मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019‘जिंदगी सिर्फ मोहब्बत नहीं’, साहिर के फिल्मी गीत भी जीवन के फलसफे

‘जिंदगी सिर्फ मोहब्बत नहीं’, साहिर के फिल्मी गीत भी जीवन के फलसफे

साहिर ने औरत की आह को अपनी कलम से जुबां दी तो इसके पीछे उनकी मां की कहानी थी

अजय मनकोटिया
नजरिया
Updated:
मैं पल दो पल का शायर हूं, पल दो पल मेरी कहानी है
i
मैं पल दो पल का शायर हूं, पल दो पल मेरी कहानी है
null

advertisement

इंडस्ट्री में फिल्मों के गीतकारों के साथ आज भी दोयम दर्जे के नागरिकों जैसे सलूक होता है. सबको गायकों का नाम पता होता है, संगीतकारों का नाम तो जरूर ही पता होता है लेकिन ज्यादातर गीतकार गुमनाम रह जाते हैं. उनको वो तारीफ, वो सम्मान नहीं मिल पाता. कुछ हैं जो संगीतकारों के साथ बराबरी कर पाए, जैसे कि शैलेंद्र. लेकिन एक गीतकार है जो इन सबसे ऊपर है. शैलेंद्र ने सच बयां किया तो मीठी वाणी में, लेकिन एक शख्स है जिसने जो कहा आंखों में आंख डालकर कहा, गर्दन पकड़ कर समाज को आईना दिखाया, सच से सामना कराया, जवाब देने पर मजबूर किया और सुधार के लिए बाध्य किया. उसने कालीन के नीचे जमा गर्द को बेपरदा कर दिया. कोई समझौता नहीं, कोई डर नहीं. निपुणता और निष्ठावान उसमें इतनी थी कि कोई हद नहीं.

दुनिया ने जो दिया, वही लौटाया

साहिर लुधियानवी एक ऐसे जमींदार के यहां पैदा हुए जिनकी जमींदारी खत्म हो रही थी. बचपन में नाम था अब्दुल हायी. उनकी मां सरदार बेगम जमींदार साहब की 12 पत्नियों में से 11वीं थीं. पति के बर्ताव से झुब्द सरदार बेगम ने अब्दुल के साथ घर छोड़ दिया था. लेकिन कानूनी पचड़ों और धमकियों ने अब्दुल से उसका बचपन छीन लिया. पिता की अय्याशी, मां के साथ खराब बर्ताव और बचपन की अनिश्चितता भरे सालों ने साहिर में एक कड़वाहट भर दी थी.

''दुनिया ने तजरबात - ओ- हवादिस के शक्ल में, जो कुछ मुझे दिया है, लौटा रहा हूं मैं''

वो इंसान दिलेर होता है जो अपना दिल दुनिया के सामने खोलकर कर रख दे और अपना गुब्बार निकालने के लिए उसका इस्तेमाल करे. बचपन की यादें साहिर की शायरी में दिखती हैं. शायरी से उन्होंने अपने अंदर के तूफान को दिखाया. मां उनके लिए सबसे ऊपर थीं. अगर बाद के सालों में साहिर ने औरत की आह को अपनी कलम से जुबां दी तो इसके पीछे वजह यही थी कि उनकी मां ने बड़े जुल्म सहे थे. 'जिन्हें नाज है हिंद पर' (प्यासा 1957) में साहिर ने चोट करते हुए 'बदनाम बाजार' में महिलाओं की दुर्दशा पर लिखा था-

यहां पीर भी आ चुके हैं, जवां भी

तनूमंद बेटे भी, अब्बा मियां भी

ये बीवी भी है और बहन भी और मां भी

जिन्हें नाज है हिंद पर वो कहां हैं

साधना (1958) में उन्होंने लिखा-

औरत ने जन्म दिया मर्दों को

मर्दों ने जब जी चाहा कुचला मसला

जब जी चाहा दुत्कार दिया

त्रिशूल (1978) में साहिर ने एकदम अकल्पनीय काम कर दिया था. पारंपरिक नजरिये की मां का काम अपने जवान बेटे को आसरा देने का होता है, इससे इतर जाकर उन्होंने लिखा-

