिया बहुत ध्यान दे.

इसीलिए जब 2014 के लोकसभा चुनावों के ठीक पहले यूपीए की सरकार ने जैनियों को पूरे देश में अल्पसंख्यक का दर्जा दिया, तब ये बात सामने आई कि जैन अभी तक अल्पसंख्यक नहीं थे. तत्कालीन अल्पसंख्यक मंत्री के रहमान खान ने बताया था कि मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और पारसी की तरह अब जैन भी पूरे देश में अल्पसंख्यक श्रेणी में आएंगे और उन्हें केंद्र से अल्पसंख्यक कोटे से मिलने वाली मदद में हिस्सेदारी मिलेगी. जनवरी 2014 के पहले तक उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में ही जैन अल्पसंख्यक थे.

लेकिन, सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात ये रही कि भले ही बीजेपी की सरकार ने हाल में केंद्र के निर्णय के आधार पर राज्य में जैनियों को अल्पसंख्यक दर्जा दिया हो और इसका एलान खुद विजय रुपानी ने गुजरात सरकार के मंत्री के तौर पर किया. लेकिन, विजय रुपानी का एक बयान बताता है कि संघ, मोदी और शाह की हिंदू रणनीति के लिहाज से विजय रुपानी का गुजरात का मुख्यमंत्री बनना कितना बड़ा मास्टरस्ट्रोक है. 25 जून 2016 को अहमदाबाद में अल्पसंख्यकों को जागरुक करने के लिए चलाए जा रहे एक कार्यक्रम में तत्कालीन परिवहन मंत्री और राज्य बीजेपी अध्यक्ष विजय रुपानी ने कहा था कि,

देश में जैन समाज अल्पसंख्यक का दर्जा नहीं चाहता. लेकिन, 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले कांग्रेस ने वोटों को लिए जैन समाज को अल्पसंख्यक का दर्जा दे दिया. देश में कुछ हिंदू विरोधी ताकतें हैं. हमने अल्पसंख्यक दर्जा दिए जाने का विरोध किया था. अल्पसंख्यक दर्जा होने के बाद भी जैन समाज हिंदू समाज का हिस्सा है.
विजय रुपानी

वैसे भी मोदी-शाह की राजनीति जातीय दंभ को समाप्त करने वाली राजनीति है. हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर, झारखंड में रघुबर दास और महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस इसके साक्षात उदाहरण हैं.

इन तीनों में से कोई भी जातिगत तौर पर अपने राज्य में जातीय ताकत नहीं पाता है. इसीलिए जब विजय रुपानी का नाम घोषित हुआ, तो मुझे कतई आश्चर्य नहीं हुआ. बल्कि, मुझे ये स्वाभाविक लगा. नितिन पटेल को उप मुख्यमंत्री बनाना दरअसल पटेल समाज को संभाले रहने के दबाव की वजह से जरूर हुआ.

अमित शाह ने 2 अगस्त को ही विजय रुपानी को मुख्यमंत्री बनाना तय कर लिया था. उसके बाद ही आनंदीबेन पटेल का फेसबुक इस्तीफा आया. इस पर नरेंद्र मोदी की पहले से स्वीकृति थी. लेकिन, जब आनंदीबेन पटेल ने पटेलों के नाम पर नितिन पटेल का नाम मजबूती से आगे बढ़ाने की कोशिश की, तो संसदीय बोर्ड ने एलान कर दिया कि अमित शाह का फैसला ही आखिरी होगा.

गुजरात की पूर्व मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल (फोटोः Reuters)

आनंदीबेन पटेल को उम्मीद थी कि नरेंद्र मोदी उनके साथ खड़े होंगे. लेकिन, उधर से भी साफ कह दिया गया कि अंतिम फैसला अमित शाह ही लेंगे. अंत में समझौते के तहत विजय रूपानी को मुख्यमंत्री और नितिन पटेल को उप मुख्यमंत्री घोषित किया गया. क्योंकि, एक तरफ अल्पसंख्यक दर्जा मिलने के बाद भी खुद को हिंदू समाज का हिस्सा बताने वाले जैन नेता विजय रूपानी थे, तो दूसरी तरफ अति संपन्न होने के बावजूद हार्दिक पटेल के साथ आरक्षण की मांग करके संघ के हिंदू समाज को एकजुट करने के बड़े हित को ध्वस्त करने वाली जाति के नेता नितिन पटेल थे. ऐसे में फैसला इतना मुश्किल भी नहीं था.

वैसे भी मोदी और शाह कठिन फैसले आसानी से लेने के लिए ही जाने जाते हैं. हां, संघ-बीजेपी को सिर्फ हिंदू और मुसलमान को लड़ाने वाले संगठन के तौर पर देखने वालों के लिए ये फैसला जरूर चौंकाने वाला है.

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: 06 Aug 2016,12:20 PM IST

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT