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बीजेपी नेता दिलीप सिंह जूदेव का मशहूर डायलॉग शायद आप भूले नहीं होंगे कि पैसा खुदा तो नहीं, पर खुदा से कम भी नहीं. पैसा अगर जिंदगी की लाइफलाइन है, तो अर्थव्यवस्था देश की धड़कन. पर नोटबंदी, जीएसटी के साइड इफेक्ट और बैंकों के बढ़ते कर्ज ने देश की धड़कन को सुस्त कर दिया है.
मंदी की आहट की आशंका से लोगों का मोदी के नायकत्व में भरोसा डगमगाने लगा है. यह कहना अभी जल्दबाजी होगी कि उज्ज्वला और सौभाग्य योजना में लोगों के सौभाग्य के साथ 2019 में बीजेपी के भी सौभाग्य बदलने की क्षमता है, पर अर्थव्यवस्था की लुढ़कती हालत से चिंतित सरकार 2019 के चुनावी कैपैंन की कहानी बदलने में जुट गई है.
सर्जिकल स्ट्राइक, भ्रष्टाचार मुक्त शासन, डोकलाम, विदेशी दौरे और लगातार राज्यों में जीत से मोदी के निर्णायक देशनिर्माण में लगे कुशल प्रशासक की 3 साल में बनी छवि पर अर्थव्यवस्था की पतली होती हालत ने सवालिया निशान लगा दिया है.
विकास की दर गोते खा रही है. आर्थिक सुपरपावर बनने के सारे इंडिकेटर औंधे मुंह गिरे पड़े हैं. निर्यात लुढ़का पड़ा है. निर्माण क्षेत्र का बुरा हाल है. बैंकों के एनपीए बढ़ रहे हैं. रोजगार सृजन की जगह नौकरियां जा रही हैं. मंझोले और लघु उद्योग धंधों का नोटबंदी के बाद बुरा हाल है. राजनीति इमेज,आख्यान और मुखौटों से चलती है. अगर प्रतिमा ढह गई, तो इमारत ढहने में वक्त नहीं लगता.
प्रधानमंत्री बनने से पहले गुजरात में मोदी ने अपनी छवि भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासक और आर्थिक कायापलट करने वाले राजनेता की बनाई थी. दिल्ली पहुंचने में मोदी के गुजरात मॉडल का बड़ा योगदान था.
पिछले दो महीने में सरकार और प्रधानमंत्री की छवि पर नब्ज रखने वाली एजेंसियों के तीन सर्वे में यह साफ तौर पर दिखा है कि मोदी की व्यक्तिगत लोकप्रियता में कमी नहीं आई है. लेकिन लोगों का भरोसा डगमगाया है और आर्थिक मोर्चे पर लोग उन्हें नाकाम तक मानने लगे हैं.
सरकार की चिंता इस बात से साफ झलकती है कि जिस प्रधानमंत्री आर्थिक सलाहकार परिषद को मोदी ने प्रधानमंत्री बनते ही सबसे पहले भंग किया था, उसे 40 महीने बाद दोबारा बहाल करना पड़ा. मोदी सरकार के कामकाज पर नजर रखने वाले एक विशेषज्ञ के मुताबिक आर्थिक सलाहकार परिषद का गठन प्रधानमंत्री की छटपटाहट और वित्त मंत्रालय के कामकाज पर प्रधानमंत्री की टिप्पणी के तौर पर देखा जा सकता है.
यूपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी की प्रचंड जीत के कई कारणों में से एक उज्ज्वला उदय स्कीम की सफलता भी थी. गरीबों को फ्री गैस कनेक्शन देने वाली प्रधानमंत्री उज्ज्वला स्कीम के 60 फीसदी आवंटी केवल यूपी में थे.
बीजेपी ने बड़े सलीके से अपने चुनावी नैरेटिव में बदलाव किया है. युवा वोटबैंक की जगह महिला वोटबैंक ने ली है. साल 2014 का चुनाव हिलोरे मारते युवा आकांक्षाओं के स्वप्नों का चुनाव था, तो 2019 का चुनाव महिला, गरीब, किसान के घर को रोशन करने का चुनाव होगा.
रोजगार सृजन में असफलता के कारण युवा वोट बैंक बीजेपी की रणनीति में अब उतना भरोसेमंद वोटबैंक नहीं रहा है या कम से कम युवा वोटबैंक की नाराजगी का सामना करने के लिए सरकार ने महिला वोटबैंक पर निर्भरता बढ़ाई है.
प्रधानमंत्री के फ्लैगशिप कार्यक्रम स्किल डेवपलमेंट मिशन से सेंटर तो खुल गए, पर रोजगार नहीं मिले. इसलिए रोजगार के संकट के बड़े मुद्दे बनने की आशंका और लुढ़कती अर्थव्यवस्था में भी नए भारत का नारा बुलंदी छूता रहे, इसके लिए कथानक में बदलाव किया गया.
यह कहना जल्दबाजी होगा, क्योंकि न तो उसके पास मोदी से बेहतर विकल्प है और न ही उसके भरोसे की डोर पूरी तरह टूटी है. भरोसा डगमगाया जरूर है, लेकिन अभी टूटा नहीं है. नौकरियां जा रही हैं. नई नौकरी मिल नहीं रही. ईएमआई का बोझ बढ़ रहा है. बड़ी कंपनियों का मुनाफा कम हो रहे है.
घाटे में चलने वाली कंपनियों की संख्या बढ़ रही है, लेकिन कहते हैं मध्यम वर्ग का वोट सबसे सुरक्षित वोट बैंक है, जो सेंसेक्स की तरह सेंटिमेंट से चलता है. उम्मीद की डोर इतनी जल्दी छूटती नहीं और जिस उम्मीद की डोर थामने के लिए मोदी के पास अभी भी वक्त है. बीजेपी के रणनीतिकार समझते हैं कि जिस युवा और मध्यम वर्ग ने 2014 में मोदी को प्रचंड जनादेश तक पहुंचाया था, उसकी उदासीनता या नाराजगी 2019 के चुनावी नतीजों में बड़ा उलटफेर कर सकता है.
(शंकर अर्निमेष जाने-माने जर्नलिस्ट हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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Published: 28 Sep 2017,04:51 PM IST