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किसी बालिग व्यक्ति का अपनी पसंद के साथी से शादी करने का अधिकार एक निजी और व्यक्तिगत मसला है. हां, इसमें वैध सहमति जरूर होनी चाहिए. इसलिए ये आसानी से समझा जा सकता है कि इसे जानबूझकर सार्वजनिक जांच पड़ताल का विषय नहीं बनाया जाना चाहिए- न ही इसमें अजनबियों का दखल होना चाहिए. इसी हफ्ते यानी 12 जनवरी को इलाहाबाद हाई कोर्ट की सिंगल जज वाली लखनऊ बेंच ने इस दखल और खुलासे की सीमा तय की है.
ये मामला सफिया सुल्ताना का था. सफिया ने अपने पति अभिषेक कुमार पांडे की ओर से उत्तर प्रदेश राज्य के खिलाफ ये मामला दायर किया था. इस मामले की सुनवाई में हाई कोर्ट ने स्पेशल मैरिज ऐक्ट के सेक्शन्स 6 और 7 का हवाला दिया. इन सेक्शंस में धार्मिक कानून या प्रथा से इतर शादी का तरीका बताया गया है.शादी और तलाक के लिए एक सेक्यूलर व्यवस्था किसी भी सेक्युलर देश का आधार होती है. भारत में औपचारिक तरीके से शादी ब्याह को जितना महत्व दिया जाता है, उसे देखते हुए स्पेशल मैरिज एक्ट बेशक एक महत्वपूर्ण कानून बन जाता है.
कम शब्दों में बताया जाए तो स्पेशल मैरिज एक्ट में कपल को डिस्ट्रिक्ट मैरिज ऑफिसर को “भावी शादी का नोटिस” लिखित में देना होता है (ये नोटिस कई बार दो जिलों में भी देना पड़ता है, जहां दोनों पक्ष रहते हैं).
इसके बाद नोटिस को छापा जाता है और उसे 30 दिनों तक दो जगहों पर रखा जाता है. पहला, ऐसी फाइल में जिसे कोई भी शख्स ‘बिना कोई फीस चुकाए’ देख सकता है, और दूसरा दफ्तर में किसी ऐसी जगह पर ‘जहां सभी लोगों की नजर पड़ती हो’. चुनिंदा आधार पर ‘कोई भी शख्स’ इस भावी शादी पर ऐतराज कर सकता है, और अगर कोई ऐतराज जताया जाता है तो मैरिज ऑफिसर उस पर सोचता-विचारता है और तय करता है कि शादी की इजाजत दी जाए या नहीं. अगर शादी की इजाजत नहीं मिलती तो कपल अदालत में अपील कर सकता है. अगर कोई ऐतराज नहीं किया जाता तो कपल 30 दिनों के बाद शादी कर सकता है.
अब यह प्रक्रिया व्यक्तिगत स्वायत्तता, प्राइवेसी और सहमति को कमजोर करती है. इसके अलावा यह गैरजरूरी भी है- क्या धार्मिक कानूनों और प्रथाओं के तहत शादी करने वाले लोगों को ऐसा खुलासा करना पड़ता है. क्या उन पर वही प्रक्रियाएं लागू होती हैं? तो सेम फेथ कपल्स की तरह इंटरफेथ कपल्स के लिए प्रशासन को नोटिस देने की बाध्यता क्यों है? आपस में शादी करने वाले लोगों के जेंडर या धर्म में राज्य की इतनी रुचि क्यों हैं.
वैसे स्पेशल मैरिज एक्ट के अंतर्गत नोटिस छपवाने के खतरों के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है. धार्मिक चरमपंथी समूह ऐसे नोटिस पर लगातार नजर रखते हैं और कपल्स को परेशान करते हैं, उन पर हमले भी करते हैं. कपल्स के पास क्या विकल्प होता है- वे पुलिस प्रोटेक्शन की मांग करते हैं, अपने-अपने परिवार वालों को मनाते हैं या अपने प्यार को भूल जाते हैं.
बाद में अदालत की डिविजन बेंच ने इस फैसले को दुरुस्त किया. कोलकाता हाई कोर्ट ने भी व्यक्तिगत स्वायत्तता को स्वीकार किया. लेकिन इस मांग के पीछे की वजह, स्पेशल मैरिज ऐक्ट की अन्यायपूर्ण और तकलीफदेह प्रक्रिया, अब भी जस की तस है.
सफिया सुल्ताना के मामले में हाई कोर्ट एक अन्य इंटरफेथ कपल की हीबस कॉरपस याचिका पर भी विचार कर रहा था. कार्यवाही के दौरान याचिका दायर करने वाले कपल का कहना था कि स्पेशल मैरिज एक्ट की मुश्किल प्रक्रिया उनके और दूसरों के शांतिपूर्ण तरीके से शादी करने के अधिकार का हनन करती है. उन्होंने अदालत से कहा था कि इस तरह उनके लिए इस प्रक्रिया को चुनौती देना भी मुश्किल होता है क्योंकि इससे उनकी पहचान का खुलासा होगा और उनके शादी के इरादे का भी.
इस तरह अदालत ने फैसला सुनाया कि मैरिज ऑफिसर्स नोटिस नहीं छाप सकते, न ही उन्हें ऐसा करना चाहिए. इसके अलावा उन्हें भावी शादी पर ऐतराज जताने का न्यौता भी नहीं देना चाहिए. वे ऐसा तभी कर सकते हैं जब कपल खुद नोटिस छपवाने की अनुरोध करे.
अदालत का यह तर्क सही था जोकि प्राइवेसी के अधिकार पर आधारित था. प्राइवेसी के अधिकार को केएस पुत्तास्वामी बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों की बेंच ने मान्यता दी थी. जस्टिस बोबड़े ने तब कहा था (जिसका हवाला हाई कोर्ट ने दिया था) कि “प्रत्येक अधिकार जो गरिमा, जीवन, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकारों का अभिन्न अंग है, जैसा कि वास्तव में निजता का अधिकार है, इसे स्वयं एक मौलिक अधिकार माना जाना चाहिए.”
इसके मद्देनजर हाई कोर्ट ने कहा कि किसी बालिग का शादी करने और अपने जीवनसाथी को चुनने का अधिकार भी मौलिक अधिकार है. हाई कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के कई दूसरे फैसलों का भी जिक्र किया, जैसे लता सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (इसमें एक बालिग महिला के परिवार वालों ने दूसरी जाति के उसके पति को परेशान किया था और उस पर हमला किया था) और नवतेज सिंह जौहर और अन्य बनाम भारतीय संघ (इसमें बालिगों के बीच आम सहमति से सेक्सुअल संबंधों को डिक्रिमिनालाइज किया गया था और आईपीसी के सेक्शन 377 को आंशिक रूप से रद्द कर दिया था).
इसके अलावा हाई कोर्ट ने शफीन जहां बनाम अशोकन केएम और अन्य (मशहूर हादिया मामला) का उल्लेख भी किया था. मार्च 2018 के इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने आसान शब्दों में कहा था: “संविधान स्वतंत्रता और स्वायत्तता को मान्यता देता है जो प्रत्येक व्यक्ति को विरासत में मिली है. इसमें उन पहलुओं पर निर्णय लेने की क्षमता शामिल है जो किसी की व्यक्तित्व और पहचान को परिभाषित करते हैं. ... राज्य और कानून जीवनसाथी को चुनने के संबंध में हुक्म नहीं दे सकते, न ही इन मामलों को तय करने की किसी व्यक्ति की क्षमता को सीमित कर सकते हैं. ये संविधान के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मूल तत्व हैं. ... हमारी पसंद का सम्मान किया जाता है क्योंकि वे हमारी पसंद होते हैं. अंतरंग व्यक्तिगत निर्णयों के लिए सामाजिक स्वीकृति उनके मान्य होने का आधार नहीं हैं. वास्तव में, संविधान लोगों की नामंजूरियों से व्यक्तिगत आजादी की हिफाजत करता है.”
अब सवाल यह उठता है कि यह मुद्दा अदालत के समक्ष कैसे पेश हुआ? क्या हाई कोर्ट को हीबस कॉरपस के लिए दायर की गई याचिका में स्पेशल मैरिज ऐक्ट पर फैसला सुनाने का अधिकार है. यहां ये बताना जरूरी है कि रिट के आधार पर याचिकों का वितरण करना अदालतों का आंतरिक मामला है और संविधान में इसकी अपेक्षा नहीं की गई है. अनुच्छेद 226 हाई कोर्ट्स को व्यापक अधिकार देता है और इन अधिकारों का उपयोग विवेकाधीन होता है.सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि उसे अनुच्छेद 142 के तहत जो अधिकार मिले हुए हैं, उसके मुकाबले हाई कोर्ट्स के पास अनुच्छेद 226 के तहत व्यापक अधिकार हैं. सुप्रीम कोर्ट ने इस बात को भी मंजूर किया है कि हाई कोर्ट किसी याचिकाकर्ता के इस आरोप की सुनवाई कर सकता है कि उसके साथ अन्याय हुआ है, भले ही कोई वैकल्पिक उपाय मौजूद हो या न हो, या भले ही तथ्य संवैधानिक व्याख्याओं का मामला खड़ा करते हों.
इसी के मद्देनजर अगर हाई कोर्ट कानूनी बारीकियों के आधार पर व्यक्तिगत रूप से प्रभावित याचिकाकर्ताओं के संवैधानिक सवालों को निरस्त कर देगी तो यह अनुच्छेद 226 के आशय को ठेस पहुंचाएगा और ऐसी संवैधानिक अदालतों के अस्तित्व के लिए खतरा होगा.
अगर नजरिया इतना संकीर्ण होगा तो इसका नुकसान भी हो सकता है, जैसे गृह सचिव (कारागार) और अन्य बनाम एच. नीलोफर निशा मामले में हुआ था. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि कैदियों की समय से पहले रिहाई की मांग करने वाली हीबस कॉरपस रिट याचिका को दायर नहीं किया जा सकता, इसके बावजूद कि परिस्थितियां यह साबित करती हों कि उन्हें लगातार कैद में रखना कानून के तहत वैध नहीं है. अदालत ने हीबस कॉरपस के दायरे को सीमित किया था. यह व्यक्तिगत आजादी की रक्षा करने वाली सबसे पुरानी रिट है, जिसे एमसी सीतलवाड़ जैसे मशहूर ज्यूरिस्ट और पूर्व अटॉर्नी जनरल “आजादी के दरवाजे को खोलने वाली चाबी” कह चुके हैं.
इसके अलावा अदालत ने सजायाफ्ता कैदियों की हीबस कॉरपस की सभी लंबित याचिकाओं की भी रक्षा नहीं की. उसने देश भर के हाई कोर्ट्स में दायर उन सभी कैदियों की याचिकाओं को भी खारिज कर दिया जो चौबीस और उससे अधिक सालों से सजा काट रहे हैं.इस तरह इन कैदियों की लंबी कानूनी लड़ाई मानो अपने पहले चरण में पहुंच गई.
रिट याचिकाओं के क्षेत्राधिकार की सीमा को इस प्रकार तय करने का कितना नुकसान हो सकता है.
मौजूदा मामले में हाई कोर्ट ने पाया कि अधिकारों का साफ उल्लंघन हुआ है और यह कानून की व्याख्या का सवाल है. उसने महसूस किया कि संवैधानिक अदालत के रूप में उसे इसकी रक्षा करनी चाहिए या ‘पूरा न्याय’ देना चाहिए. चूंकि वह इसके काबिल है और यह उसका कर्तव्य भी है. उसने राज्य और संघ को नोटिस दिया और दलीलें भी सुनीं. अगर अदालतें याचिकाकर्ताओं की असली तकलीफें नहीं सुनतीं, उन्हें खारिज करती हैं तो वे उनके साथ धोखा करती हैं या लोगों के प्रति अपना कर्तव्य नहीं निभातीं. लेकिन सफिया सुल्ताना के मामले में हम कह सकते हैं कि हाई कोर्ट ने सुविधाजनक रास्ता अपनाने की बजाय अपना कर्तव्य निभाया और इससे हरेक व्यक्ति को फायदा होगा.
(श्रुति नारायण दिल्ली में एक प्रैक्टिसिंग एडवोकेट हैं. यह एक ओपनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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Published: 15 Jan 2021,05:04 PM IST