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यूक्रेन संकट (Ukraine Crisis) पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की वोटिंग में भारत शामिल नहीं हुआ. नई दिल्ली ने एक ऐसे समाधान का आह्वान किया है जो "सभी देशों के वैध सुरक्षा हितों को ध्यान में रखता हो और इसका उद्देश्य क्षेत्र और उसके बाहर दीर्घकालिक शांति और स्थिरता सुनिश्चित करना हो."
नई दिल्ली ने नवंबर 2020 में भी संयुक्त राष्ट्र महासभा की तीसरी कमेटी में क्रीमिया में मानवाधिकारों के उल्लंघन की निंदा करने वाले यूक्रेन-प्रायोजित प्रस्ताव के खिलाफ मतदान करके अपनी प्राथमिकताएं स्पष्ट कर दी थीं.
यह एक बयान की तरह है. भारत ने इस मुद्दे में अपने हितों को एक स्वीकारोक्ति की तरह देखा क्योंकि उसकी मान्यता है कि नकारात्मक सुर्खियों के बावजूद, रूसियों का पलड़ा भी भारी है.
इस सब की जड़ में लंबे समय से चली आ रही सुरक्षा की असमंजस स्थिति है: नाटो में शामिल होकर अपनी सुरक्षा की रक्षा के लिए यूक्रेन के प्रयास रूसी सुरक्षा को खतरे में डालते हैं या सुरक्षा को कमजोर करते हैं. स्वतंत्र यूक्रेन के रूसी विरोध की जड़ें इस क्षेत्र के इतिहास में गहरी हैं. लेकिन एक स्वतंत्र यूक्रेन को मान्यता देने के बाद, वे आश्वस्त हैं कि रूस की सुरक्षा और समृद्धि दोनों देशों के घनिष्ठ संबंधों से जुड़ी हुई है. दूसरी ओर, यूक्रेन ने रूस से खुद को दूर करके पश्चिमी यूरोप और अमेरिका के साथ घनिष्ट संबंधों बनाने की इच्छा जाहिर कर अपनी स्वतंत्रता को मजबूत करने की मांग की है. लेकिन यूक्रेन की कार्रवाइयों को रूस एक बड़े सुरक्षा खतरे के रूप में देखता है.
इस संकट का तात्कालिक कारण नाटो के विस्तार में निहित है, जिसे रूसी अपनी सुरक्षा के लिए एक खतरे के रूप में देखते हैं. 18वीं शताब्दी के बाद से, रूसियों को हर शताब्दी में एक बार पश्चिम से आक्रमण का सामना करना पड़ा है. अब उनका मानना है कि जिस क्षेत्र को अपना मानते हैं उसके अंदर नाटो की बढ़ती उपस्थिति एक प्रत्यक्ष सुरक्षा खतरा बन गई है, जिसे वे अनदेखा नहीं कर सकते हैं.
इस संकट की भौगोलिक राजनीति भारत के लिए काफी सरल है. इस प्रतिक्रिया को समझने के लिए रूस के साथ दोस्ती अहम है. लेकिन दूसरी ओर, थोड़ा सा इतिहास उतना ही महत्वपूर्ण है. एक स्वतंत्र देश के तौर पर यूक्रेन का उदय भारत के लिए अच्छी खबर नहीं लेकर आया. तत्कालीन सोवियत संघ के एक औद्योगिक हिस्से के रूप में, यूक्रेन में कई प्रमुख सैन्य उद्योग और सामग्रियां थीं. 1990 के दशक के अंत में, पाकिस्तान जैसे देशों ने यूक्रेन से T-80 टैंक आयात करके हमारे द्वारा रूस से आयात किए गए T-90s का मुकाबला करने के लिए इसका फायदा उठाया. इसके साथ ही कई लोगों को इसका संदेह है कि पाकिस्तान का क्रूज मिसाइल कार्यक्रम यूक्रेन में पूर्व सोवियत परियोजनाओं के इनपुट पर आधारित है.
इससे भी अधिक महत्वपूर्ण चीनी कार्यक्रमों में यूक्रेनी प्रौद्योगिकी का योगदान रहा है. तियानमेन के बाद के प्रतिबंध का सामना करते हुए चीन विमान निर्माण, अंतरिक्ष और नौसैनिक विकास के क्षेत्रों में सैन्य प्रौद्योगिकी के लिए यूक्रेन पास गया. चीनी ने प्रसिद्ध रूप से 1998 में यूक्रेनी विमानवाहक पोत वैराग को खरीदा था, जिसे पीपुल्स लिबरेशन आर्मी नेवी (PLAN) के पहले विमान वाहक लियाओनिंग में बदल दिया गया था. नौसेना गैस टरबाइन इंजन एक अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्र था. चीनियों ने 10 यूक्रेनी यूजीटी 25000 इंजनों के साथ हासिल की गई तकनीक का उपयोग करके अपने स्वयं के क्यूसी 280 इंजन विकसित किए.
