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संडे व्यू : डर जहरीली जुबान से, बिहार से तय होगी राष्ट्रीय राजनीति

संडे व्यू में पढ़ें देश की अर्थव्यवस्था से लेकर राजनीति और खेल पर देश के चुनिंदा अखबारों के लेख

क्विंट हिंदी
नजरिया
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संडे व्यू में पढ़ें देश के चुनिंदा अखबारों के बेस्ट आर्टिकल
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संडे व्यू में पढ़ें देश के चुनिंदा अखबारों के बेस्ट आर्टिकल
फोटो: द क्विंट

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डर नफरती जुबान से भी, सरकार से भी

प्रताप भानु मेहता ने इंडियन एक्सप्रेस में सुदर्शन टीवी पर हेट कंटेंट यानी नफरत फैलाने वाली सामग्री के प्रसारण को लेकर लिखा है कि आने वाले दिनों में लोकतंत्र और आजादी दोनों के लिए अंधेरा ही अंधेरा है. सरकार को डर है कि अगर उसके पास अभिव्यक्ति को नियंत्रित करने की ताकत नहीं रही तो साप्रदायिक और बगावत का जहर पूरे समाज में फैल जाएगा.

वास्तव में नफरत और हिंसा के बहाने सरकार उदारता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का उल्लंघन कर रही है. उदारवादियों को कतई यह विश्वास नहीं हो सकता कि गणतंत्र की रक्षा के नाम पर सरकार को यह सब करने की इजाजत दी जाए और जब जरूरत पड़े सरकार उदारवादियों पर ही असंतोष की गाज गिरा दे.

प्रताप भानु लिखते हैं कि हेट स्पीच और इसके राजनीतिक दुष्परिणाम दोनों का खतरा बढ़ा है. कही रवांडा जैसी स्थिति न पैदा हो जाए जहां संचार माध्यमों का इस्तेमाल समुदाय विशेष के खिलाफ हो रहा है. दूसरी ओर अधिनायकवाद का दायरा और भी बड़ा है. वे लिखते हैं कि 50 के दशक में हमें सिर्फ नफरत से डर लगता था, आज नफरत से भी डर लगता है, सरकार से भी.

सुदर्शन टीवी का मसला भी बुनियादी रूप से राजनीतिक है और इसे कानूनी तरीके से हल नहीं किया जा सकता. व्यापक तौर पर सारा खेल उदारवादियों पर अपनी पकड़ मजबूत करने का है. संदेश यह निकाला जा रहा है कि आज़ाद अभिव्यक्ति में किसी को विश्वास नहीं है. कौन कैसी अभिव्यक्ति की आजादी चाहता है इस बहस के बहाने सरकार खुद नियामक बनने में जुटी है. इस बारे में संस्थाएं और नियम-कानून पहले से हैं जिनके फेल होने पर ही यह समस्या पैदा हुई है. एक और कानून या नियामक बन जाने से यह समस्या हल नहीं हो सकती. मेहता ब्रॉडकास्ट मीडिया और सोशल मीडिया के राजनीतिक अर्थशास्त्र की ओर भी ध्यान दिलाते हैं और कहते हैं कि आज़ाद अभिव्यक्ति यहीं से तय होगी.

भारत को बहुत पीछे छोड़ चुका है चीन

टीए नाइनन बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखते हैं कि विदेश मंत्री एस जयशंकर का दावा कि भारत-चीन वार्ताएं इस बात के लिए है कि हम आगे बढ़ रहे हैं और महाशक्तियों में गिने जाने वाले हैं, वास्तव में सच्चाई से परे है. समांतर कालखंड में चीन ने भारत को हर मोर्चे पर पीछे छोड़ दिया है और असंतुलन लगातार बढ़ता जा रहा है. चीन अब बीते दौर की महाशक्ति को चुनौती दे रहा है और भारत को चुनौती महसूस हो रही है.

नाइनन उस संयुक्त बयान की याद दिलाते हैं जो मनमोहन सिंह और वेन जियाबाओ ने जारी किए थे, “दुनिया में इतनी गुंजाइश तो है ही कि चीन और भारत दोनों विकास कर सकें,, और इतने अवसर तो हैं ही कि दोनों देश सहयोग कर सकें.”

