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संडे व्यू: चुनाव नतीजों पर चुप क्यों हैं राहुल? केसीआर के लिए मुश्किल होगी वापसी

पढ़ें आज टीएन नाइनन, तवलीन सिंह, मार्क टुली, पी चिदंबरम और अदिति फडणीस के विचारों का सार.

क्विंट हिंदी
नजरिया
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<div class="paragraphs"><p>संडे व्यू: चुनाव नतीजों पर चुप क्यों हैं राहुल? केसीआर के लिए मुश्किल होगी वापसी</p></div>
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संडे व्यू: चुनाव नतीजों पर चुप क्यों हैं राहुल? केसीआर के लिए मुश्किल होगी वापसी

(फोटो: क्विंट हिंदी)

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चुनाव नतीजों पर चुप क्यों राहुल?

मार्क टुली ने हिन्दुस्तान टाइम्स में इंडिया गठबंधन के एक सांसद के हवाले से राहुल गांधी के बारे में लिखा है कि उनमें इतना गट्स नहीं है कि वे कांग्रेस की हार का सामना कर सकें. संसद तक में वे दिखाई नहीं पड़े. चुनाव नतीजों पर उन्होंने कुछ भी नहीं कहा. उत्तर पूर्व के छोटे से राज्य को भी जीत पाने में कांग्रेस विफल रही.

लेखक ने लिखा है कि राहुल गांधी के लिए उनकी आलोचनाओं में एक यह है कि वे नेता की तरह दिखते ही नहीं. अपने सांसद साथी के हवाले से लेखक ने सवाल उठाया है कि पदयात्रा के बाद वे सीधे ब्रिटेन क्यों चले गये? एक नेता के तौर पर अपनी इमेज बनाने का प्रयास क्यों नहीं किया?

मार्क टुली ने लिखा है कि बुधवार को संसद में बीआर अंबेडकर को श्रद्धांजलि देते समय मल्लिकार्जुन खड़गे के साथ राहुल की मां सोनिया गांधी थी. राहुल गांधी नजर नहीं आए. जिस राजनीतिज्ञा का मुकाबला राहुल को करना है उनका नाम नरेंद्र मोदी है. भारतीय जनता पार्टी के वे निर्विवाद नेता हैं. चुनाव नतीजे बताते हैं कि वे कितने लोकप्रिय हैं. तेलंगाना में कांग्रेस की इकलौती विजय के बारे में बहुत बातें हो रही हैं और उत्तर-दक्षिण में अंतर के साथ ऐसा हो रहा है. बीजेपी इसका जवाब लेकर भी आएगी.

बीजेपी ने बताया है कि 42 हजार वाट्सएप ग्रुप मध्यप्रदेश में बूथ लेवल पर बनाए गये थे. 96 फीसद बूथों पर बूथ कमेटियां बनीं. 600 से ज्यादा रैलियां हुईं. उनमें से 164 में शिवराज सिंह शरीक हुए. कांग्रेस को गठबंधन में विनम्र होना होगा. यही उसकी खासियत रही थी. कांग्रेस को ऐसा नेता चुनना होगा जो गांधी नहीं हो. चुनाव के बाद इन बातों का कोई मतलब नहीं होगा. छह महीने में ऐसा कुछ होना मुश्किल लगता है. इंडिया ब्लॉक के छोटे घटक दलों के लिए ताजा चुनाव परिणाम उत्साहजनक कतई नहीं हैं.

कारोबारी जगत में डर और खुशी

टीएन नाइनन ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि वर्तमान भारतीय कारोबारी जगत का विरोधाभास यह है कि भारतीय जनता पार्टी की चुनावी जीतों पर शेयर बाजार में अत्यंत प्रसन्नता का माहौल है जबकि कई कारोबारी दिल्ली में पार्टी की सरकार को लेकर सशंकित भी हैं.

चार साल पहले अब दिवंगत राहुल बजाज ने अमित शाह से कहा था कि उद्योगपति सरकार की आलोचना करने से डरते हैं क्योंकि उन्हें डर लगता है कि इसे ठीक नहीं माना जाएगा. उन्होंने मनमोहन सिंह के कार्यकाल से तुलना करते हुए कहा था कि उस वक्त कोई भी आसानी से आलोचना कर सकता था. जवाब में शाह ने कहा था कि उनकी सरकार ने संसद में और उसके बाहर भी किसी भी अन्य सरकार की तुलना में अधिक आलोचना का सामना किया है.

नाइनन लिखते हैं कि कारोबारी लॉबी समूह कहते हैं कि उन्हें मशविरा दिया गया है कि वे सार्वजनिक आलोचना से बचें. लेकिन, शेयर बाजार के व्यवहार में डर नहीं केवल उम्मीद नजर आती है. यह बात संस्थागत विदेशी निवेशकों और घरेलू निवेशकों दोनों के उत्साह से समझी जा सकती है.

कारोबारी मोदी सरकार को तरजीह देते हैं क्योंकि उसने कारोबारियों के अनुकूल कई कदम उठाए हैं. कॉरपोरेट कर दर में कमी की गयी है. घरेलू उत्पादकों को आयात प्रतिस्पर्धा के विरुद्ध टैरिफ और गैर टैरिफ संरक्षण दिया जा रहा है. अप्रत्यक्ष कर को लेकर सुधार किया गया है, निवेश के लिए सब्सिडी दी जा रही है और उत्पादन बढ़ाने को प्रोत्साहित किया जा रहा है.

