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श्रीलंका में घटनाक्रम तेजी से चल रहे हैं. आज मुख्य विपक्षी दल समागी जना बालवेगया (एसजेबी), तमिल पार्टी और पूर्व प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे की यूनाइटेड नेशनल पार्टी (यूएनपी) संयुक्त रूप से राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने जा रहे हैं. उधर हजारों लोग जरूरी सामानों की बढ़ती हुई कीमतों को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं. पर फिर भी यह दुनिया के लिए सुर्खियों की खबर नहीं है.
पहले इस देश की स्थिति और जनाक्रोश को देखते हए : "अरब विद्रोह" या "ऑरेंज रिवॉल्यूशन" जैसे अनुमानों लगाए गए थे, पर सत्तारूढ़ राजपक्षे बंधुओं को हटाने के लिए श्रीलंका का शांतिपूर्ण जन विद्रोह अब अंत की ओर बढ़ रहा है, यह खबर भी किसी के लिए सुर्खियां नहीं है. दिन हो रात, बारिश हो या धूप राजधानी कोलंबो के गाले फेस ग्रीन (जीएफसीजी) समुद्र तट पर तीन सप्ताह तक चलने वाला विरोध प्रदर्शन किसी चर्चा में नहीं है. यहां तक कि करीबी देश भारत में भी तीन से ज्यादा हफ्तों के दौरान श्रीलंका के अद्वितीय आर्थिक संकट को टीवी टॉक शो पर भी पर्याप्त जगह नहीं मिली है.
आज अगर सरकार एसजेबी के अविश्वास प्रस्ताव में हार जाती है तो प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे और कैबिनेट को भले ही इस्तीफा देना पड़े, पर सच्चाई यह है कि राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे और प्रधान मंत्री महिंदा राजपक्षे की आसन्न निकासी के लिए चले विरोध प्रदर्शन के बावजूद, न तो राजनीतिक विपक्ष और न ही 'जन आंदोलन' अपने सामूहिक लक्ष्य को प्राप्त करने के करीब आ पाए हैं. अब भी बहुत कुछ राष्ट्रपति गोटबाय राजपक्षे की इच्छा पर निर्भर है. श्रीलंकाई संविधान के अनुच्छेद 38 के तहत राष्ट्रपति को तभी हटाया जा सकता है जब उन्होंने स्वेच्छा से या महाभियोग की लंबी प्रक्रिया के बाद इस्तीफा दे दिया हो.
इस बीच, राजपक्षे बंधु आपस में एक-दूसरे पर हावी होने का खेल खेल रहे हैं. जिसमें महिंदा अब तक हर राउंड में टॉप पर रहे है.
पीएम और उनकी कैबिनेट को हटाने के लिए संसद को 225 सदस्यों के वोट की आवश्यकता होगी. कुछ मीडिया रिपोर्टों से पता चलता है कि यूनाइटेड पीपुल्स फोर्स पार्टी, वर्तमान में, 54 वोटों का योग कर सकती है, यह कहा गया है कि छोटे विपक्षी दल और सत्तारूढ़ श्रीलंका पीपुल्स फ्रंट पार्टी से दल-बदल अविश्वास प्रस्ताव में हाथ मिलाएंगे और प्रधानमंत्री वोट देंगे. यदि ऐसा हुआ तो यह भी दोनों भाइयों के शह मात के खेल में महिंदा का गोटबाया पर बड़ा दांव होगा.
इसके बावजूद भी अगर कोलंबो सड़कों पर होने वाले विरोध प्रदर्शनों से गुलजार है तो इसका कारण सत्तारूढ़ राजपक्षे के आसन्न निकास की मांग करने वाले जन आंदोलन नहीं हैं बल्कि यह मई दिवस समारोह के कारण हुआ जो अभी भी देश में एक बड़ा व प्रमुख आयोजन है.
राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री के रूप में राजपक्षे ने पारंपरिक तौर पर दिए जाने वाले मई दिवस के संदेशों को जारी करना बंद कर दिया है.न ही उन्होंने अपनी श्रीलंका पोदुजाना पेरामुना (एसएलपीपी) पार्टी द्वारा आयोजित एक भी रैली में हिस्सा लिया है. वरिष्ठ मंत्री दिनेश गुणवर्धने, जो संसद में सदन के नेता भी हैं, ने पार्टी की मई दिवस रैली को उनके (राजपक्षे के) स्थान पर संबोधित किया और इस बात की घोषणा की कि अभी भी पार्टी के पास संसदीय बहुमत है.
यह घोषणा तब भी की गई जबकि स्थानीय मीडिया रिपोर्टों में इससे एक दिन पहले ही दावा किया गया था कि पीएम महिंदा ने राष्ट्रपति गोटबाया से कहा है कि बाद वाले के पास एक नए प्रधान मंत्री के साथ एक वैकल्पिक सरकार बनाने की संवैधानिक शक्ति और अधिकार है - और वह निर्णय का सम्मान करेंगे.
जैसा कि अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने जो अनुमान लगाया था और कोलंबो के राजनयिक समुदाय ने संभवतः जो उम्मीद की थी. उसके विपरीत राजपक्षे विरोधी जन आंदोलन ने कोलंबो के दक्षिणपंथी, लिबरल, शहरी-मध्यम वर्ग के बाहर उस तरह से विरोध को प्रेरित नहीं किया. आसन्न हिंसा का भय, जिसे कभी-कभी कुछ राजनीतिक खिलाड़ियों द्वारा बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जाता रहा है, वह 'सिंहला साउथ' में भी धूमिल हो गया.
कोलंबो का मध्यम वर्ग वैसे भी एसएलपीपी के मूल संगठन, श्रीलंका फ्रीडम पार्टी (एसएलएफपी) द्वारा समर्थित समाजवादी मंच के खिलाफ रहा है. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि 2005 में महिंदा के पहली बार राष्ट्रपति बनने के बाद से वे लगातार राजपक्षे के विरोधी रहे हैं. इसका मतलब यह नहीं है कि राजपक्षे को शेष श्रीलंका का समर्थन प्राप्त है. लेकिन कहीं और जन आंदोलन के अभाव में, कोलंबो-केंद्रित जन-विद्रोह पहले जैसी स्थिति में आ गया है.
कारणों का पता लगाना मुश्किल नहीं है. एक ओर, एसजेबी विपक्ष दोनों राजपक्षों को बाहर करना चाहता है, लेकिन वह अविश्वास मत के माध्यम से संसद में उन्हें हराने के लिए नेतृत्व नहीं करेगा. उनके लिए उपलब्ध एकमात्र संवैधानिक जरिया यही है. लोकतंत्र की नई परिभाषाओं के रूप में जन विरोध, 'वापस लेने का अधिकार' जैसी बातें उत्साहजनक लगती हैं, लेकिन वे गूढ़ भी हैं और स्पष्ट रूप से कहने के लिए पहुंच से बाहर लगती हैं.
प्रधान मंत्री और उनकी टीम को सत्ता से हटाने के लिए एसजेबी के पास 225 सदस्यीय संसद में जरूरी 113 सांसदों में से केवल 54 हैं. राष्ट्रपति के महाभियोग के लिए दो-तिहाई बहुमत या 151 सांसदों की आवश्यकता होती है. आसान विकल्प के लिए उनके पास संख्या नहीं है, इसलिए मौजूदा स्थिति में महाभियोग का सवाल ही नहीं है.
पार्टी के विपक्ष के नेता साजिथ प्रेमदासा, जो 2019 के वर्तमान चुनावों में गोटबाया से हार गए थे, उन्होंने मई दिवस के अपने भाषण में एक बार फिर से इस बात को दोहराया है कि कि वे न तो लालची थे और न ही सत्ता हासिल करने की जल्दी में थे. पार्टी ऐसी स्थिति में नहीं रहना चाहती जहां कुत्ते की दुम लहरा रही हो. और जब टेल-एंडर्स की लंबी सूची वैचारिक रूप से विपरीत होती है तब यह विशेष रूप से सच होता है. जब देश की अनिश्चित अर्थव्यवस्था को उनकी सबसे ज्यादा जरूरत है तब वामपंथी झुकाव वाले दल धन और निवेश सहित पश्चिम की हर चीज से लड़ेंगे.
विपक्ष में से कुछ यह भी चाहते हैं कि राजपक्षे बाहर निकलने से पहले उनके द्वारा की गई आर्थिक गड़बड़ी को सुलझा दें ताकि विपक्ष लगभग साफ स्लेट के साथ शुरुआत कर सके. जब भी चुनाव हों, वे राष्ट्रपति और संसदीय दोनों चुनावों में जीतने के लिए आश्वस्त हैं.
इस वजह से अविश्वास प्रस्ताव लाने या इसे पारित कराने के लिए एसजेबी इच्छुक नहीं है. इसके बजाय, वे एक संवैधानिक संशोधन पर अपना ध्यान केंद्रित कर रहे हैं जो 2019 में राजपक्षे द्वारा बहाल की गई कई शक्तियों की कार्यकारी अध्यक्षता को छीन लेगा. अन्य विभिन्न दल, जैसे कि तमिल नेशनल एलायंस (TNA) और वामपंथी झुकाव वाली JVP पार्टी, जिनके पास संसद में क्रमशः 10 और तीन सदस्य है वे भी इसी पंक्ति का अनुसरण करते हैं. एसजेबी से जुड़ी छोटी पार्टियों के विचार लगभग एक जैसे हैं.
एसजेबी नेताओं ने वीकेंड में घोषणा की कि जब इस सप्ताह संसद का पुनर्गठन होगा तब वे राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री के खिलाफ अलग-अलग अविश्वास प्रस्ताव भी लाएंगे, यह मुख्य रूप से जनता की इच्छा का विरोध करने वालों को 'उजागर' करने के लिए है. यदि उनके पास संख्याएं नहीं हैं तो उनका 'नेमिंग-और-शेमिंग' का खेल काम नहीं करेगा. और यदि वे नई सरकार नहीं बनाने जा रहे हैं तो उनके पास संख्या भी नहीं होगी.
इसकी वजह से संसद को एक नए उपाध्यक्ष का चुनाव करना होगा क्योंकि तत्कालीन उपाध्यक्ष रंजीत सियाम्बलपतिया ने अपनी पार्टी के 40 सांसदों के साथ ने सरकार का साथ छोड़ दिया था और अपने पद से इस्तीफा दे दिया था. व्यवहारिक रूप से यह संख्या खेल को सुलझा सकती है. लेकिन यदि अविश्वास प्रस्ताव लाया जाता है तो इसे अन्य विधायी मामलों से ज्यादा तरजीह या महत्व दिया जाएगा, जिसकी वजह से काम में बाधा आएगी और देरी होगी.
देश में तेजी से फैले और बढ़े विकराल आर्थिक संकट से पहले राजपक्षे और उनके जैसे कई लोग, सभी एक जुट थे. अन्य सभी राजपक्षे, उन सभी में से सबसे विवादास्पद, तत्कालीन वित्त मंत्री बेसिल आर ने शेष मंत्रिमंडल के साथ आर्थिक संकट एक राजनीतिक मुद्दा बन जाने पर अपने पद से इस्तीफा दे दिया.
कथित तौर पर विचार का उद्देश्य यह था कि राष्ट्रपति गोतबाया को 'राष्ट्रीय सरकार' या एक सर्वदलीय अंतरिम सरकार नियुक्त करने की स्वतंत्रता दी जाए. ताकि नए प्रधान मंत्री के तहत नए संसदीय चुनाव लंबित हो जाएं. यदि ऐसा नहीं होता है तो 40 बागी या निर्दलीय सांसदों को सबसे ज्यादा नुकसान होगा, क्योंकि प्रधानमंत्री के रूप में महिंदा के पास संख्या होने पर उनमें से अधिकांश को अदालतों के जरिए से सांसदों के तौर पर अयोग्य घोषित किया जा सकता था.
महिंदा अपने छोटे भाई पर पूरे संकट के दौरान एक के बाद एक गुगली फेंकते रहे हैं, यद्यपि उन्हें उनके बिना एक नया मंत्रालय गठन करने की चुनौती दी गई थी. मई दिवस के अपने संबोधन में महिंदा ने गोटबाया को जाे संदेश दिया वह अपने आप में सबकुछ समेटे हुए है : 'अगर आप चाहें तो मुझे बर्खास्त कर दें, लेकिन मैं संसद में अपना बहुमत साबित कर दूंगा. यदि नहीं, तो मैं एसजेबी के साजिथ से नेता प्रतिपक्ष का पद छीन लूंगा और आपके लिए इसे कठिन बना दूंगा.'
संसदीय बहुमत वाली गैर-महिंदा सरकार के पास सामान्य तौर पर एसजेबी और साजिथ का समर्थन प्राप्त होना चाहिए. इसका मतलब यह होगा कि जब तक कि गोटाबाया आर्थिक संकट के कारण एक छोटी टीम बनाने के लिए सार्वजनिक प्रतिज्ञा को तोड़ने के लिए तैयार नहीं होते हैं तब तक गोटाबाया के पास उनके वफादार के रूप में केवल एक दर्जन सांसद होंगे.
महिंदा को बोर्ड में शामिल करने के इतने प्रयास इस वजह से किये जा रहे है क्योंकि इस प्रोजेक्ट में वह (अकेले) 'बलि का बकरा' का होंगे. और इसकी वजह से 40 'बागी', या उनमें से अधिकांश सांसद, दूसरे प्रधान मंत्री की सेवा के लिए वापस आ सकें. संसद में गोटा के पास एसएलपीपी का दो-तिहाई हिस्सा है.
इस सब में आम जनता के साथ-साथ देश की अर्थव्यवस्था सबसे बुरी तरह से प्रभावित हुई है. श्रीलंका आर्थिक तंगहाली के विलाप पर आर्थिक सहायता के लिए पहले से ही बहुत कम देशों ने जैसे कि पड़ोसी मुल्क भारत और 'दोस्त' चीन ने जवाब दिया है. श्रीलंका के आस-पास के जो इस्लामिक राष्ट्र कभी मदद की हाथ बढ़ाते थे वे भी संभवत: राजपक्षे की मुस्लिम विरोधी राजनीतिक-प्रशासनिक विरासत के कारण अप्रभावित रहे हैं. लेकिन इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि गार्ड ऑफ चेंज होने पर वे वापस आ जाएंगे.
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) ने पुनर्गठित ऋण भुगतान, कर प्रणाली और सामाजिक सुरक्षा पर सशर्त अपनी मंजूरी दे दी है. हालांकि, आईएमएफ, विश्व बैंक और पश्चिम सभी यह जानना चाहते हैं कि उन्हें सरकार में किससे बात करनी चाहिए और किससे नहीं. हालांकि अभी तक इस बारे में कोई स्पष्टता नहीं है.
वर्तमान स्थिति में आर्थिक दृष्टि से श्रीलंका एक 'बास्केट केस' है. देश को अपनी वर्तमान दुर्दशा जिसकी केवल छोटी और मध्यम अवधि के दौरान ही खराब होने की संभावना थी अब उसे उबरने में कम से कम एक दशक का समय लगने वाला है. वहीं राजनीतिक अनिश्चितता देश को अपनी प्राथमिकताओं के बारे में और भी ज्यादा कम-गंभीर बना रही है.