सेवानिवृत्त राजनयिक राजीव डोगरा की किताब इंडियाज वर्ल्ड : हाउ प्राइम मिनिस्टर शेप्ड फॉरेन पॉलिसी के हवाले से लिखते हैं कि चीनी राष्ट्रपति लिउ शाओ ने श्रीलंकाई राजनयिक को कहा था कि 1962 का युद्ध ‘भारत की अकड़ और उसकी शान के मुगालते’ को तोड़ने के लिए है. वे लिखते हैं कि एक बार फिर अमित शाह के संसद में दिए गये बयान पर गौर करने की जरूरत है- “जब भी मैं जम्मू-कश्मीर और पीओके की बात करता हूं तो उसमें अकसाई चिन की बात भी शामिल होती है. हम उसके लिए जान भी दे देंगे.” चीन फिर इसमें भारत की ‘अकड़’ देख सकता है.

नाइनन लिखते हैं कि कंजूसी वाले बजट से मजबूत सेना नहीं बन सकती. मैनुफैक्चरिंग की ताकत और तकनीकी क्षमता बढ़ाने की जरूरत है. मानव विकास संकेतक, प्रति व्यक्ति आय जैसे आंकडो में नीचे के पायदान पर खड़े होकर आगे नहीं बढ़ा जा सकता है. काल्पनिक नहीं वास्तविक महाशक्ति बनने के लिए जागने का समय आ गया है.

खतरनाक हैं गैरजिम्मेदाराना बोल

विनीता डावरा नांगिया टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखती हैं कि मुश्किल घड़ी में मजबूत चरित्र के लोग एकजुट होते हैं और बाकी टूट जाते हैं. गैरजिम्मेदाराना बयानबाजी निराशाजनक है. अक्सर कही गयी बात गलत नहीं होती, उसके बोलने का अंदाज गलत होता है. जहां जरूरत होती है वहां हम नहीं बोलते, चुप रह जाते हैं. वहीं छोटे-मोटे मुद्दे पर बहुत ज्यादा और बहुत तेज बोलने लग जाते हैं. कंगना रनावत और जया बच्चन का उदाहरण सटीक है. कंगना न्याय के लिए खड़ी हुई हैं लेकिन फिल्म इंडस्ट्री के लिए निजी खुन्नस नहीं छोड़ पा रही हैं.

विनीता डावरा नांगिया लिखती हैं कि सुशांत सिंह राजपूत केस का मूल मुद्दा ही पीछे चला गया है. इसी तरह महिला को ‘हरामखोर’ बताया जाना उनका अपमान करना और उन्हें नीचा दिखाना बिल्कुल गलत है.

मीडिया उन मुद्दों को नजरअंदाज कर रही है जो वक्त की जरूरत है. जुबानी जंग से संस्कार नष्ट होते हैं और गलत प्रतिमान बनते हैं. अनियंत्रित, गैर जिम्मदाराना बयान आज दुनिया को बर्बाद करने के हथियार बनकर सामने खड़े हैं. व्यवहार बदलने और जिम्मेदार बनने में दशकों लग जाते हैं. हमें गाली-गलौच और अपशब्दों के खिलाफ उठ खड़ा होना चाहिए. हमें अधिक जिम्मेदार होने की जरूरत है.

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बिहार से तय होगा किस दिशा में करवट लेगी राष्ट्रीय राजनीति

चाणक्य हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखते हैं कि बिहार विधानसभा चुनाव आम तौर पर राष्ट्रीय राजनीतिक रुझान को बताता आया है. 1990 के दशक में लालू प्रसाद के वर्चस्व ने राष्ट्रीय स्तर पर ओबीसी और सामाजिक न्याय की राजनीति को स्थापित किया था.

वहीं 2005 में लालू-राबड़ी की सरकार को हराकर नीतीश कुमार ने यह स्थापित किया था कि खास तरह की पहचान और सियासत की भी एक सीमा होती है. ओबीसी, दलित या मुसलमानों के भीतर वंचित तबके को साथ लेकर, जिनमें महादलित या पसमंदा मुसलमान शामिल थे, नीतीश ने अलग किस्म की राजनीति खड़ी की. राष्ट्रीय स्तर पर भी इसका असर देखा गया. 2010 में भी वे एऩडीए के साथ रहते हुए दोबारा मुख्यमंत्री बने.

चाणक्य बताते हैं कि 2015 में अलग किस्म का राजनीतिक वास्तुशिल्प देखने को मिला. नरेंद्र मोदी की राष्ट्रव्यापी लोकप्रियता के बीच लालू प्रसाद और नीतीश के गठबंधन ने साबित किया कि क्षेत्रीय स्तर पर गठबंधन जातिगत बाधाओं को तोड़कर बनाया जा सकता है और राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय आकांक्षाएं अलग-अलग हो सकती हैं. 2020 में नीतीश एनडीए में हैं और लालू प्रसाद जेल में. आम चुनाव में एनडीए ने 40 में से 39 सीटें हासिल कर ली थी.

