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सीपीआई(एम) के महासचिव सीताराम येचुरी चाहते थे कि उनकी पार्टी कांग्रेस के साथ मिलकर आने वाले चुनाव लड़े, लेकिन उनकी इस योजना में पार्टी के पिछले महासचिव प्रकाश करात ने पलीता लगा दिया.
ये अजीब बात है क्योंकि 1990 के दशक के मध्य में येचुरी ने इसी मुद्दे पर करात का साथ दिया था. करात अभी भी कांग्रेस से अलायंस नहीं करने पर अड़े हुए हैं, जबकि येचुरी इसे बदलना चाहते हैं.
विडंबना ये है कि सीपीआई(एम) तब देश की राजनीति को प्रभावित करने की स्थिति में थी. हालांकि, पार्टी के ग्राफ में उसके बाद से लगातार गिरावट आई है.
खबर है कि कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने के येचुरी के प्रस्ताव को सीपीआई(एम) के शीर्ष नेतृत्व में से सिर्फ एक तिहाई का समर्थन मिला. इनमें से ज्यादातर ने करात के प्रस्ताव का समर्थन किया, जो कांग्रेस से तालमेल के खिलाफ हैं. इस मामले में अंतिम फैसला हैदराबाद में अप्रैल में पार्टी कांग्रेस लेगी, लेकिन ऐसा अक्सर देखा गया है कि वामपंथी दलों की कांग्रेस आम तौर पर पोलित ब्यूरो और सेंट्रल कमेटी के फैसलों पर मुहर लगाती आई है.
एक और बात ये है कि अब अगर पार्टी करात की लाइन से पीछे हटती है तो उसे खासतौर पर केरल में काफी शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी. केरल ऐसा अकेला बड़ा राज्य है, जहां सीपीआई(एम) सत्ता में है. पार्टी का आधार कम होने की वजह इस तरह की हार्डलाइन पोजिशंस रही हैं.
सीपीआई(एम) के ग्राफ में गिरावट के संकेत 1990 के दशक के मध्य से ही मिलने लगे थे. 1980 के दशक में सोवियत संघ खत्म हो गया था. चीन तब कम्युनिस्ट राज में पूंजीवाद की तरफ शिफ्ट हो चुका था. बर्लिन की दीवार गिरने और सोवियत रूस के विघटन के बाद रूस में बदलाव हो रहे थे. उस समय क्यूबा जैसे कुछ देशों में वामपंथियों की सत्ता सिमट कर रह गई थी. इसके बावजूद करात जैसे लोगों की सोच नहीं बदली.
भारतीय राजनीति भी बदलाव के दौर से गुजर रही थी. विचारधारा की जगह समुदाय पर जोर बढ़ रहा था. राजनीतिक पार्टियां जाति, धर्म और क्षेत्रीय अस्मिता के बारे में कहीं ज्यादा खुलकर बातें कर रही थीं. तेलुगू देशम ने इस राजनीति की बुनियाद 1980 के दशक में डाली थी. बाद में बिहार और ओडिशा जैसे राज्यों में दूसरी पार्टियां भी इस रास्ते पर चलीं. ये पार्टियां जनता दल से निकली थीं.
जाति के आधार पर लोगों को एकजुट करने का काम भी राजनीतिक दलों ने शुरू कर दिया था. 1990 के दशक की शुरुआत में दलितों, पिछड़ी जातियों और सवर्णों को उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में गोलबंद किया गया.
वैसे विचारधारा के बैनर तले जातीय आंदलोन भारतीय राजनीति के लिए नई बात नहीं थी. पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह समाजवादी विचारधारा की छत्रछाया में पिछड़ी जातियों को गोलबंद करने की कोशिश कर चुके थे, लेकिन अब विचारधारा पर उतना जोर नहीं रह गया था.
जाति के आधार पर राजनीतिक दलों की गोलबंदी से बिहार और यूपी जैसे राज्यों में सीपीआई और सीपीआई(एम) जैसी पार्टियों का आधार कम होने लगा. मऊ, गाजीपुर और फैजाबाद में मंदिर आंदोलन से पहले वामपंथी दलों का बड़ा जनाधार था. हालांकि, आरक्षण की राजनीति और बीएसपी के उभार से यह जनाधार बहुत कम हो गया.
जहां तक करात और उनके सहयोगियों की बात है तो उन्हें लग रहा था कि ये घटनाएं किसी और ग्रह पर हो रही हैं. उन्हें क्षेत्रीय और जाति की राजनीति करने वाली पार्टियों से हाथ मिलाने में कोई झिझक नहीं थी. इस बीच वे पूंजीवादी शैतानों को कोसते रहे, जिसकी नुमाइंदगी उनके मुताबिक बीजपी और कांग्रेस जैसी पार्टियां कर रही थीं.
हालांकि, कांग्रेस के विरोध की एक वजह ये भी रही होगी कि जिन दो राज्यों- पश्चिम बंगाल और केरल में सीपीआई(एम) सत्ता में थी, वहां उसका मुकाबला कांग्रेस से था. दूसरी, तरफ बिहार, आंध्र प्रदेश और ओडिशा में उन्होंने क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन करके अपने लिए कुछ सीटों का जुगाड़ किया. इससे इन राज्यों की विधानसभा में भी लेफ्ट को कुछ सीटें जीतने में मदद मिली.
उस दौर में सीपीआई(एम) के बड़े नेता पार्टी महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत और ज्योति बसु थे, जो 22 साल तक पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री भी रहे. दोनों बीजेपी के खिलाफ कांग्रेस के साथ रणनीतिक अलायंस के पक्ष में थे, लेकिन उन्हें ऐसा करने से करात और येचुरी ने मिलकर रोक दिया था. ऐसे वक्त में जब हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी और जेएनयू में ‘लेफ्ट पॉलिटिक्स’ जातीय पहचान की टेक ले रही है, तब करात की लाइन को पार्टी में येचुरी के मुकाबले अधिक समर्थन मिलना हैरान करता है.
(लेखक जाने-माने जर्नलिस्ट और ‘जेनरेशन आॅफ रेज इन कश्मीर’ किताब के लेखक हैं. उनसे @david_devadas पर संपर्क किया जा सकता है. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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