जमीन और पानी से हमला करने में सक्षम पहले आक्रामक जहाजों को चीन ने यूक्रेन से खरीदा था और फिर प्रौद्योगिकी हस्तांतरण समझौते के माध्यम से इसे चीन में बनाया जाने लगा.
9 फरवरी 1990 को, अमेरिका के विदेश मंत्री जेम्स बेकर ने सोवियत नेता मिखाइल गोर्बाचेव को आश्वासन दिया कि जर्मनी के एकीकरण के बाद नाटो "पूर्व की ओर एक इंच भी" नहीं बढ़ेगा. 1990 में कई अवसरों में से यह भी एक अवसर था जब रूसियों को ऐसी गारंटी दी गई थी. कई उदाहरण वाशिंगटन के नेशनल सिक्योरिटी आर्काइव में रखे डी-क्लासीफाइड डाक्यूमेंट्स में पाए जा सकते हैं.
तीन साल बाद, सोवियत संघ गायब हो गया और रूस ने इसकी जगह ले ली. अमेरिकी और रूसी स्रोतों से जुटाए अर्काइव यानी पुराने दस्तावेजों से पता चलता है कि रूसी राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन को यह विश्वास दिलाया गया था कि रूसियों को भविष्य में किसी भी यूरोपीय सुरक्षा प्रणाली में शामिल किया जाएगा.
1999 और 2004 के बीच जब रूसी प्रतिक्रिया देने के लिए बहुत कमजोर थे तब नाटो का विस्तार हुआ. यह वह दौर था जब व्लादिमीर पुतिन अपनी शक्ति को मजबूत कर रहे थे और रूसी सेना के आधुनिकीकरण पर ध्यान केंद्रित कर रहे थे. लेकिन जब जॉर्जिया ने नाटो के साथ अपने संबंधों को मजबूत करने की इच्छा जताई तब रूसियों ने इस इच्छा को न पूरे होने देने के लिए दृढ़ संकल्प लिया और जॉर्जिया पर चढ़ाई कर दी. तब से अबकाजिया और दक्षिण ओसेशिया के क्षेत्रों पर रूस का कब्जा है और जॉर्जिया की नाटो सदस्यता अटक गई.
यूक्रेन में अलग-अलग ऐसे कई घटनाक्रम हुए जिनकी अशांत राजनीति ने तथाकथित ऑरेंज क्रांति के माध्यम से अमेरिकी हस्तक्षेप को देखा. ऑरेंज क्रांति का नेतृत्व विशेष तौर पर पश्चिमी देशों के डोनर्स यानी दानदाताओं और अमेरिकी सरकारी एजेंसियों ने किया था. रूसी समर्थक और रूसी विरोधी यूक्रेनी अभिजात वर्ग के बीच संघर्ष के परिणामस्वरूप 2014 में रूस ने क्रीमिया पर कब्जा कर लिया, साथ ही एक गृहयुद्ध भी हुआ जिसके परिणामस्वरूप यूक्रेन के रूसी-भाषी क्षेत्रों का अलगाव हुआ.
मई 2019 में चुनाव में अपनी जीत के बाद यूक्रेन के राष्ट्रपति वलोडिमिर जेलेंस्की ने यूक्रेन और रूस के बीच सामान्य स्थिति बहाली को प्राथमिकता दी. फ्रांस और जर्मनी जैसी यूरोप की महान शक्तियों का समर्थन उन्हें प्राप्त था. सितंबर 2019 में फ्रांस ने मास्को में रूस के साथ 2+2 वार्ता की और जर्मन चांसलर मर्केल सहित कई जर्मनी के कई उच्च अधिकारियों ने रूस का दौरा किया. दिसंबर 2019 में, रूस, जर्मनी, फ्रांस और यूक्रेन ने जोरदार कूटनीति के परिणामस्वरूप पूर्वी यूक्रेन के मुद्दे पर चर्चा करने के लिए अपनी "नॉरमैंडी प्रारूप" बैठक फिर से शुरू की, लेकिन इससे वे किसी भी परिणाम को हासिल करने में विफल रहे.
हालांकि, यूक्रेन और अन्य जगहों पर COVID-19 के साथ स्थिति बिगड़ गई. इस (कोविड-19) मुद्दे से निपटने के लिए यूक्रेन की अर्थव्यवस्था को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) से एक जीवन रेखा हासिल करनी पड़ी. अमेरिकी प्रशासन में हुए बदलाव ने यूक्रेन को अमेरिका पर इस बात के लिए दबाव डालने के लिए प्रेरित किया कि नाटो में यूक्रेन को सदस्यता प्रदान की जाए. पिछला ट्रंप प्रशासन रूसियों के प्रति ज्यादा उदार या दोस्ताना था और ट्रंप कैंपेन के दौरान बाइडेन के बेटे हंटर के यूक्रेन के साथ संपर्कों का उल्लेख किया गया था.
बाइडेन की शपथ ग्रहण के तुरंत बाद हुए एक इंटरव्यू में यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की ने रूस पर हमला किया और आने वाले प्रशासन से आह्वान किया कि यूक्रेन को नाटो में शामिल किए जाने का समर्थन किया जाए. उन्होंने तर्क दिया कि यूक्रेन और रूस के बीच संघर्ष, कुछ मायनों में, यूरोप की रक्षा थी.
रूसियों ने को जब लगा कि यह कार्रवाई करने का सही समय है तब उन्होंने 2021, मार्च में यूक्रेनी सीमा पर अपने सैनिका का पहला जमावड़ा तैनात किया. बाद में रूसी निर्माण स्पष्ट हो गया. इसके बाद 7 दिसंबर, जिसे अमेरिका में पर्ल हार्बर के रूप में भी जाना जाता है, के दिन बाइडेन ने रूस को चेतावनी दी कि अगर उसने यूक्रेन पर हमला किया, तो उसे व्यापक पश्चिमी आर्थिक प्रतिबंधों का सामना करना पड़ेगा.
उस महीने के अंत में, रूस ने अमेरिका को विस्तृत सुरक्षा मांगें प्रस्तुत कीं. उन मांगों में इस बात की कानूनी गारंटी भी शामिल थी कि नाटो न केवल यूक्रेन की सदस्यता से इनकार करेगा, बल्कि पूर्वी यूरोप में सैन्य कार्रवाई से भी दूर रहेगा. जिस पर अमेरिकियों ने रूसियों को लिखित प्रस्तावों का एक सेट भेजा, जबकि मॉस्को का कहना है कि वाशिंगटन ने उनकी मुख्य सुरक्षा मांगों पर ध्यान नहीं दिया और उन्होंने (रूस ने) अभी तक अमेरिका को औपचारिक प्रतिक्रिया नहीं दी है.
यूक्रेनियन ने अमेरिकी चेतावनियों पर गुस्से में प्रतिक्रिया व्यक्त की है कि एक रूसी आक्रमण निकट है. अब तक, नाटो यूक्रेन के पीछे एकजुट प्रतीत होता है, यद्यपि जर्मनी, महत्वपूर्ण देश, विरोध करता हुआ प्रतीत होता है.
दूसरी ओर रूस स्थिति को आर्थिक मुद्दों के चश्मे से नहीं देखता है, बल्कि अपने प्राथमिक रणनीतिक हित के लेंस के माध्यम से देखता है. जैसा कि व्यापक रूप से जाना जाता है कि जब सुरक्षा की बात आती है तब सरकार बहुत कुछ सहने और करने को तैयार रहती हैं.
इस बीच अमेरिका से आने वाले संकेतों पर नजर रखना महत्वपूर्ण है. रिपोर्टों के अनुसार, रिपब्लिकन पार्टी यूक्रेन की रक्षा के लिए जल्दबाजी नहीं कर रही है. उनकी रणनीति बाइडेन को निशाना बनाने की है, पुतिन के लिए नहीं. इस साल के कांग्रेस के चुनावों में, रिपब्लिकन उम्मीदवारों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है जिन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है कि यूक्रेन की समस्याएं संयुक्त राज्य में चिंताओं से ज्यादा जरूरी नहीं हैं.
फिर भी यदि पिछले रुझान कोई संकेतक हैं, तो रूसियों को एक पूर्ण पैमाने पर आक्रमण शुरू करने की संभावना नहीं है, इसके बजाय वे फोर्स को चरणबद्ध तरीके से एक जबरदस्त साधन के रूप में नियोजित करना पसंद करते हैं. सबसे बड़ा विकल्प यूक्रेन के लिए एक बफर राज्य के रूप में उभारना होगा, न तो यूरोपीय संघ और नाटो के साथ और न ही रूस के साथ.
(लेखक, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन, नई दिल्ली के ख्यात फेलो हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)
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