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“भारत के हर नागरिक का कर्तव्य है कि वह संविधान का पालन करे और वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवतावाद, ज्ञानार्जन और प्रश्न पूछने की भावना का विकास करे.”
– भारतीय संविधान के मूल कर्तव्य के अध्याय से.
भारत का हर नागरिक इस मूल कर्तव्य से बंधा है. इस कर्तव्य का पालन न करने के लिए किसी दंड का प्रावधान नहीं है. लेकिन हर नागरिक से उम्मीद की जाती है कि वह इसका पालन करेगा. यह उम्मीद जनप्रतिनिधियों और मंत्रियों से और भी बढ़ जाती है, क्योंकि देश के बाकी लोग प्रेरणा के लिए अक्सर उनकी ओर देखते हैं और सोचते हैं कि देश चलाने वाले अपने संवैधानिक कर्तव्यों को पालन जरूर करेंगे.
केंद्रीय मानव संसाधन विकास राज्य मंत्री सत्यपाल सिंह पर खास जिम्मेदारी है कि वो वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएंगे और संविधान में दर्ज “स्पिरिट ऑफ इनक्वायरी” की चेतना के साथ काम करेंगे. खासकर इसलिए भी कि उन्हें शिक्षा का काम दिया गया है. जो सरकार अपने मंत्रिपरिषद में टेक्नोलॉजी, इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी, अर्थ साइंस जैसे विभाग चलाती है, उसके मंत्रियों से उम्मीद की जाती है कि विज्ञान के प्रति उनका नजरिया पॉजिटिव होगा.
डार्विन को न पढ़ाए जाने का उनका तर्क बेहद अवैज्ञानिक है. वो कहते हैं कि हमारे पूर्वजों ने बंदर को आदमी बनते देखे जाने का जिक्र नहीं किया, इसलिए डार्विन को किताबों से हटा देना चाहिए. सत्यपाल सिंह के मुताबिक, इंसान हमेशा इंसान ही था.
सत्यपाल सिंह विज्ञान के छात्र रहे हैं. उन्होंने साइंस में मास्टर्स की डिग्री ली है और उनकी एम.फिल. भी केमिस्ट्री से है. इस सूचना के साथ अगर उनके डार्विन संबंधी बयान को पढ़ें तो यह और भी आश्चर्यजनक लगता है.
विज्ञान में कोई खोज या ज्ञान अंतिम नहीं है. यह एक ऐसा क्षेत्र है, जहां स्थापनाएं हमेशा बदलती रहती हैं. विज्ञान की एक परिभाषा ही है कि जिस ज्ञान को चुनौती दी जा सके, वही विज्ञान है. बाकी चीजें मेटाफिजिक्स हैं. जब कोई ज्ञान स्थिर हो गया, उसे विज्ञान के दायरे से बाहर मान लेना चाहिए.
सत्यपाल सिंह जब यह कहते हैं कि हमारे पूर्वजों ने बंदर को आदमी बनते नहीं देखा, इसलिए डार्विन का सिद्धांत गलत है, तो वे विज्ञान की अपनी ट्रेनिंग के विपरीत आचरण कर रहे हैं. धरती पर जीवन के विकास के हर क्रम और स्टेज को होता हुआ कोई देखे, तभी वह सच है, जैसी सोच वैज्ञानिक कतई नहीं कही जा सकती. स्टैंड अप कॉमेडियन वीर दास ने टिप्पणी की है कि जब बंदर आदमी बन रहा था, तब किसी ने इतनी बड़ी घटना की सेल्फी तो ली ही नहीं. इससे साबित होता है कि आदमी का विकास बंदर से नहीं हुआ है.
डार्विन ने कभी यह नहीं कहा है कि बंदर किसी खास दिन इंसान बन गए. इसलिए यह सब होते हुए देखने का सवाल ही कहां उठता है.
अगर सत्यपाल सिंह के पास मानव प्रजाति के धरती पर आने की कोई और थ्योरी है, तो उसे सामने लाया जाना चाहिए. इसकी एक पद्धति है. उन्हें इस बारे में अपना रिसर्च पेपर किसी प्रतिष्ठित जर्नल में प्रकाशित करना होगा. सेमिनार में पेपर प्रेजेंट करना होगा और सेमिनार में जो प्रश्न पूछे जाएं, उनके जवाब देने होंगे. अगर वो अपने जवाब से वैज्ञानिक समुदाय को संतुष्ट कर पाएंगे, तभी उनके पेपर को मान्यता मिल पाएगी. सत्यपाल सिंह को याद रखना होगा कि जैसे डार्विन ने कोई अंतिम सत्य नहीं कहा है, वैसे ही उनकी थ्योरी भी अंतिम सत्य नहीं होगी.
आने वाले समय में डार्विन खारिज किए जा सकते हैं. इसके बावजूद, विज्ञान की किताबों में डार्विन की जगह बनी रहेगी. कोई सिद्धांत गलत साबित होने भर से टेक्स्ट बुक की दृष्टि से गैर-जरूरी नहीं हो जाता. इसे विज्ञान के विकास के क्रम में एक पड़ाव के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए. डार्विन आगे चलकर कभी पूरी तरह खारिज हो भी गए, तो विज्ञान के विकास के एक अध्याय के रूप में उनके सिद्धांत का अध्ययन होता रहेगा.
सत्यपाल सिंह शायद नहीं जानते कि जब वो यह कह रहे हैं कि आदमी धरती पर हमेशा से ऐसा ही था, तो वे कैथोलिक चर्च के विज्ञान विरोधियों की बात को दोहरा रहे होते हैं. डार्विन ने मानव विकास के अपने सिद्धांत से सबसे ज्यादा नाराज चर्च को ही किया था, क्योंकि कैथोलिक चर्च के मुताबिक धरती पर मानव एक ईश्वरीय कृति है. आदम और हव्वा की चर्च की कहानी डार्विन के सिद्धांत के बिल्कुल विपरीत खड़ी है. लेकिन चर्च ने समय के साथ खुद को बदला.
एक समय धरती को गोल बताने और ग्रह प्रणाली के केंद्र में धरती की जगह सूर्य को बताने पर वैज्ञानिकों को जला देने वाले चर्च ने अब उन वैज्ञानिकों से माफी मांग ली है. चर्च अब नहीं कहता कि सूरज धरती के चक्कर काटता है या धरती चपटी है. विज्ञान और चर्च के रिश्ते बदले हैं. यह गतिशीलता जरूरी है.
सत्यपाल सिंह बेशक डार्विन पर सवाल खड़ा करें. ऐसा करने वाले वे न तो पहले व्यक्ति होंगे और न ही आखिरी. डार्विन के ‘थ्योरी ऑफ इवोल्यूशन’ पर इससे भी निर्मम प्रहार हो रहे हैं और साथ ही इस थ्योरी के पक्ष में भी नए तर्क आ रहे हैं. अगर आपमें वैज्ञानिक चेतना है, तो आप यह कतई नहीं कहेंगे कि डार्विन का सही होना अंतिम सत्य है. कल डार्विन का सिद्धांत विज्ञान के अखाड़े में धूल चाटता नजर आ सकता है.
हो सकता है कि कोई और थ्योरी आए और स्वीकार्य बन जाए. लेकिन वह भी अंतिम थ्योरी नहीं होगी. ऐसे में तमाम विचारों को पढ़ना और अपनी चेतना के मुताबिक सत्य का संधान करने की सुविधा विद्यार्थियों को देना ही सही नीति है. वैसे भी विज्ञान एक यात्रा है, जिसके एक खास पड़ाव पर हम सब इस समय है. जब डार्विन खारिज हो जाएंगे तो हमें डार्विन का खारिज होना भी पढ़ना चाहिए.
भारत के मानव संसाधन विकास मंत्री से उम्मीद की जानी चाहिए कि वे देश के विद्यार्थियों को वैज्ञानिक चेतना से वंचित नहीं करेंगे. डार्विन को टेक्स्ट बुक में रहने दीजिए सत्यपाल जी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आर्टिकल में उनके अपने विचार हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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