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स्टार्ट-अप इंडिया, स्टैैंड-अप इंडिया के विस्तृत आकाश तले देशभर के निवेशकों, नीति निर्माताओं का इकट्ठा होना एक बेहतरीन शुरुआत है. विज्ञान भवन में हाल ही में हुए समारोह ने इससे जुड़ी कई घोषणाएं की गईं.
सेल्फ सर्टिफिकेशन, स्टार्ट-अप हब बनाने की योजना, आसान रजिस्ट्रेशन या फंड ऑफ फंड बनाकर पब्लिक फंडिंग आदि की योजनाएं काफी महत्वपूर्ण थीं. ये सभी घोषणाएं जरूरी थीं. इससे मौजूदा स्थिति में सुधार आएगा, पर इसके बाद ढांचागत खामियों पर ध्यान देना बेहद जरूरी है.
मसलन, शिक्षा से जुड़ी खामियां. शिक्षा उस स्तर का कौशल दे सके, जो एक रचनात्मक पीढ़ी को तैयार करे. मानव संसाधन का तब तक सही उपयोग नहीं किया जा सकता, जब तक शिक्षा उसकी क्षमताओं को बढ़ा न दे.
इस दिशा में स्टार्ट-अप सेंटर खोलने का निर्णय लेकर एक अच्छा कदम उठाया गया है, लेकिन जरूरत कम उम्र से ही सही शिक्षा दिए जाने की है. एक स्टार्ट-अप नेशन को औपचारिक शिक्षा के शुरुआती सालों में ही मार्गदर्शन और शायद कौशल विकास की भी जरूरत होगी.
अगला मुद्दा लेबर कानून से जुड़ा है. एक तरफ जहां सरकार ने स्टार्ट-अप शुरू करने की प्रक्रिया को आसान बनाते हुए इसे तीन साल की रिलेक्सेशन विंडो दी है, वहीं इन तीन सालों के बाद भी काम करते रहने के लिए कठोर लेबर कानूनों को भी आसान करने की भी जरूरत है.
एक ऐसा कानूनी ढांचा तैयार करने की जरूरत है, जहां नियोक्ता और कर्मचारी दोनों के ही हित सुरक्षित रहें. इस तरह का ढांचा कैसे तैयार होगा, यह सरकार के नजरिए पर निर्भर करता है.
इसके बाद बारी आती है पूंजी की. सरकार ने अगले चार सालों में 2,500 करोड़ की क्षमता वाला फंड ऑफ फंड्स बनाने की घोषणा की है. भारत में निवेश करने वाले निवेशकों के लिए यहां फिर से दिक्कत पूंजी की नहीं, बल्कि उन आइडिया की गुणवत्ता की है, जिन पर उन्हें पूंजी लगानी है.
सरकार की भूमिका ऐसे लोगों की संख्या बढ़ाने की होनी चाहिए, जो कल की समस्याओं को सुलझाने की समझ रखते हैं, न कि लोगों को सिर्फ पूंजी मुहैया कराने की. पूंजी से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं विचार और उन्हें लागू करने का तरीका और स्तर.
अधिकतर भारतीय स्टार्ट-अप भारत की समस्याओं के बारे में सोचकर खड़े किए जाते हैं, न कि विश्व की समस्याओं के बारे में, इसीलिए स्तर की भी आवश्यकता है. सरकार को भारतीय कंपनियों का स्तर बढ़ाने पर भी ध्यान देना चाहिए.
आखिर में, स्टार्ट-अप इंडिया के सपने के बीच में आने वाली सबसे बड़ी समस्या है हमारे समाज की मानसिकता. दामाद या बहू के रूप में एक सरकारी (मुख्य रूप से नौकरशाह) अधिकारी न मिलने के दुख को हम बड़ी आईटी कंपनी में काम कर मोटी तनख्वाह उठाने वाले दामाद या बहू से कम करना चाहते हैं.
(इस आलेख को संकल्प शर्मा के साथ मिलकर लिखा गया है. संकल्प इंस्टीट्यूट ऑफ कंपीटिटिवनेस, इंडिया में रिसर्चर हैं व अमित कपूर उसके अध्यक्ष हैं.)
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Published: 20 Jan 2016,03:28 PM IST