मैं तुझे रहम के साये में न पलने दूंगी

जिंदगानी की कड़ी धूप में जलने दूंगी

ताकि तप-तप के तू फौलाद बने

मां की औलाद बने

''जिंदगी सिर्फ मोहब्बत नहीं''

साहिर एक अलग नजरिये से सोचते और अपने लिखने के नायाब तरीके पर किसी को भी सोचने पर मजबूर कर देते. साहिर पर प्रोग्रेसिव राइटर्स मूवमेंट (PWM) का भी बड़ा प्रभाव हुआ था. वो PWM की इस सोच से इत्तेफाक रखते थे कि साहित्य एकांत में नहीं रह सकता. इसका इस्तेमाल सामाजिक बदलाव लाने में होना चाहिए. अपने बचपन के अनुभव से साहिर जमींदार और पूंजीपतियों से नफरत करते थे और उनकी साम्यवाद में रुचि और कॉलेज में छात्र राजनीति में योगदान से वो PWM की तरफ खिंचते चले गए. पारंपरिक उर्दू शायरी हुस्न, साकी और उल्फत पर ज्यादा केंद्रित रहती थी, लेकिन प्रोग्रेसिव राइटर्स ने मजदूर, मुफलिस और लोकतंत्र पर लिखा. साहिर के भी शुरुआती काम का रुझान इश्क की तरफ था, इसकी वजह थी उनका कॉलेज रोमांस. आखिरकार, उन्होंने अपनी आसपास की दुनिया को लेकर कुछ मौजूं सवाल उठाने शुरू किए. अपनी प्रेमिका के लिए किया जाने वाला प्रेम वो पूरी दुनिया से करने लगे. दीदी (1959) में उन्होंने लिखा-

जिंदगी सिर्फ मोहब्बत नहीं कुछ और भी है

जुल्फ-ओ-रुकसार की जन्नत नहीं कुछ और भी है

भूख और प्यास की मारी हुई इस दुनिया में

इश्क ही एक हकीकत नहीं कुछ और भी है

तुम अगर आंख चुराओ ये हक है तुमको

मैंने तुमसे ही नहीं सबसे मोहब्बत की है.

अगर ये कविता और इसके शब्द में थोड़ा सा कड़वापन है तो ये इसलिए है क्योंकि ये उनके आसपास की परिस्थितियों से उपजा था. शोषित तबके के प्रति ये उनकी संवेदनशीलता थी, जो उनकी कविता का आधार बनी. उनकी मशहूर कवित 'तल्खियां' में वो शोषण के तंत्र और उनके एजेंटों जैसे पूंजीपति, सूदखोर, पुजारियों, पादरियों के बारे में खुलकर लिखते हैं

उन्होंने राष्ट्र की आलोचना की और वो राजनीति को भी शंका की दृष्टि से देखते थे. उन्होंने कभी भी लोगों की संगठित ताकत को लेकर उम्मीद नहीं छोड़ी. उन्होंने लोगों से थोड़ा और अन्याय सहने की अपील की, साथ ही उनमें ये आशा जगाई कि एक बेहतर कल आएगा. 'फिर सुबह होगी' (1958) में उन्होंने लिखा कि

इन काली सदियों के सर से

जब रात का आंचल ढलकेगा

जब दुख के बादल पिघलेंगे

जब सुबह का सागर छलकेगा

जब अंबर झूम के नाचेगा

जब धरती नगमे गाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

एक और उदाहरण है.. साहिर की कविता 'ताजमहल' जिसमें पारंपरिक दृष्टिकोण से अलग साहिर का अंदाज दिखता है. ताजमहल को प्यार के एक स्मारक के रूप में देखने के बजाय, साहिर उसे ऐसे बताते हैं कि एक शहंशाह ने अपनी दौलत का इस्तेमाल करके एक ऐसी संरचना खड़ी की जो आम लोगों के प्यार का मजाक उड़ा रही है... इस कविता के एक छोटे वर्जन का इस्तेमाल फिल्म गजल (1964) में एक गीत के रूप में किया गया था-

इक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर

हम गरीबों के मुहब्बत का उड़ाया है मजाक

मेरे महबूब, कहीं और मिला कर मुझसे

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

फिल्मी गाने नहीं, जिंदगी के फलसफे

जब वो फिल्म उद्योग से जुड़े, तो प्रोड्यूसर गीतकार के तौर पर कोई भी एक कवि को लेने का जोखिम उठाने को तैयार नहीं था. वे एक ऐसे मीडियम में एक साहित्यिक एलीमेंट को इंट्रोड्यूस करने के बारे में उतने श्योर नहीं थे ..जो देखा जाए तो आखिरकार आम आदमी के लिए ही होती है. वो गलत साबित हुए और साहिर के गाने बेहद लोकप्रिय हुए. उन्होंने साबित किया कि फिल्मी गीत और अच्छी कविता अलग अलग नहीं होते. उन्होंने फिल्मी गीतों को एक बौद्धिक रूप दिया. उनके गीतों में कभी सदाचार या गहराई की कमी नहीं होती थी. उनमें बेजोड़ कविता लिखने का गुण, सौंदर्यबोध, शानदार भाषा और सुंदर कल्पना थी. उनके शब्द फिल्म की कहानी के अलावा कुछ और भी कहते नजर आए, और जीवन और मानवता के बारे में फलसफे हो गए.

हम दोनों (1961) के गीत 'मैं ज़िंदगी का साथ' ’के शब्दों को ही देखिए जो फिल्म के संदर्भ से आगे की बात करता है और जीवन का दर्शन बन जाता है

बर्बादियों का सोग मनाना फुजूल था

बर्बादियों का जश्न मनाता चला गया

जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया

जो खो गया मैं उस को भुलाता चला गया

गम और खुशी में फर्क न महसूस हो जहां

मैं दिल को उस मकाम पे लाता चला गया

साहिर ने हर तरह की थीम पर लिखा - प्रेम, निराशा, रोमांस, इंसानी रिश्ते, फिलॉसफी, अस्तित्व के सवाल, यातना. अलग-अलग भावनाओं के लिए उनके पास एक मजबूत विजुअल आसपेक्ट भी होता था. जैसे कि रामांटिक विषयों के लिए उन्होंने प्रकृति की सुंदरता का सहारा लिया. प्रकृति के लुभावनेपन को उन्होंने प्यार के बीच होने वाले अनुभव जैसा बताया. 1967 ( हमराज) के लिए उन्होंने 'शबनम के मोती, फूलों पे बिखरे'/'नीले गगन के तले, धरती का प्यार पले' जैसे गीत लिखे. 1952 में आई जाल के गीत 'ये रात ये चांदनी फिर कहां' में साहिर लिखते हैं -

पेड़ों की शाखों पे सोई नहीं चांदनी

तेरे खयालों में खोई -खोई चांदनी

और थोड़ी देर में थक के लौट जाएगी

रात ये बहार की फिर कभी न आएगी

दो एक पल और है ये समां

सुन जा दिल की दास्तां

नाकाम मोहब्बतें

साहिर की जिंदगी का सबसे पेचीदा या यूं कहें दिलचस्प पहलू था अमृता प्रीतम से उनका रिश्ता- जो कि पहले से ही शादीशुदा थीं. उनके रिश्ते को खामोशी ही परिभाषित कर रही थी. अमृता साहिर से बेहद प्यार करती थीं. जब साहिर और गायिका सुधा मल्होत्रा का कथित प्रेम संबंध सामने आया, तो इससे व्याकुल अमृता ने इस दौरान सबसे ज्यादा निराशा और दुख से भरी कविताएं लिखीं. अमृता अपने पति से अलग हो गईं और जिंदगी के बचे हुए 40 साल इमरोज के साथ गुजारे. सुधा की शादी हो गई और साहिर के साथ उनका वो रिश्ता टूट गया जो कभी जुड़ा ही नहीं था. साहिर खुद को अपनी मां के अलावा किसी और के साथ खुद को शेयर नहीं कर पाए, यही वजह थी कि वे रिश्तों को उनके मुकाम तक नहीं पहुंचा सके.

