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‘अपन खतरनाक मूड में हैं’,क्यों बदले हैं शिवराज सिंह चौहान के तेवर?

राजनीतिक पंडितों का कहना है कि केंद्र से अच्छे संकेत नहीं मिल रहे, इसलिए शिवराज तनाव में हैं.

जावेद आलम
नजरिया
Published:
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान
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मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान
(फाइल फोटो: PTI)

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“...आजकल अपन खतरनाक मूड में हैं. गड़बड़ करने वाले को छोड़ेंगे वोड़ेंगे नहीं, फारम (फॉर्म) में है मामा. और जे एक तरफ माफियाओं के खिलाफ अभियान चल रहा है. मसल पावर का, रुसूख का इस्तेमाल कर के कहीं अवैध कब्जा कर लिया, कहीं भवन तान दिए, कहीं ड्रग माफिया. सुन लो रे मध्य प्रदेश छोड़ जाना नहीं जमीन में गाड़ दूंगा दस फीट, पता नहीं चलेगा कहीं भी किसी को. सुशासन का मतलब जनता परेशान न हो. दादा, गुंडे, बदमाश फन्ने खां ये कोई नहीं चलने वाले...”

ये शब्द हैं थोड़े समय पहले कांग्रेस की सरकार गिराकर चौथी बार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने वाले शिवराज सिंह चौहान के. चौहान का इस बार का मुख्यमंत्रित्व कार्यकाल उनकी छवि से कुछ अलग, कुछ विपरीत नजर आ रहा है.

जमीन में दस फीट गाड़ देने वाली भाषा चौहान की नहीं रही है. पिछले तीन कार्यकाल में वे राज्य को दंगामुक्त, भयमुक्त बनाने में कामयाब रहे. महिलाओं के लिए कई योजनाएं लाकर ‘मामाजी’ बने. लेकिन इस बार सूबे की कमान संभालने के बाद ‘बदले-बदले से सरकार नजर आ रहे हैं’ वाला मामला है. चौहान भले माफियाओं का जिक्र करते हुए उन्हें जमीन में गाड़ देने की बात कर रहे हों, लेकिन इसके कई मायने निकाले जा रहे हैं.

राजनीतिक पंडितों का कहना है कि केंद्र से अच्छे संकेत नहीं मिल रहे, इसलिए शिवराज तनाव में हैं. दूसरा पक्ष प्रदेश में राजनीतिक संतुलन का है. कांग्रेस की सरकार गिराने के लिए जिन कांग्रेसी विधायकों, मंत्रियों को तोड़ा गया, उनका कर्ज भी चुकाना है.

हाल ही राज्य के मंत्रिमंडल का विस्तार हुआ, जिसमें कांग्रेस के दो नवनिर्वाचित विधायकों को मंत्री बनाया गया है. इसमें इंदौर के विधायक रमेश मेंदोला जैसे पुराने बीजेपी नेता मौका चूक गए हैं. मेंदोला अकेले नहीं हैं. बीजेपी काबीना में मंत्री रहे अजय विश्नोई तो इस पर सार्वजनिक रूप से नाराजगी जता चुके हैं. ऐसे नेताओं को संतुष्ट करने का टास्क भी चौहान के सामने है.

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इस सब के साथ राम मंदिर निर्माण निधि संग्रहण के नाम पर निकाली गई रैलियों के दौरान उपजे हंगामों ने राज्य का माहौल गर्म कर दिया. उज्जैन के मोहल्ले बेगम बाग, इंदौर जिले के ग्राम चांदनखेड़ी और मंदसौर के ग्राम डोराना में इन रैलियों के दौरान पथराव और मारपीट हुई. रैली में शामिल शरारती तत्वों ने चांदनखेड़ी और डोराना में मस्जिदों पर हमले किए, साथ ही मुसलमानों के घरों पर जबरिया भगवा झंडे फहराए. इसे संयोग न समझिए कि चांदनखेड़ी और उज्जैन में प्रशासन ने हंगामेबाजी करने के आरोप में आनन-फानन मुसलमानों के मकान और दुकान ढहाए. ऐसे में वाजिब ही रैलियों के बाबत कई सवाल पूछे जा रहे हैं कि इन्हें अनुमति कौन दे रहा है और इनके रूट कौन तय कर रहा है? रैली में भड़काऊ नारे लगाने, उत्पात करने वालों के खिलाफ क्या कार्रवाई की गई? जाहिर है अधिकारी इस पर बहलाने वाले जवाब देते हैं.

अब शिवराज सिंह चौहान पत्थरबाजों के खिलाफ सख्त कानून लाने की बात कर रहे हैं. कथित लव जिहाद के खिलाफ भी भारी-भरकम बयान देते हुए धर्म परिवर्तन को लेकर कानून वह सख्त कर चुके हैं. पत्थर फेंकने वालों के खिलाफ वो यूपी की तरह एमपी में भी ऐसा कानून बनाने की बात कर रहे हैं, जिसमें नुकसान की भरपाई पत्थरबाजी के आरोपियों से की जाएगी.

सूबे के उतार-चढ़ाव पर नजर रखने वालों के मुताबिक इस सबके पीछे या तो केंद्र से कुछ इशारा है या संघ का दबाव. इसलिए चौहान एक अन्य योगी के रूप में ढलने की कोशिश करते नजर आ रहे हैं.

हालांकि रैलियों के पीछे राज्य में होने वाले पंचायत चुनाव की आहटें भी सुनी जा रही हैं. यह चुनाव दिसंबर 2020 और जनवरी 2021 में होने वाले थे मगर राज्य की बीजेपी सरकार के अनुरोध पर इन्हें फरवरी 2021 तक बढ़ा दिया गया है. शिवराज सिंह चौहान और उनकी राजनीति को वरिष्ठ पत्रकार, राजनीतिक विश्लेषक हेमंत पाल कुछ अलग ढंग से देखते हैं. वह कहते हैं रोल बदलना चौहान की आदत है. पार्टी का कर्मठ कार्यकर्ता, भैया, मामाजी. एक फॉर्मूला एक बार ही चलता है इसलिए अब दबंग मुख्यमंत्री. वह योगी नहीं बनना चाहते, जैसा दिख रहा है. उनका लक्ष्य मोदी बनना है. वह भी बहुत बोलते हैं, यह भी बोल रहे हैं.

वह चौहान को चुनाव देखकर काम करने वाला नेता भी बताते हैं, जो स्टेज पर वोट के लिए शीर्षासन तक कर सकता है. भीड़ के सामने हाथ जोड़े खड़े या बड़ों के पैर पड़ लेना उनका तरीका है. अब जमीन में गाड़ देने की बातें करने लगे. अधिकारियों को ऑनलाइन बैठक में हटाते हुए वह सुशासन की बात कर रहे हैं. रामराज भी उनकी भाषावली में शामिल है. पाल साफ सवाल करते हैं, बीते पंद्रह साल में तो रामराज स्थापित हो जाना चाहिए था.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और अनुवादक हैं. इस लेख में दिए गए विचार उनके अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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