मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019संडे व्यू : हिन्द या हिन्दी? हिंसा पर क्यों है चुप्पी?

संडे व्यू : हिन्द या हिन्दी? हिंसा पर क्यों है चुप्पी?

पढ़ें टीएन नाइनन, तवलीन सिंह, पुष्पेश पंत, शोभा डे, मुकुल केसवान सरीखे लेखकों के विचारों का सार.

क्विंट हिंदी
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>संडे व्यू : हिन्द या हिन्दी? हिंसा पर क्यों है चुप्पी?</p></div>
i

संडे व्यू : हिन्द या हिन्दी? हिंसा पर क्यों है चुप्पी?

Altered by Quint Hindi 

advertisement

आत्मनिर्भरता को समझने-समझाने की जरूरत

टीएन नाइनन ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि दुनिया में कोई अर्थव्यवस्था ऐसी नहीं है जो पूरी तरह अपने बलपूते पर आत्मनिर्भर हो और आत्मनिर्भर भारत वास्तव में आत्मनिर्भर नहीं है. नेहरू के दौर में जब आत्मनिर्भरता पर दौर दिया जा रहा था तब उसके चरम दौर में भारत मशीनरी से लेकर पूंजी और तकनीक से लेकर हथियार और यहां तक कि कलम भी आयात कर रहा था.आज भी रक्षा और अंतरिक्ष जगत की अधिकांश आत्मनिर्भर कही जाने वाली परियोजनाओं में ढेर सारी आयातित सामग्री इस्तेमाल की जाती है.

तेजस में जनरल इलेक्ट्रिक का इंजन है तो इसरो की वेबसाइट कहती है कि उसके उपग्रहों में 50-55 फीसदी आयातित सामग्री लगती है. देश का नाभिकीय ऊर्जा संयंत्र आयातित यूरेनियम पर निर्भर है जबकि जरूरत का 85 फीसदी कच्चा तेल हम आयात करते हैं.

नाइनन जानना चाहते हैं कि सामरिक आयात पर निर्भरता कम की जाए या रूस जैसे प्रतिबंधों का खतरा कम किया जाए? 1960 के दशक हरित क्रांति ने अमेरिका के दबाव से देश को निजात दिलायी थी. लेखक सवाल पूछते हैं कि पाकिस्तान अगर जेएएफ-17 लड़ाकू विमान चीन के साथ साझेदारी में बनाता है तो क्या इससे पाकिस्तान चीन पर कम या ज्यादा निर्भर हो जाएगा? क्या रक्षा उत्पादन में आत्मनिर्भरता को तब भी प्राथमिकता दी जानी चाहिए जब इसका मतलब आपूर्ति में देरी हो?

विनिर्माण को व्यवहार्य बनाया जाना चाहिए. घरेलू क्षमताएं विकसित करने की आवश्यकता है. यदि पांच साल तक सालाना 50 हजार करोड़ रुपये खर्च करके देश में विनिर्माण क्षमताएं तैयार की जा सकें तो यह बहुत छोटी कीमत होगी.

हिन्द या हिन्दी?

टेलीग्राफ में मुकुल केसवान लिखते हैं कि हिन्दी अलग-अलग तरीके से चर्चा में है. अमित शाह ने संसदीय आधिकारिक भाषा समिति से कहा कि क्षेत्रीय भाषाओं वाले राज्यों में वैकल्पिक भाषा अंग्रेजी न होकर हिन्दी होना चाहिए. अजय देवगन ने एक इंटरव्यू में जोर देकर कहा कि हिन्दी हमारी मातृभाषा और हमारी राष्ट्रीय भाषा थी और रहेगी.

उत्तर प्रदेश के मत्स्य मंत्री संजय निषाद ने कहा कि जो हिन्दी नहीं बोलते उनके लिए हिन्दुस्तान में कोई जगह नहीं है. उन्हें देश छोड़ देना चाहिए और कहीं और चले जाना चाहिए. इन तीनों उदाहरणों में बहुभाषी देश को एक राष्ट्रीय भाषा से जोड़ने की बेचैनी दिख रही है.

मुकुल केसवान लिखते हैं कि ज्यादातर यूरोपीय देशों में एक भाषा का प्रभाव दिखता है. जैसे, फ्रांस में फ्रेंच, इंग्लैंड में इंग्लिश, स्पेन में स्पैनिश. इंग्लैंड और फ्रांस में अल्पसंख्यक भाषाओं का दमन किया गया. भाषाओं की बहुलता को देश तोड़ने वाली स्थिति समझा गया. बाबेल की मीनार वाली कहानी में यह बेचैनी झलकती है.

कहा गया कि शुरुआत में धरती पर एक ही भाषा थी. जब दुनिया मलबों में बदल गयी और मीनार बनाने की कोशिश हुई ताकि स्वर्ग तक पहुंचा जाए तो ईश्वर ने हस्तक्षेप किया. अलग-अलग भाषाओं के साथ उन्हें दुनिया में बिखेर दिया गया ताकि वे एक-दूसरे की भाषा न समझ पाएं और वे स्वयं मीनार बनाने में जुट गये.

कांग्रेस गांधी का आभार मानती है जिन्होंने पार्टी से भाषा के आधार पर क्षेत्रों को जोड़ा. लेकिन, नवगणतंत्र में शासन ने एक भाषा का अनुशासन समझाने की कोशिश की. हिन्दी को भारत की राष्ट्रीय भाषा या राष्ट्र भाषा बनाने की कोशिश हुई.

नेहरू ने भी हिन्दी को देश जोड़ने वाली भाषा के तौर पर देखा. लेकिन, जब दक्षिण से तीव्र प्रतिरोध हुआ तो इस मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया. भारतीय जन संघ का राष्ट्रीय मकसद यूरोपीय देशों की तर्ज पर देश में एक भाषा की वकालत रहा. हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान नारा बना.

हिन्दी पट्टी में अपनी पकड़ बनाने के लिए एक बार फिर इस विचार का इस्तेमाल किया जा रहा है. आम तौर पर हिन्दी भाषियों की यह समझ है कि भारतीय संविधान में हिन्दी को राष्ट्रभाषा माना गया है. आज यूरोपीयन यूनियन में भी 24 आधिकारिक भाषाएं और तीन कामकाजी भाषाएं हैं- इंग्लिश, जर्मन और फ्रेंच. ऐसे में देशभक्ति और एकता के नाम पर गलत पाठ पढ़ाया जा रहा है.

खौफ का जहरीला वातावरण

डेक्कन क्रोनिकल में शोभा डे लिखती हैं कि भीषण लू का महीना रहा अप्रैल. इसी गर्मी में मुसलमानों ने रोजा रखा और शांति के लिए नमाज पढ़ीं. एक घनिष्ठ दंपती इसी महीने अस्पताल में जिन्दगी से जंग लड़कर लौटा-

“अल्लाह का शुक्र है कि हम जिन्दा हैं.” उनके लिए समर्पित बच्चों ने एक क्षण भी साथ नहीं छोड़ा. डिनर पर उनकी व्यथा सुनकर आंखों में आंसू आ गये. टेबल पर बैठे एक व्यक्ति ने कहा,“ ओह...आपके सारे मित्र प्रबुद्ध मुस्लिम हैं. मेरी समस्या ‘अन्य’ मुसलमानों से है.” लेखिका की आंखों में तेवर देखते हुए उसने प्रतिक्रिया में थोड़ा रद्दोबदल तो किया, लेकिन भाव नहीं बदले.
ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

शोभा डे लिखती हैं कि एक अमेरिकी पासपोर्ट वाले व्यक्ति ने टिप्पणी की, “भारत के मुसलमान ऐसा व्यवहार दिखलाते हैं जैसे वे भारत के हैं ही नहीं..” क्या उसने कोई सर्वे किया था? एक मुसलमान से जिसका देश भारत है, पूछा जा रहा था कि यह उसका देश है या नहीं? बहस तीखी हो चुकी थी.