रोमांटिक रिश्तों की कहानी बयां करते ये गाने “जाने वो कैसे लोग थे जिनके, प्यार को प्यार मिला” (प्यासा, 1957). नायक-नायिका के बिछड़ने पर लिखा उनका शानदार गाना ‘’चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों’ (1963, गुमराह) आया. ये गाना ‘तल्खियां’ नाम की एक किताब में ‘खूबसूरत मोड़’ नाम की कविता थी. उन्होंने साल 1963 में आई फिल्म ताजमहल में ‘’जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा’’ में प्यार को खूबसूरती से पेश किया. इसके अलावा, साल 1955 में आई फिल्म ‘मुनीम जी’ का गाना ‘’जो इनकी नजर से खेले, दुख पाए मुसीबत झेले, फिरते हैं ये सब अलबेले, दिल लेके मुकर जाने को’’ में उन्होंने एक संगदिल नायिका के साथ हंसी-ठिठोली की वो भी काफी खूबसूरत बन बैठा था.

साहिर, समाज और देश

साहिर आज में विश्वास करते थे. उनके लिखे इन गानों से ये बात नजर आती हैं-''आगे भी जाने न तू, पीछे भी जाने न तू, जो भी है बस यही एक पल है'' (वक्त,1965), और ''जिंदगी हंसना गाने के लिए हैं पल दो पल, इसे खाना नहीं, खो के रोना नहीं'' (जमीर 1975). साहिर का भारत को लेकर नजरिया बहुआयामी था. एक ओर, उन्होंने पतनकाल को दर्शाया -"ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है" (प्यासा, 1957) और "चीन-ओ-अरब हमारा / रहने को घर नहीं / हिंदुस्तान हमारा" - इकबाल की कविताओं (फिर सुबह होगी, 1958) पर एक व्यंग्यपूर्ण नजरिया दिखाया. लेकिन वे एक देशभक्त भी थे - "ये देश है वीर जवानों का" (नया दौर, 1957), और "जागेगा इंसान जमाना देखेगा" (आदमी और इंसान, 1969) में देश के भविष्य को लेकर आशावादी नजरिया दिखाया.

साहिर नास्तिक थे. 1947 में सांप्रदायिक दंगों को देखने के बाद, उन्होंने “तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा / इंसान की औलाद है इंसान बनेगा” (धूल के फूल, 1959) और “संसार से भागे फिरते हो / भगवान को तुम क्या पाओगे”(चित्रलेखा, 1964) से धर्म के ठेकेदारों पर चुटकी ली. यहां तक ​​कि उन्होंने उस दुनिया बनाने वाले पर भी तंज कस डाला - “आसमान पे है खुदा और जमीन पे हम / आज कल वो इस तरफ देखता है कम” (फिर सुबह होगी, 1958). फिर भी जब धर्म पर लिखने की बारी आई तो उनकी कलम मंद नहीं पड़ी - “अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम” (हम दोनों, 1961); “हे रोम रोम में बसने वाले राम” (नील कमल, 1968).

साहिर के गीत समय से परे हैं. उनका काम और इसकी प्रासंगिकता शाश्वत है. उनके गीतों की कोई शेल्फ-लाइफ नहीं है. आज जब हम उनकी जन्मशताब्दी मना रहे हैं, तो कभी-कभी (1976) का ये गीत इस जीवंत कवि को खूबसूरती से कैद करता है:

मैं हर इक पल का शायर हूं, हर इक पल मेरी कहानी है

हर इक पल मेरी है, हर इक पल मेरी जवानी है.

(अजय मनकोटिया पूर्व आईआरएस हैं और फिलहाल टैक्स और लीगल सलाहकार. ये एक व्यक्तिगत ब्लॉग है और यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: 08 Mar 2021,04:42 PM IST

Read More
ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT