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कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले अपने बच्चों को पार्टी की कमान सौंपने की तैयारी कर रहीं हैं. यह स्पष्ट है कि वह न केवल समय से पहले अर्ध-सेवानिवृत्ति लेने जा रही हैं बल्कि वह कांग्रेस को ऐसी अस्थिर अवस्था में छोड़कर जा रही हैं, जैसी पिछले 131 साल में पार्टी ने पहले कभी नहीं देखी.
सोनिया की उम्र इस वक्त 69 वर्ष है और वह नरेंद्र मोदी से केवल चार साल बड़ी हैं. सामान्य स्थिति में वह अगले कई वर्षो तक पार्टी की बागडोर संभालना जारी रख सकती थीं. लेकिन, खराब स्वास्थ्य ने उन्हें इस बात के लिए बाध्य किया है कि वह पार्टी की कमान राहुल गांधी के हाथों में सौंप दें जिन्हें पार्टी प्रमुख के रूप में तैयार किया जा रहा है. हालांकि, इसमें शक की गुंजाइश कम ही है कि वह भविष्य में भी कांग्रेस तथा देश की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रहेंगी.
इस दृष्टि से उनके नेतृत्व को नेहरू-गांधी वंश परंपरा के अवसान के रूप में देखा जा सकता है. इसमें कम ही संदेह है कि पार्टी के इस बुरे दौर के बारे में जब कभी कुछ लिखा जाएगा, तो सोनिया गांधी को बख्श दिया जाएगा.
साल 2004 में कांग्रेस ने सोनिया के नेतृत्व में सफलता पाई थी. लेकिन, हालात पर बारीक नजर डालने से साफ हो जाएगा कि यह उनके प्रभाव का नहीं बल्कि तत्कालीन परिस्थितियों का नतीजा था.
हिन्दुत्ववादी ताकतों ने गुजरात में निष्पक्षता के ‘राजधर्म’ का उल्लंघन किया था, जिसका फायदा कांग्रेस को उस वक्त मिला था. उस समय सोनिया गांधी की लोकप्रियता वाजपेयी के बाद दूसरे स्थान पर थी और यह इस बात का सबूत थी कि मतदाताओं ने कांग्रेस के बजाय उनके लिए वोट किया.
साल 2004 की सफलता 2009 की बड़ी जीत के साथ और भी पुष्ट हो गई, जब कांग्रेस ने लोकसभा में 200 से अधिक सीटों पर जीत दर्ज की. पार्टी निरंतर मजबूत हो रही थी.
लेकिन फिर, 2011-12 से इसके अवसान का दौर शुरू हुआ, जो अब भी जारी है.
पी. वी. नरसिंह राव (पूर्व प्रधानमंत्री) पर प्रकाशित एक हालिया पुस्तक के अनुसार, कांग्रेस के बहुत से नेता आर्थिक उदारीकरण को लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री के खिलाफ थे. वास्तव में सोनिया गांधी और सुधार विरोधी कांग्रेसी अब भी 1970 तथा 1980 के दशकों में जी रहे हैं पर भारत आगे बढ़ चुका है. इस बात को नरेंद्र मोदी ने समझ लिया और ‘विकास’ के नाम पर खूब भुनाया.
आर्थिक सुधारों को लेकर उदासीनता ही एकमात्र कारण नहीं है, जिसकी वजह से पार्टी सोनिया गांधी के नेतृत्व में रसातल की ओर जा रही है. एक बड़ी भूल अपने बच्चों के अतिरिक्त पार्टी की दूसरी पांत के नेताओं को तैयार नहीं करना भी है.
अपनी सास इंदिरा गांधी की तरह ही सोनिया गांधी की खासियत भी परिवार के सदस्यों को आगे बढ़ाने की रही है. इंदिरा ने भी पार्टी के प्रांतीय नेताओं को राष्ट्रीय राजनीति में बड़ी भूमिका निभाने के लिए आगे बढ़ाने के बजाय अपने बेटों को आगे बढ़ाया था.
इंदिरा ने पहले संजय को और फिर राजीव को अपने उत्तराधिकारी के रूप में तैयार किया. उसी तरह सोनिया भी चाहती हैं कि राहुल उनकी जगह लें और फिर प्रियंका वाड्रा. लेकिन, राहुल में उस करिश्मे का अभाव है, जो उनके पूर्वजों में था.
अब उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में जमीनी स्तर के दबाव के कारण ही प्रियंका वाड्रा को आगे किया जा रहा है. पार्टी के आम कार्यकर्ताओं का मानना है कि अपने तुनकमिजाज भाई की तुलना में अधिक मिलनसार व ‘स्वाभाविक’ नेता के तौर पर वह राहुल गांधी की तुलना में अधिक वोट आकर्षित कर पाएंगी.
कांग्रेस को मोदी के ‘लड़खड़ाने’ का इंतजार है, ताकि वह सत्ता में वापसी कर सके पर, प्रधानमंत्री कुछ हिन्दुत्ववादी ताकतों की समय-समय पर मुसलमान और दलित विरोधी गतिविधियों के बावजूद फिलहाल मजबूत स्थिति में हैं. ऐसे में कांग्रेस के लिए इस वक्त निराशा के अतिरिक्त कुछ नहीं बचा है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
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