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सर सैयद अहमद खां वह व्यक्ति हैं, जिन्होंने अपने जीवन का आधा हिस्सा इस उद्देश्य को प्राप्त करने में लगा दिया कि सभी भारतीय— चाहे वह हिंदू हों या मुसलमान— आधुनिक शिक्षा प्राप्त करें और यूरोपीय लोगों को यह एहसास कराएं कि वे भी उनसे किसी भी तरह से कम नहीं हैं.
यही नहीं, वे यह भी चाहते थे कि सभी भारतीय अपनी राष्ट्रीय पहचान के साथ जीवनयापन करें. इसके लिए उन्होंने अपनी कलम का भरपूर इस्तेमाल किया और अपने व्याख्यायानों एवं लेखों के माध्यम से भारतीयों को प्रोत्साहित करने का काम अंजाम दिया. सबसे बड़ी बात यह है कि उन्होंने अपने जमाने के तकाजों को समझा और उन्हें अमलीजामा पहनाने की पुरजोर जद्दोजहद की.
सर सैयद अहमद खां का जन्म 17 अक्तूबर, 1817 को दिल्ली में सैयद घराने में हुआ था. उनका व्यक्तित्व अद्भुत दूरदर्शिता, विवेकधर्मिता और देशभक्ति से ओत-प्रोत था. वे तरक्की के हिमायती थे यानी उनका मानना था कि वक्त की नजाकत को समझते हुए इंसान को खुद को हर परिस्थिति के लिए तैयार रखते हुए ऐसे काम अंजाम देने चाहिए, जिससे बाद में आने वाली नस्ल फायदा उठाकर और ज्यादा तरक्की कर सके. इससे होगा यह कि मनुष्य के विकास का क्रम निर्बाध गति से बढ़ता चला जाएगा. इस संबंध में उनके विचारों को इन पंक्तियों के माध्यम से समझा जा सकता है—
इसमें कोई शक नहीं कि सर सैयद अहमद खां न केवल महान दार्शनिक थे, बल्कि एक महान समाज-सुधारक भी थे. उनकी गिनती उन महान लोगों में की जाती है, जो आजवीन शिक्षा-अध्ययन को समर्पित रहे और जिन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़कर अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया.
अगर उन्हें भविष्यद्रष्टा की संज्ञा दी जाए तो कोई अतिशयोक्ति न होगी, क्योंकि उन्होंने आधुनिक शिक्षा की धमक को बहुत पहले महसूस कर लिया था और इसी कारण उन्होंने पारंपरिक शिक्षा के स्थान पर आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने पर जोर दिया. उनका विचार था कि आधुनिक शिक्षा के बिना न तो तरक्की करना मुमकिन है और न ही यूरोपीय लोगों से टक्कर लेना मुमकिन है. शिक्षा को लेकर वे कितने जुनूनी थे, यह उनकी इन पंक्तियों से साफ पता चलता है—
1857 के संघर्ष को कौन भूल सकता है, जिसमें अंग्रेज ने भयानक बर्बरता की, सर सैयद अहमद खां के शब्दों में, उन्होंने दो आंखों हिंदू और मुसलमान को लहूलुहान कर दिया था. अंग्रेजों के जुल्म-ओ-सितम को देखकर उन्होंने भारत छोड़कर मिस्र जाने का फैसला किया.
इस अवसर पर अंग्रेजों ने लाख कोशिश की, तरह-तरह के ऐश-ओ-आराम के लालच दिए कि किसी तरह सर सैयद अहमद खां उनसे मिल जाएं, लेकिन मुल्क से बेपनाह मुहब्बत करने वाले सर सैयद को अंग्रेजों का कोई भी लालच अपने जाल में न फंसा सका.
फिर क्या था कि उन्होंने मिस्र जाने का अपना फैसला बदल दिया और देश में रहकर ही अपने काम को आगे बढ़ाने की योजना बनाई. मुसलमानों की पस्ती से वे बहुत ज्यादा दुखी थे, क्योंकि मुसलमान न तो आधुनिक शिक्षा के क्षेत्र से खुद को जोड़ पा रहे थे और न ही इससे जुड़ने की कोई कोशिश कर रहे थे. इस बारे में उनकी तड़प को उनकी ही पंक्तियों से समझा जा सकता है—
सर सैयद अहमद खां के जीवन का मुख्य उद्देश्य व्यापक अर्थों में शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना था और इसके लिए उन्होंने कड़ा संघर्ष तो किया ही, साथ ही लोगों की तरह-तरह आलोचनाओं और तानों को भी झेला.
शिक्षा में पिछड़ते जा रहे मुस्लिम समाज को लेकर वे बड़े चिंतित थे, अतः उन्होंने मुसलमानों को धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ आधुनिक शिक्षा से जोड़ने का प्रयास किया और इसके लिए उन्होंने मुरादाबाद में ‘आधुनिक मदरसे’ की स्थापना. यह वह मदरसा था, जहां छात्रों को वैज्ञानिक शिक्षा का ज्ञान दिया जाता था. इसी तर्ज का मदरसा उन्होंने गाजीपुर में भी स्थापित किया और इसके बाद ‘साइंटिफिक सोसाइटी’ की भी स्थापना की.
8 जनवरी, 1877 को सर सैयद अहमद खां ने मोहम्मडन ऐंग्लो ओरिएंटल कॉलेज (एम.ए.ओ.) की स्थापना की, जो कालांतर में ‘अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय’ हो गया. इस अवसर पर उन्होंने जो विचार व्यक्त किए थे, वे इस प्रकार हैं—
ऐसा नहीं है कि ये शिक्षण संस्थान केवल मुस्लिम समुदाय के लिए ही स्थापित किए गए थे, बल्कि ये देश के सभी नागरिकों के लिए थे और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इन शिक्षण संस्थानों का संचालन हिंदू और मुस्लिम समुदाय के लोग मिल-जुलकर करते थे.
इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि एम.ए.ओ. कॉलेज में संस्कृत भाषा के अध्ययन की भी व्यवस्था की गई थी और हिंदी भाषा के अध्ययन-अध्यापन के लिए पंडित केदारनाथ को अध्यापक के तौर पर नियुक्त किया गया था.
हां, इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता कि वे मुस्लिम समाज की आधुनिक शिक्षा से दूरी को लेकर बहुत चिंतित थे और इस दिशा में वे ता-उम्र जद्दोजहद करते रहे कि वे किसी तरह मुसलमानों को आधुनिक शिक्षा से जोड़ सकें, ताकि कौम की तरक्की के साथ-साथ मुल्क की तरक्की भी हो सके. इस संबंध में पंडित जवाहरलाल नेहरू के विचार उल्लेखनीय हैं—
एक महान शिक्षाविद, दार्शनिक, समाज-सुधारक होने के साथ-साथ सर सैयद अहमद खां उच्च कोटी के लेखक भी थे. उन्होंने 100 से भी ज्यादा किताबें लिखीं, जिनमें ‘हयात-ए-जावेद’, ‘तहज़ीब-उल-अख़्लाक़’, ‘मक़ालात-ए-सर सैयद’, ‘हयात-ए-सर सैयद’, ‘आसार-उस-सनादीद’, ‘महफ़िल-ए-सनम’ और ‘असबाब-ए-बग़ावत-ए-हिंद’ प्रमुख हैं.
‘असबाब-ए-बगावत-ए-हिंद’ में उन्होंने अंग्रेज सरकार की नीतियों की खुलकर आलोचना की, जिस कारण यह किताब उस दौर की सबसे चर्चित किताब तो थी ही, बल्कि आज भी इस किताब को उनकी सबसे महत्त्वपूर्ण रचना के तौर पर स्वीकार किया जाता है.
अपनी उम्र के आखिरी पड़ाव को पहुंचने के बावजूद शिक्षा के क्षेत्र में काम करना जारी रखने वाले और लोगों को हर मोर्चे पर जागरूक करने की जद्दोजहद करने वाले बहुआयामी प्रतिभा के धनी सर सैयद अहमद खां का 27 मार्च, 1898 को देहांत हो गया. उन्हें एक महान भारतीय शिक्षक, लेखक, दार्शनिक और समाज-सुधारक के रूप में याद किया जाता रहेगा.
एम.ए. समीर कई वर्षों से अनेक प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थानों से लेखक, संपादक, कवि एवं समीक्षक के रूप में जुड़े हैं. वर्तमान समय में स्वतंत्र रूप से कार्यरत हैं. 30 से अधिक पुस्तकें लिखने के साथ-साथ अनेक पुस्तकें संपादित व संशोधित कर चुके हैं.
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Published: 27 Mar 2021,09:16 AM IST