लेखिका ने उन्हें याद दिलाया कि कुछ समय पहले जब सुबह 6.30 बजे जरूरत के वक्त अस्पताल पहुंचाना था तो यही मुस्लिम व्यक्ति काम आया था. तब उसका जवाब था कि वह घटना अपवाद की तरह थी. उसने कहना जारी रखा, “सभी मुस्लिम आतंकी नहीं होते लेकिन सभी आतंकी मुस्लिम जरूर होते हैं.” उसी दिन लेखिका ने गैर प्रबुद्ध मुस्लिम से बातचीत की. उसकी बेटी को बुरे दिन देखने पड़े थे. प्रतियोगिता परीक्षा के समय बुर्का विवाद. एक-एक पैसा जुटाकर बड़ी मुश्किल से पढ़ाया था.

लेखिका लिखती हैं कि उन्हें भी पाकिस्तानी एजेंट कहा जाता है और पाकिस्तानी नेताओँ के पे रोल पर होने की बात कही जाती है. ‘ईद मुबारक’ लिखने पर ट्रोल किया जाता है जबकि हैप्पी दिवाली, मैरी क्रिसमस लिखने पर ऐसा कुछ नहीं होता.

सोशल मीडिया पर सुनने को मिलता है कि हम बहुमत में हैं. भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित करना चाहिए. फिर मुस्लिम तय करें कि क्या करें- रहें या जाएं. ऐसे लोग मुसलमानों को हिंसक मानते हैं. कहते हैं कि हिन्दू कभी पहले हिंसा नहीं करता, केवल जवाब देता है.

लेखिका ने अनुभव साझा किया कि किसी ने उनकी बेटी से पूछा कि क्या तुम्हारी मां तुम्हें किसी मुस्लिम से शादी करने की इजाजत देगी? यह सवाल इस रूप में क्यों नहीं हुआ कि क्या तुम्हारी मां तुम्हें किसी एलिएयन से या कि सी सिख से शादी करने की इजाजत देगी? एक अन्य स्वघोषित विद्वान ने कहा- उत्तर प्रदेश में मुसलमानों को मजबूत और स्पष्ट संदेश दे दिया है- सुधर जाओ या फिर.... अंत में लेखिका लिखती हैं कि इतिहास की किताबों को दोबारा लिखना आसान है लेकिन संस्कृति को दोबारा लिखना कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण है.

श्यानमेन चौक की याद दिलाते हैं बुल्डोजर

न्यू इंडियन एक्सप्रेस में पुष्पेश पंत ने लिखा है कि अक्सर भूकंप के बड़े झटके के बाद रह-रह कर आने वाले छोटे-छोटे झटके अधिक खौफ पैदा करते हैं. ठीक ऐसे ही हिंसक प्रदर्शन और उत्तेजक नफरती भाषणों से दो समुदायों के बीच का विवाद लगातार खौफनाक होता जा रहा है. सत्ता या विपक्ष के नेताओं-कार्यकर्ताओं के लिए यह कहकर बच निकलना मुश्किल है कि उन्हें गलत उद्धृत किया जा रहा है.

दंगों को सख्ती से रोका जाना चाहिए लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि सामान्य प्रोटोकॉल की भी प्रशासन परवाह ना करे. ऐसा लगा नहीं कि दंगों को रोकना सरकार की प्राथमिकता है. महसूस हुआ जैसे कड़ा दंड देने के लिए सरकार प्रतिबद्ध है.

पुष्पेश पंत लिखते हैं कि जाति और धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण के बीच ड्रैकोनियन लॉ के तहत अब सिर्फ संदेह के आधार पर लोगों को हिरासत में लिया जाने लगा है. हिरासत में लिए गये लोगों को सुप्रीम कोर्ट तक से राहत मिलती नहीं दिख रही है. वे सालों से जेलों में बंद हैं. जब से बुल्डोजर का अवतरण हुआ है दंगाई होने के शक में कोई भी निशाने पर आ सकता है. उत्तर प्रदेश में यह अभ्यास में शामिल हो चुका है.