बिहार विधानसभा चुनाव कोविड महामारी के साये में हो रहा है. क्या आम लोगों तक राजनीति पहुंच सकेगी? क्या डिजिटल आधारित राजनीति स्थापित होने वाली है? पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, असम, केरल और पुद्दुचेरी में भी विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. प्रवासी मजदूरों में जो असंतोष है वह कैसे व्यक्त होता है यह भी महत्वपूर्ण है. महामारी में नीतीश की भूमिका से लोग हताश हैं लेकिन विपक्ष से भी बहुत उम्मीद नहीं है.

केंद्र ने तोड़ा वादा तो प्रदेशों पर गिरेगी गाज

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि महामारी के बीच जीएसटी बहुत कष्ट देने लगा है. बड़प्पन दिखाने के बजाए केंद्र सरकार का व्यवहार प्रांतीय सरकारों के लिए कष्ट का कारण है. मदद करने के बजाए केंद्र सरकार प्रांतीय सरकारों से सहयोग की उम्मीद कर रहा है. केंद्र सरकार उधार ले सकती है, उधार का ब्याज दर न्यूनतम कर सकती है. वह आरबीआई से लाभांश के तौर पर मुनाफा वसूलने की भी हकदार है. इसके अलावा केंद्र अपने घाटे का मौद्रीकरण भी कर सकता है यानी नोट छाप सकता है.

चिदंबरम लिखते हैं कि केंद्र सरकार को जो सहूलियतें हैं वह प्रांतीय सरकारों को नहीं हैं. ऐसे में भरोसे के आधार पर जिस जीएसटी व्यवस्था की शुरुआत की गयी थी उसे बनाए रखना केंद्र की जिम्मेदारी होनी चाहिए. प्रांतीय सरकारों को भरोसा दिलाया गया था कि जीएसटी लागू होने के बाद उनकी आमदनी बढ़ेगी.

अगर 14 फीसदी के हिसाब से सालाना राजस्व नहीं बढ़ता है तो उसकी भरपाई केद्र सरकार करेगी. अगर इसके लिए कोष में कमी होती है तो इसका इंतजाम किसी और तरीके से किया जाना चाहिए. लेखक केंद्र सरकार की ओर से प्रांतीय सरकारों को सुझाए गये दोनों विकल्पों को धोखा बताते हैं. वे सवाल उठाते हैं कि क्या केंद्र अपनी जिम्मेदारी पूरी करेगा या कि राज्यों को उनकी हालत पर छोड़ देगा?

उदघाटन मैच में 8वीं बार हारी मुंबई इंडियन्स

इंडिया टुडे में अक्षय रमेश ने लिखा है कि अबू धाबी के शेख जायद स्टेडियम में आईपीएल 2020 के उद्घाटन मैच में हारने के साथ ही टी-20 मैच में आठवीं बार मुंबई इंडियन्स ने उद्घाटन मैच हारने का कीर्तिमान बनाया है. यह सिलसिला 2013 से जारी है. चेन्नई सुपर किंग्स के हाथों यह उसकी दूसरी हार है. पांच बार हारने के बाद सीएसके ने मुंबई इंडियन्स को मात दी है. आईपीएल में 2014 के बाद से मध्यपूर्व में छठी और यूएई में चौथी हार है.

रमेश लिखते हैं कि सीएसके के कप्तान के तौर पर आईपीएल में महेंद्र सिंह धोनी की यह 100वीं जीत है. विश्व कप के बाद पहली बार धोनी क्रिकेट के मैदान पर दिखे. टॉस जीतने के बाद एमएस धोनी ने क्षेत्ररक्षण चुना.

रोहित की टीम ने अच्छी शुरुआत की मगर लगातार विकेट गिरने का फायदा सीएसके को हुआ. सौरभतिवारी ने 31 गेंदों पर 42 रन बनाए. वहीं 163 रनों पर मुंबई इंडियन को समेटने के बाद सीएसके का ऑलराउंड प्रदर्शन दिखा. सीएसके अगला मैच राजस्थान रॉयल्स के साथ मंगलवार को और मुंबई इंडियन्स कोलकाता नाइट राइडर्स के साथ बुधवार को अपना अगला मुकाबला खेलेगी.

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Published: 20 Sep 2020,08:56 AM IST

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