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यह सब कुछ बहुत तेजी से हुआ. देखते ही देखते. हवा की रफ्तार से. 2009 के आखिरी महीने को याद कीजिए. भारत में स्कूटर की मौत की घोषणा कर दी गई. बजाज कंपनी के मैनेजिंग डायरेक्टर राजीव बजाज ने कंपनी की नई मोटरसाइकिल के लॉन्च की घोषणा करते हुए यह बता दिया कि अब स्कूटर नहीं बनाएंगे. मानो यह कोई बड़ी बात न हो. उस समय बजाज हर महीने 1,000 से भी कम स्कूटर बना रही थी. एक दौर था, जब भारत में स्कूटर मतलब 'बजाज' होता था.
आज राजीव बजाज को अपने उस फैसले पर अफसोस हो रहा होगा. भारत का टू-व्हीलर मार्केट इस समय तेज स्कूटरीकरण के दौर से गुजर रहा है. स्कूटरों की बिक्री तेजी से बढ़ रही है. इस समय बिकने वाले हर तीन टू-व्हीलर में से एक स्कूटर है. अनुमान है कि 2020 आते-आते स्कूटर की बिक्री मोटरसाइकिल को पार कर जाएगी.
पांच साल पहले बिकने वाले हर पांच में से एक ही टू-व्हीलर स्कूटर होता था. 2016-17 में भारत में एक करोड़ 11 लाख बाइक्स बिकीं, वहीं 56 लाख स्कूटर बिके. बाइक अब तक कुल बिक्री में आगे हैं, लेकिन बाइक्स के बिकने की रफ्तार थम चुकी है. स्कूटर की बिक्री सालाना 10 फीसदी से भी तेज रफ्तार से दनादन भाग रही है.
राज्यों का हिसाब देखें, तो केरल, गोवा, चंडीगढ़, हिमाचल प्रदेश, मणिपुर और मिजोरम में बाइक से ज्यादा स्कूटर बिकती हैं. कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर में भी 40 फीसदी से ज्यादा बिक्री स्कूटर की ही है. यानी, पढ़े लिखे राज्यों ने स्कूटर को ज्यादा तेजी से अपनाया है.
वैसे भी इस समय भारत में सबसे ज्यादा बिकने वाला दोपहिया वाहन होंडा एक्टिवा स्कूटर है. दूसरे नंबर पर इससे काफी पीछे हीरो स्प्लैंडर मोटरसाइकिल है. इंडस्ट्री के आंकड़े बताते हैं कि स्प्लैंडर की बिक्री उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र के दूरदराज के इलाकों में सबसे ज्यादा गिरी है, जबकि गांव और कस्बों में होंडा एक्टिवा की बिक्री अच्छी है.
इसकी बनावट ऐसी है कि कई तरह की भारतीय पोशाक पहनकर इसे चलाना मुश्किल होता है. खासकर, साड़ी पहनकर इसे चलाना संभव नहीं है.
इसके अलावा बाइक में सामान रखने की जगह कम होती है, और इस मायने में यह पारिवारिक जरूरतों को पूरा करने में बाइक से कमतर साबित होती है. स्कूटर ने इस खाली जगह को भरा है. खासकर गियरलेस स्कूटर के आने के बाद से पारिवारिक वाहन के रूप में स्कूटर ने मोटरबाइक के मुकाबले बाजी मार ली है.
एक बाइक परिवार के मर्द या मर्दों की गाड़ी है. स्कूटर फैमिली के काम आता है. गिरयरलेस स्कूटर को ज्यादा उम्र वाले भी आसानी से चला और संभाल लेते हैं, बाइक में वह बात नहीं है.
इस बाजार को समझकर, एक स्कूटर कंपनी ने पांच साल पहले एक ऐसा स्टोर लॉन्च किया था, जिसमें सेल्स गर्ल से लेकर मैनेजर और एकाउंटेंट तक, पूरा स्टाफ महिलाओं का था. यह सिर्फ इसलिए ताकि इस स्टोर में आने में महिलाएं सहज महसूस करें.
भारतीय महिलाओं का स्कूटर पर सवार होना किसी सामाजिक क्रांति से कम नहीं है. एक स्कूटर के विज्ञापन में जब प्रियंका चोपड़ा और आगे चलकर आलिया भट्ट कहती हैं कि– ‘व्हाई शुड ब्वॉज हैव ऑल द फन,’ तो दरअसल वे बता रही होती हैं कि समाज स्कूटर के साथ और स्कूटर समाज के साथ क्या करने वाला है.
स्कूटर या स्कूटी ने शहरों ही नहीं, गांवों और कस्बों में भी लड़कियों और महिलाओं को आजाद बनाया है. उनके लिए स्कूल, कॉलेज और काम पर जाना आसान हुआ है. अब किसी लड़की के लिए कितना आसान हो गया है कि वो भाई की बाइक पर पीछे बैठकर ट्यूशन जाने का इंतजार करने की बजाय स्कूटर की चाबी खुद घुमाती होगी. सड़क पर पैदल चलती लड़की से ज्यादा सुरक्षित वो लड़की है, जो वहां से स्कूटर से गुजर रही है. ये बदलाव कई मायनों में महत्वपूर्ण है.
और उनके लिए कमाने के मौके भी बेहतर हुए हैं. स्कूटी पर चलती लड़की प्रतीक के तौर पर भी ज्यादा शक्तिशाली दिखती है. खासकर महिलाओं के हाथ में स्कूटर की चाबी का आना या परिवार की लड़की के लिए स्कूटर खरीदना एक महत्वपूर्ण सामाजिक प्रक्रिया है. यह कई और प्रक्रियाओं को जन्म दे रहा है. इसके साथ लड़कियों और महिलाओं की मोबिलिटी बढ़ेगी, उनके ड्रेसेस बदलेंगे और उनके संबंधों के दायरों में भी बदलाव आना मुमकिन है.
बुजुर्गों की मोबिलिटी को भी स्कूटर ने बढ़ाया है. इसके असर को देखना भी दिलचस्प होगा. परिवार में एक बाइक की जगह, स्कूटर का आना यह भी बता रहा है कि परिवार के परचेजिंग डिसीजन यानी खरीदारी के फैसलों में मर्दों की दादागीरी कम हुई है.
परिवार में जब एक लड़का कहता होगा कि उसे मर्दाना बाइक चाहिए, तो ड्राइंग रूम में जो बहस चलती होगी, वह बेहद दिलचस्प होगी. बड़े शहरों में यह बहस लड़कियां जीत चुकी हैं. मुंबई, बेंगलुरु, चेन्नई, चंडीगढ़ जैसे शहरों में यह हो चुका है. परिवार का वह लड़का जब स्कूटर चलाता होगा, तो यह भी सोच में बदलाव की शुरुआत कर सकता है.
परिवार का वही स्कूटर जब बेटा-बेटी और मां तीनों के काम आता होगा, तो इसके समाजशास्त्रीय मायने हो सकते हैं. इस बदलाव को हम अपने आस-पास होता महसूस कर सकते हैं. अगर लड़की ज्यादा कमाती होगी या पढ़ने में ज्यादा तेज होगी, तो मुमकिन है कि स्कूटर की चाबी को हासिल करने की लड़ाई में उसका पलड़ा भारी होता होगा.
यह सब अध्ययन और शोध का विषय है. फिलहाल तो यही कहा जा सकता है कि स्कूटरीकरण भारत की हकीकत है और आने वाले कुछ साल तक हम इसे अपने आसपास होता हुआ महसूस करते रहेंगे. राजीव बजाज के लिए यह आत्मनिरीक्षण का क्षण है.
( लेखिका भारतीय सूचना सेवा में अधिकारी हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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