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अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड में धारा 356 के गलत इस्तेमाल को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने हाल में जो फैसले दिए हैं, उससे पता चलता है कि केंद्र की अति महत्वाकांक्षा के कारण राज्य सरकारों को किस कदर नुकसान पहुंचा. केंद्र के कई फैसले राज्य सरकारों के लिए दम घोंटने वाले साबित होते हैं.
ठीक ऐसा ही सिलसिला राज्य के शासन और स्थानीय निकायों के बीच भी चलता है, जिसे हम नजरअंदाज कर जाते हैं.
उदाहरण के तौर पर देखें, तो गुड़गांव म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन का कार्यकाल खत्म होने के बाद जल्द ही वहां चुनाव कराए जाने हैं, क्योंकि राज्य सरकार वहां परिसीमन की प्रक्रिया में देरी कर दी है. कुछ ऐसा ही हाल फरीदाबाद है, जहां का निकाय चुनाव पिछले एक साल से पेंडिंग है लेकिन नहीं हो रहा है. ऐसे कई उदाहरण हैं, जहां राज्य सरकारों पर ऐसे आरोप लगे हैं कि वे नगर निगम परिषद पर न सिर्फ अपनी सत्ता चलाते हैं, बल्कि कई बार वे उनके साथ मनमाने तरीके से भी पेश आते हैं. यह कानूनी या संवैधानिक, दोनों ही तरह से न्यायसंगत नहीं है.
सैद्धांतिक तौर पर, किसी भी नगर निगम का कामकाज मेयर की देखरेख में किया जाता है. एक मेयर म्यूनिसिपल कमेटी के शक्तिहीन चेयरपर्सन से थोड़ा ज्यादा होता है. हालांकि म्यूनिसिपल कमेटी के पास भी ज्यादा ताकत नहीं होती. भारतीय शहरों की देखरेख अक्सर कई अव्यवस्थित संस्थाओं या समितियों के समूह द्वारा किया जाता है, जिनका इस्तेमाल राज्य सरकारें कई बार लोकतंत्र के सिद्धांतों को जनता तक पहुंचाने के लिए भी करते हैं. ऐसे में जो मेयर होता है, वो अक्सर खुद को एक आर्टिफिशियल पोजिशन में पाता, जहां लोग उसका गुणगान करते रहते हैं, लेकिन उसके पास न तो कोई कानून लागू करने का अधिकार होता है, न ही बजट पास करने का. दूसरी तरफ जो नगरपालिकाएं होती हैं, उनके सिरमौर राज्य द्वारा नामित कोई सरकारी अफसर होता है, जिसके पास भी कोई लोकतांत्रिक वैधता नहीं होती है.
अब इसकी तुलना चीन से करें, जहां अगर एक बिजनेसमैन शहर में फैक्ट्री लगाना चाहता हो, तो वो शहर के मेयर के पास जाकर पॉलिटिकल क्लियरेंस, जमीन आवंटन, सड़क, पानी और बिजली हर तरह की मंजूरी ले सकता है. उसे हर उस चीज की मंजूरी मिल जाती है, जो प्रोडक्शन में मददगार होती हो. वहीं भारत में ये सब चीजें पाने के लिए कई संस्थाओं और दफ्तरों के चक्कर काटने होते हैं, जो अधिकारों के अभाव में बुरी तरह से प्रभावहीन होते हैं. ये लोग किसी भी निर्णय को लेने काफी जांच के बाद भी सामान्य से बहुत ज्यादा समय लगाते हैं.
हमारे शहर अपने अधिकारों के लिए जाने कब से हांफ रहे हैं और इस क्रम में कई तरह की नगरीय अव्यवस्था का भी शिकार हो रहे हैं. लेकिन ये जानना लगभग असंभव है कि इस अव्यस्था का जिम्मेदार कौन है, क्योंकि छोटे-छोटे आदेशों वाले अनगिनत संस्थाएं यहां मौजूद हैं. अगर हमें 21वीं सदी की समस्याओं को दूर करना है, तो हमारे पास एक ऐसा स्पष्ट राजनीतिक अधिकारी होना जरूरी है जो स्थानीय स्तर पर चुना गया हो.
ये हमारे शहर हैं, जो हमें आर्थिक विकास की राह पर लेकर जाते हैं. यहां नई नौकरियां पैदा होती हैं और नए खोज किये जाते हैं. ‘मेक इन इंडिया’ और ‘स्टार्टअप इंडिया’ जैसे नारों के साथ सरकार काफी कुछ करना चाहती है, लेकिन अगर हमारे बुनियादी ढांचे ही सही तरीके काम नहीं करेंगे, तो हम वर्ल्ड क्लास काम या खोज कैसे करेंगे? अगर हम अपने शहरों की बुनियादी जरूरतों को भी पूरा नहीं कर पाएंगे, तो ये शहर हमारे देश के युवाओं के लिए अच्छा मौका कैसे पैदा करेंगे? अच्छे तरीके से चलाए जाने पर शहरी भारत हमारे राष्ट्र का भविष्य हो सकता है. जिस तरह से हमारा सब कुछ सरकारी अफसर के भरोसे छोड़ दिया गया है, ये कुछ नहीं, बल्कि हमारे औपनिवेशिक इतिहास को ही दिखाता है.