अवैध निर्माण गिराया जाना इसका हिस्सा हो चुका है. दिल्ली के जहांगीरपुरी में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद अतिक्रमण हटाया जाना रुका नहीं. वृंदा करात ने बुल्डोजर के सामने खड़ी होकर इसे रोका. आखिर ऐसे अतिक्रमण खड़े होने ही क्यों दिए गये? कैसे ये सालों साल अतिक्रमण बने रहे? अगर इसमें अधिकारियों की मिली भगत थी तो वे सजा से कैसे बचे हुए हैं?

लेखक बताते हैं कि 2022 में बुल्डोजर के उपयोग से 1989 में चीन के बीजिंग में श्यानमेन चौक की घटना की याद हो आती है. तब प्रदर्शनकारियों के मन में खौफ पैदा करना मकसद था और आज भी निर्दोष पीड़ितों के मन में खौफ पैदा किया जा रहा है. भारत के प्रधान न्यायाधीश ने लक्ष्मण रेखा नहीं लांघने के लिए आगाह किया है. लेकिन, सवाल है कि किसने लांघी है लक्ष्मण रेखा?

हिंसा पर चुप्पी तोड़ो

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि कभी वह मोदीभक्त हुआ करती थीं. उसमें कमी तब आयी जब मोहम्मद अखलाक को उसके घर के अंदर से घसीटकर पीट-पीट कर मारा गया. मोदीभक्ति में यह मानते हुए कि अखलाक की हत्या गलतफहमी के कारण हुई है लेखिका दिल्ली स्थित संघ मुख्यालय पहुंच गयीं. उन्होंने इस घटना का जिक्र किया इस उम्मीद में कि संघ के आला अधिकारी कुछ आंसू गिराएंगे, लेकिन उन्होंने चुपके से कहा, “हिन्दू कम से कम अब मारने तो लगे हैं. पहले मरते थे, लेकिन मारते नहीं थे.” तब लेखिका को यह बात याद आयी कि आरएसएस के सदस्य और उस संस्था के करोड़ों समर्थक मानते आए हैं कि हिन्दु बुजदिल हैं और कभी लड़ नहीं सकते.

तवलीन सिंह संघ के लोगों को लता मंगेशकर का गाना याद कर लेने को कहती हैं- कोई सिख, कोई जाट, मराठा, कोई गोरखा कोई मदरासी’. क्या ये सभी मुसलमान थे? कायरता की पहचान है भीड़ इकट्ठा कर निहत्थे को जान से मारना. ऐसे कायरों को संरक्षण मिलना ही समस्या है. पिछले दिनों जो हिंसा हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच हिंसा भड़की है उसकी अभी तक खुलकर प्रधानमंत्री ने निंदा तक नहीं की है.

लेखिका का मानना है कि गुजरात के दंगे में नरेंद्र मोदी को जरूरत से ज्यादा बदनामी झेलनी पड़ी थी. उस दंगे में दिल्ली के सिख दंगे की तरह नरसंहार नहीं हुआ था. न ही कभी नरेंद्र मोदी को किसी जांच में दोषी ठहराया गया. तवलीन सिंह लिखती हैं कि पिछले हफ्ते मुसलमानों का जनसंहार करवाने का इल्जाम उन पर दो जानी-मानी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओँ ने लगाया है और बुल्डोजर नीति की दुनिया भर में चर्चा है.

उनकी तुलना हिटलर से होने लगी है जिसने यहूदियों का नरसंहार से पहले उनकी दुकानें, उनके रोजगार के साधन, उनके उपासनागृहों पर पाबंदियां लगायी थीं. आरोप बेबुनियाद नहीं है. लेखिका सवाल करती हैं कि प्रधानमंत्री के मुंह से अभी तक निंदा के दो शब्द क्यों नहीं सुनने को मिले हैं? क्या वे अपने आपको एक तानाशाह के रूप में देखा जाना पसंद करेंगे?

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: undefined

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT