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संडे व्यू : हमास का खात्मा चाहता है इजरायल, लेकिन गाजा के नागरिकों से क्रूरता क्यों?

पढ़ें भारत में इजराइली राजदूत नाओर गिलोन के विचार, साथ में युद्ध देखकर लौटीं बरखा दत्त और नियमित स्तंभकार तवलीन सिंह, टीएन नाइनन और पी चिदंबरम के विचारों का सार.

क्विंट हिंदी
नजरिया
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<div class="paragraphs"><p>संडे व्यू : हमास का खात्मा चाहता है इजरायल, गाजा के नागरिकों से क्रूरता क्यों? </p></div>
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संडे व्यू : हमास का खात्मा चाहता है इजरायल, गाजा के नागरिकों से क्रूरता क्यों?

(फोटो: क्विंट हिंदी)

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'हमास का खात्मा चाहता है इजरायल'

हिन्दुस्तान टाइम्स में भारत में इजरायल के राजदूत नाओर गिलोन ने लिखा है कि भारी मन से उन्हें लिखना पड़ रहा है कि 7 अक्टूबर का बर्बर हमला ईरान समर्थित हमास ने किया था. इस हमले ने यह दोहराया है कि यह संगठन इजरायल ही नहीं पूरे पश्चिम एशिया और इससे भी आगे कितना बड़ा खतरा है. घोर धार्मिक चरमपंथी हमास हिंसक तरीकों से न केवल इजरायल का विनाश चाहता है बल्कि उन सरकारों को अस्थिर करना चाहता है जो सह अस्तित्व और शांति चाहते हैं. हम ऐसे स्पष्ट खतरे के सामने निष्क्रिय खड़े रहने का जोखिम नहीं उठा सकते.

नाओर गिलोन लिखते हैं...

"इंडिया मिडिल ईस्ट यूरोप इकॉनोमिक कोरिडोर (IMEC) और I2U2 जैसी शांति परियोजनाओं के लिए भी हमास चुनौती है, जिसमें भारत भी शामिल है. अब्राहमिक अकोर्ड के लिए भी यह खतरा है. मिस्र के राष्ट्रपति अनवर सादात के बारे में सोचें, जिनकी हत्या इसलिए कर दी गयी क्योंकि उन्होंने इजरायल के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सही कहा है, “आतंकवाद किसी राष्ट्र के लिए चुनौती नहीं है, यह मानवता के लिए चुनौती है.”

गिलोन ने लिखा है कि हम दुनिया से यह नहीं कह रहे कि वे हमारे लिए लड़ें. हम दुनिया से बस इतना चाहते हैं कि वे हमारे पक्ष में रहें. आत्मरक्षा के अपने अधिकार को पहचानें और याद रखें कि इजरायल एक क्रूर आतंकवादी संगठन से लड़ रहा है, जो अपने नागरिकों के पीछे, अस्पतालों और स्कूलों में छिपा है. एक संगठन जो चर्चों और मस्जिदों से रॉकेट दागता है. अपनी क्रूरता से असहमत मुसलमान तक को भी वह मार डालेगा. अगर हमास को खत्म नहीं किया गया तो यह इतिहास संभवत: खुद को दोहराएगा.

'हमास क्रूर मगर गाजा के नागरिकों से क्रूरता क्यों?'

बरखा दत्त ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि इजरायल-हमास संघर्ष की अग्रिम पंक्ति को 9 दिन कवर करने के बाद भारत लौट रही हूं. चकित हूं कि गोलमोल बातें की जा रही हैं, एक पक्षीय और अतिवादी रुख अपनाए जा रहे हैं. भारत जैसे देश में जहां पश्चिम एशिया के तनाव का सीधा असर हम पर नहीं पड़ रहा है, सोशल मीडिया ऐसी अज्ञानता, अनुदारता और पागलपन को बढ़ावा दे रहा है, जो अतार्किक और असभ्य है.

बरखा लिखती हैं कि हमास ने इजराइली नागरिकों के घरों को तहस-नहस कर दिया, परिवार के परिवार जिंदा जला दिए, खाट में सोते बच्चों को गोली मार दी- यह आतंकवाद का भयानक चेहरा है. इजरायल को भी जवाबी कार्रवाई का पूर्ण अधिकार है लेकिन, आवश्यकता इस बात की भी है कि सैकड़ों-हजारों असहाय और अभागे गाजान नागरिकों को क्रूरतापूर्वक दंडित नहीं करने वाले बेहतर आतंकवाद विरोधी प्रतिक्रिया दी जाए.

"अगर आपको हमास ने जो किया, उसे तर्कसंगत बनाने, व्याख्या करने, उचित ठहराने या योग्य ठहराने की आवश्यकता महसूस होती है या दूसरी ओर गाजा में भयानक सामूहिक पीड़ा का दुख महसूस नहीं होता है तो हमें आपसे सहानुभूति है. दुर्भाग्य से शोर, कट्टरता, असभ्यता और असहिष्णुता ने सार्वजनिक बहस के लिए सभी उचित स्थान पर कब्जा कर लिया है."

बरखा ने लिखा है कि हमास फिलीस्तीन नहीं है और इजरायल बेंजामिन नेतन्याहू नहीं है. इजरायल दुख और गुस्से में एकजुट है लेकिन प्रधानमंत्री के प्रति अपनी घोर अलवमानना में भी जिनके बारे में उनका मानना है कि उन्होंने देश को इस स्थिति में पहुंचाया. गाजा में बढ़ती मौतें वास्तव में विनाशकारी हैं. सबसे भयावह छवि एक पत्रकार वेल डाहडो की है जिसका पूरा परिवार इजराइली हवाई हमले में मारा गया. वह अपन बेटे के शव को गोद में लिए हुए था और आंसुओं के माध्यम से दुनिया को याद दिला रहा ता कि उसका बेटा भी रिपोर्टर बनना चाहता था.

'मुश्किल दौर के लिए अलग नीति हो'

टीएन नाइनन ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि विकसित देशो में मुद्रास्फीति का लक्ष्य दो फीसदी का है. मगर, अमेरिका में यह 3.7 फीसदी, यूरो देशों में 5.6 फीसदी, ब्रिटेन में 6.8 फीसदी और जापान में 2.9 फीसदी है. विकास दर शून्य हो चुके जर्मनी में मुद्रास्फीति 4.3 फीसदी है. भारत में मुद्रास्फीति की दर 5 फीसदी है.

मुद्रास्फीति को लक्षित करना केवल तभी कारगर है जब विश्व अर्थव्यवस्था सामान्य स्थिति में हो और मांग में उतार-चढ़ाव संभाले जा सकने वाली स्थिति में हो.

नाइनन लिखते हैं भू राजनीतिक विवाद और नया शीतयुद्ध आदि नए तथ्य हैं और उन्होंने तेल बाजार और विभिन्न खाद्य और जिंस बाजारों को प्रभावित किया है. यह उथल-पुथल जारी रहेगी क्योंकि पूरी दुनिया प्रतिस्पर्धी ब्लॉक में बंट रही है. अमेरिका और चीन के बेहतर प्रदर्शन के बावजूद वैश्विक मंदी के हालात हैं. महंगे लोन के कारण बैंकों और कंपनियों के बही खातों पर दबाव है. निवेश पर भी इसका असर पड़ रहा है कि पूंजी की उच्च लागत की भरपाई के लिए ऊंचा रिटर्न जरूरी होता है.

ब्याज का बोझ महसूस कर रहे कर्जदार देशों के हालात अधिक कठिन है. आर्थिक पूंजी की उच्च ब्याज दर सपास के बाजारों को भी प्रभावित करती है क्योंकि वैश्विक पूंजी को सुरक्षा की आवश्यकता होती है. यह बात भारत जैसे बाजारों को प्रभावित करती है.

नाइनन ध्यान दिलाते हैं कि मौद्रिक नीति चौराहे पर है. संयुक्त राष्ट्र व्यापार एवं विकास सम्मेलन ने व्यापार एवं विकास पर अपनी ताजा सालाना रिपोर्ट में कहा है कि केंद्रीय बैंकों को अपना दो फीसदी का उल्लिखित लक्ष्य त्याग देना चाहिए और नीति निर्माण करते समय ऋण संकट, बढ़ती असमानता और धीमा वृद्धि जैसे अन्य मसलों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए.

भारत में जब 4 फीसदी का लक्ष्य रखा गया तो ऐसे ही तर्क दिए गए. मुद्रास्फीति की कई वजह हैं और अतिरिक्त मांग उनमें से केवल एक है. भारत की स्थिति अन्य देशों से बेहतर है. भारत पर अधिक कर्ज भी नहीं है और वृद्धि की गति बेहतर है. ऐसे में रिजर्व बैंक के पास यह गुंजाइश है कि वह दरों में इजाफा करे और 4 फीसदी के लक्ष्य को हासिल करने की कोशिश करे.