अब अगर सिंहल-बौद्ध पुजारी (जिसे 'महासंघ' या धर्माध्यक्षों का मंच कहा जाता है, या आप इसे जिस भी नाम से जानते हैं) राजनीतिक रूप से हस्तक्षेप करते हैं, तो यह अच्छे से ज्यादा नुकसान का कारण बनने वाला होगा. उन्होंने काफी पहले से प्रधान मंत्री महिंदा को पद छोड़ने का अल्टीमेटम जारी किया है, लेकिन इस पर अभी तक कार्रवाई नहीं की गई है. श्रीलंका की राजनीति और संविधान में धर्म की भूमिका से पहले ही देश के अल्पसंख्यक और 'अंतर्राष्ट्रीय समुदाय' (इसे पश्चिमी देश पढ़ा जाए) नाखुश हैं.
इसी एजेंडे के साथ एक दिन पहले ही राजधानी के इंडिपेंडेंस स्क्वायर पर भिक्षु अकेले एकत्र हुए थे. जो वहां जुटे थे उनमें से अधिकांश की पहचान 'राजपक्षे विरोधी' के रूप में की गई थी. वहीं बदले में चर्च ने अन्य प्रदर्शनकारियों के साथ समुद्र के किनारे की जगह भी प्रमुख रूप से मुसलमानों के साथ साझा की थी, जिन्होंने रमजान के उपवास के महीने में वहां अपनी प्रार्थना भी की थी.
एसजेबी और जेवीपी ने अपनी-अपनी मई दिवस की रैलियों में अंतरिम सरकार में शामिल नहीं होने के अपने संकल्प को दोहराया. जिसका संकेत एक दिन पहले कोलंबो में संघ सभा की बैठक से मिलता है. गोटबाया को सबसे अधिक 'बेहतर' बौद्ध के रूप में देखे जाने के बावजूद यह व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से राजपक्षे के लिए एक बहुत बड़ा संकेत है.
यह धमकी कि पुजारियों का "आशीर्वाद उसके बाद एक अभिशाप बन जाएगा" क्या भीड़तंत्र को इंगित करती है, जो मंत्रियों और सांसदों को इस्तीफा देने के लिए मजबूर करेगी? जिस दिन ऐसा होगा वह श्रीलंकाई लोकतंत्र के लिए और भी दुखद दिन होगा. संवैधानिक मानदंडों और संभावनाओं का सबसे अच्छा मध्यस्थ संसद के बाद सर्वोच्च न्यायालय है, लेकिन ऐसा लगता है कि राजपक्षे विरोधी नागरिक समाज सहित कोई भी इस रास्ते पर चलने का जोखिम उठाने के लिए तैयार नहीं है.
यह सब देश के सामने एक प्रश्न खड़ा करते हैं : आखिर क्यों विपक्ष ने (जिसमें एसजीबी प्रमुख रूप से शामिल है लेकिन राजपक्षे विरोधी अन्य ताकतों ने भी) ससंद के अंदर और बाहर बिना इसके परिणामों को समझे हंगामा खड़ा किया. और क्या होगा अगर मूल एसएलपीपी फिर से सत्ता में आ जाए जिसमें भले ही महिंदा प्रधान मंत्री नहीं होंगे लेकिन उनकी सहमति होगी. इससे सिर्फ गोटबाया को मजबूती मिलेगी. राजनीतिक मोर्चे पर इस मामले का सार यही है. लेकिन फिलहाल इसका कोई पुख्ता जवाब नहीं है. क्या कोई बाहर है जो इसे सुन रहा है?
(एन साथिया मूर्ति, लेखक एक नीति विश्लेषक और टिप्पणीकार हैं जोकि चेन्नई में रहते हैं. इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)
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