शहरी अवधारणा में कई विशिष्ट और परस्पर जुड़े हुए सिस्टम हैं, इसलिए इनकी समस्याओं के निपटारे के लिए हमें ऐसे फ्रेमवर्क की जरूरत है, जो सिटी सेंट्रिक हो. ऐसे फ्रेमवर्क में आदर्श तरीके से देखा जाए, तो जगह के हिसाब से योजना, पारदर्शिता, जवाबदेही और भागीदारी- इन सब का मिलान होना जरूरी है, किसी ताकतवर और चुने हुए नेता के नीचे. ये सब तभी मुमकिन होगा, जब पहला कदम उठाया जाएगा और हमारे शहरों को एक राजनीतिक संरक्षण मिलेगा. हमारे शहरों के पास न तो दूरदृष्टि है, न ही निर्देशन. लेकिन अगर उन्हें सही और ईमानदार नेता मिल जाएं, तो हमारे शहर वाइब्रेंट अर्बन सेंटर में तब्दील हो सकते हैं और सदी के ग्लोबल हब बन सकते हैं.
इस बिल में ये मांग की गई है कि मेयर का चुनाव सीधे जनता करे और उनके पास अपने सीमित कार्यकाल, जो नगरपालिका के कार्यकाल से मिलता-जुलता हो, उस दौरान कानून लागू करने का अधिकार हो. ये बिल मेयर की वित्तीय और काम करने के अधिकारों को बढ़ाने की भी मांग करता है.
भारतीय नगरों की व्यवस्था पर सालाना रिपोर्ट (ASICS) 2015, के अनुसार एक जनता के द्वारा चुना गया मेयर ही इस समस्या का समाधान कर सकता है. जयपुर, देहरादून, रायपुर और रांची जैसे शहरों के पास सीधा चुने गए मेयर हैं, लेकिन इसके बावजूद गवर्नेंस के मापदंड पर ये शहर फेल हुए हैं. इन शहरों के पास अवास्तविक बजट, खराब वित्तीय हालत और प्रति व्यक्ति खर्च करने की निम्न आमदनी थी. ऐसे में ये मेयर चुनकर आने के बावजूद मजबूर थे. इसलिए शहरों में बैठे ये नेता असरदार साबित हों, इसलिए जरूरी है कि उनके पास काम करने, फैसला लेने और वित्तीय अधिकार मौजूद हों.
मौजूदा कानून हमारे संविधान को वार्ड कमिटी बनाने का अधिकार देता है. किसी भी तीन लाख से ज्यादा आबादी वाली नगरपालिका में एक या उससे ज्यादा वार्ड होते हैं. मेरे बिल में इस आबादी की संख्या को घटाकर एक लाख करने की मांग की गई है, जिससे लोगों की भागीदारी बेहतर हो. लोगों की भागदारी बढ़ाने के लिए इस बिल में हर इलाके के लिए एक सभा भी बनाने की बात की गई है, ताकि निचले स्तर पर भी गवर्नेंस लागू की जा सके.
अगर हम अपने नागरिकों के जिम्मे शहर चलाना चाहते हैं, तो हमें उन्हें सही मंच और जगह देनी ही पड़ेगी. ये तय करने के लिए राज्य जबरदस्ती मेयर और स्थानीय कमेटियों के कामकाज में बाधा न पहुंचाए, इसके लिए इस बिल में इन प्रावधानों को लागू करने के लिए समयसीमा भी तय की गई है. वित्तीय विकेंद्रीकरण के लिए इस बिल में ये प्रावधान किया गया है कि नगरपालिकाएं स्टेट से पैसा मांग सकें. इसमें ये कहा गया है कि राज्य सरकारें फाइनेंस कमीशन की सिफारिश के छह महीने के भीतर विधानसभा के सामने एक रिपोर्ट पेश करे, जिसमें उनके किए गए कामों की जानकारी हो.
हमारे आज शहर जिस तरह से बने हैं और संचालित हो रहे हैं, वो किसी भी तरह से राजनीतिक या आर्थिक शासन का उदाहरण पेश नहीं करते हैं. इसलिए मेरे द्वारा लाया गया ये बिल हमारे देश के शहरों को एक मेट्रोपॉलिटन शासन के जरिए अपना जीवन स्तर बेहतर करने के अधिकार देगा, क्योंकि ये मेट्रोपॉलिटन अथॉरिटी जनता द्वारा चुने गए मेट्रोपॉलिटन मेयर के जरिए शासन करेगा.
संविधान के 74वें संशोधन को दो दशक बीत चुके हैं, लेकिन हमारे शहर और कस्बे आज भी आर्थिक और राजनीतिक तौर पर पूरी तरह से सशक्त नहीं हुए हैं. इसलिए हमारे शहरी संस्थाओं को बेहतर तरीके से काम करने लायक बनाने के लिए ये जरूरी हो गया है कि उनका किस तरह से नेतृत्व किया जाता है उस तौर-तरीके को बदला जाता है.
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Published: 14 Aug 2016,02:37 PM IST