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'जमीन के लिए लड़ाई का अंत हो'

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि अगर युद्धों को सभ्य कहा जा सकता है तो प्राचीन युद्ध वास्तव में सभ्य थे और कुछ नियमों के अनुसार लड़े गए. आधुनिक युग में ऐसा नहीं है. रूस-यूक्रेन और इजराइल-हमास के बीच आज जो दो युद्ध लड़े जा रहे हैं, वे विशेष रूप से नृशंस युद्ध हैं. अंधाधुंध बमबारी हो रही है. यूक्रेन और गाजा में शहर और कस्बे मलबे में तब्दील हो गये हैं. अस्पताल और स्कूल पूरी तरह तबाह हो गए हैं. कई हजार लोग मारे गये हैं. विस्थापित लोगों को बुनियादी सुविधाओं के बिना शिविरों में रखा गया है. हजारों बेघर लोग पलायन को मजबूर हैं. पानी और बिजली की आपूर्ति काट दी गयी है. खाद्य आपूर्ति बाधित हो गयी है. दवाएं दुर्लभ हैं. सहायता सामग्री ले जा रहे ट्रकों को रोक दिया गया है.

चिदंबरम पूछते हैं...

"युद्ध किसलिए है? रूस-यूक्रेन युद्ध में मुद्दा प्रभुत्व का है तो इजराइल-हमास युद्ध में भी संघर्ष जमीन को लेकर है. कभी यूक्रेन और रूस दोनों सोवियत संघ का हिस्सा था. नाटो से नजदीकी और रूस को खतरा इसका कारण बताया गया है. इसी तरह फिलीस्तीन की जमीन पर अरब, यहूदी और ईसाइयों ने कब्जा कर लिया गया. संयुक्त राष्ट्र के आदेश से इजराइल बना और 1948 में यहूदियों को बसाया गया. अब इजराइल परमाणु शक्ति है. इतिहास फिलीस्तीनियों के पक्ष में हो सकता है लेकिन इजराइल राष्ट्र को धरती से मिटाया नहीं जा सकता."

अगर दुनिया में भूमि विवादों का हल निकालने के लिए तंत्र नहीं खोजा जा सका तो युद्ध अपरिहार्य है. पाकिस्तान और भारत के बीच विवाद जमीन को लेकर है. चीन और भारत के बीच विवाद भी जमीन को लेकर है.

हमास की बर्बरता पर चुप्पी तोड़ें मुसलमान

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि उन्हें दुख इस बात का है कि भारत के मुसलमानों से अभी तक हमास के खिलाफ उन्होंने एक शब्द नहीं सुना है. सात अक्टूबर को इजराइल में घुस कर निहत्थे लोगों पर आतंक बरपाया गया. जो वीडियो इजरायल ने बीते दिनों जारी किए हैं, उसे देखकर ऐसा लगता है कि जो लोग हमास की तरफ से भेजे गये थे. उनको इंसान कहना गलत होगा.

सबसे डरावना वह वीडियो लगा जिसमें एक हत्यारा अपने पिता को फोन करके कह रहा है, “मैंने 10 यहूदी मारे हैं पने हाथों से” और उसके पिता का जवाब है “शाबाश बेटा, अच्छा किया तुमने.” किसी आतंकवादी के लिए ऐसी शाबाशी पहली बार सुनी है.

तवलीन सिंह लिखते हैं...उन्हें उन मुस्लिम बुद्धिजीवियों से उम्मीद थी, जो ऊंची आवाज में साबित करना चाहते हैं कि भारत में मुसलमान सुरक्षित नहीं हैं मोदी के राज में क्योंकि हिंदुत्ववादी आतंक से उनको दिन-रात खतरा रहता है. मगर, इन बुद्धिजीवियों ने अपना पूरा दम लगाया यह साबित करने में कि हमास ने जो किया उसका दोष भी इजरायल के सिर है. ये लोग कहते हैं कि इजरायल ने दशकों से इतना जुल्म ढाया है फिलीस्तीनियों पर कि हमास को एक आतंकवादी संस्था नहीं स्वतंत्रता सेनानी के रूप में देखा जाना चाहिए. क्या भारत के मुसलमान अभी तक समझे नहीं हैं कि इस तरह की बातें करके वे खुद अपने ही दुश्मन बन रहे हैं?

लेखिका ने साफ किया है कि इस लेख का विशेष मुद्दा इजरायल हमास नहीं है. विशेष मुद्दा है भारत के मुस्लिम समाज की सोच और उनकी अजीब आदत जो उन्हें बाकी देश से अलग रखता है. लेखिका ने चीन में उइगर मुसलमानों के लिए या फिर रूस द्वारा चेचेन्या में मुसलमानों के साथ किए गए व्यवहार की निन्दा करने कभी क्यों नहीं आए भारतीय मुसलमान?

क्या इसलिए कि वे आदतन अमेरिका विरोधी और चीन-रूस समर्थक रहे हैं? भारतीय मुसलमानों को समझना होगा कि दुनिया लोकतंत्र और तानाशाही सरकारों में बंट रही है. भारत तानाशाही सरकारों वाले खेमे में नहीं रह सकता.

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