केसीआर के लिए मुश्किल होगी वापसी

अदिति फडणीस ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि के चंद्रशेखर राव के लिए तेलंगाना में राजनीतिक पुनरुत्थान उनकी सोच से कहीं अधिक मुश्किल हो सकता है. कल्याणकारी योजनाओं वाली राजनीति जो वर्ष 2018 में शानदार तरीके से कारगर रही, वह इस बार विफल हो गयी. इस चुनावी हार के पीछे पहचान और जीविका से जुड़े अधिक जटिल कारक थे. तेलंगाना वह इलाका है जो कभी अंग्रेजों के अधीन नहीं आया. यहां हैदराबाद के निजाम का शासन था जिसने फ्रांस के लोगों के सहयोग से वारंगल में कुछ कारखाने और कपड़ा मिलें स्थापित की थीं. मशहूर फिल्म निर्देशक श्याम बेनेगल ने अपनी फिल्म ‘अंकुर’ में यहां के सामंती शोषण को दिखाया था. केसीआर पर कांग्रेस के तंज का संदर्भ यही है, ‘डोरा तब और डोरा अब’.

आदिति फडणीस ने लिखा है कि केसीआर ने 2001 में टीआरएस की स्थापना की. स्थानीय निकाय के चुनाव में जबरदस्त सफलता हासिल की. इसी वजह से कांग्रेस ने टीआरएस के साथ लोकसभा चुनाव में समझौता किया. टीआरएस ने पांच लोकसभा सीट के साथ सफर शुरू किया. इससे पहले विधानसभा चुनाव में उसे 26 विधानसभा सीटें मिलीं. 2014 और 2018 में केसीआर ने चुनाव जीते. 2023 में केसीआर के साथ वही हुआ जो पहले चंद्रबाबू नायडू के साथ हुआ था. बाहरी लोगों पर अधिक वेतन वाली नौकरियों पर कब्जे का आरोप.

विधानसभा चुनाव में बेरोजगारी सबसे बड़ा मुद्दा था. कोविड और खाड़ी प्रवासियों की वापसी के बाद राज्य में विशेष रूप से युवाओं के बीच बेरोजगारी बढ़ी है. केसीआर कई तरह के भ्रम का शिकार भी रहे. पार्टी का नाम उन्होंने बदल डाला. दिल्ली में राष्ट्रीय कार्यालय बनाने के लिए संपत्ति हासिल की. अब राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी नेता केसीआर को बुलाना बंद कर देंगे. बीजेपी जब चाहेगी शिकंजा कसेगी और खुली छूट देगी. यह सब राष्ट्रीय स्तर के निवेश हैं जो प्रभावी नहीं हो सकते.
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आरक्षण से देश में नहीं आती समृद्धि

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि महान भारत में नकारात्मकता नाम की बीमारी है. विपक्षी नेताओं के प्रचार में यह बीमारी बीते दिनों चुनाव में देखने को मिली थी. राहुल गांधी ने चुनाव प्रचार के दौरान कहा कि उनकी सरकार बन जाने के फौरन बाद वे जातीय जनगणना जरूर कराएंगे. उन्होंने स्पष्ट करते हुए कहा- जितनी आबादी उतना हक. जो वास्तव में भारत को विकसित देश बनते देखना चाहते हैं वे लोग उल्टा कहेंगे कि हमको जल्दी से जल्दी देश में इतना धन, इतना रोजगार पैदा करना चाहिए ताकि गरीबी और बेरोजगारी का नामोनिशान मिटाया जाए.

तवलीन सिंह लखती हैं कि महाराष्ट्र में मराठे कुनबी जाति में गिने जाने के लिए बेचैन हैं और आरक्षण मांग रहे हैं. एक आंदलोनकारी के हवाले से लेखिका बताती हैं कि सेना में आरक्षण के बाद मराठे वहां से भी बेदखल होने लगे हैं. यह अन्याय है. उन्हें भी आरक्षण का फायदा मिलना चाहिए.

वास्तव में समय आ गया है जब हर किस्म के आरक्षण को समाप्त कर दिया जाना चाहिए. न तो सरकारी नौकरियों में किसी जाति के लिए आरक्षण होना चाहिए, न ही शिक्षा संस्थाओं में, न सेना में. जिन जातियों को सदियों से शिक्षा से दूर रखा गया है उनके लिए कुछ खास चीज करनी हो तो सरकार की तरफ से स्कूल और कॉलेज में जाने के लिए मदद मिलनी जरूर चाहिए आर्थिक तौर पर, लेकिन आरक्षण नहीं. तथाकथित पिछड़ी जातियों के लिए तो बिल्कुल बंद हो जाना चाहे. लेखिका का मानना है कि जिन देशों में असली विकास और असली समृद्धि है वहां धन पैदा करके गरीबी हटाई गयी है. रोजगार बढ़ाकर बेरोजगारी खत्म की गयी है.

दो ध्रुवीय चुनाव में कांग्रेस बरकरार

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि चुनाव नतीजों को लेकर उनकी भविष्यवाणी गलत साबित हुई हैं.

  • छत्तीसगढ़ में कांग्रेस 2018 में जीती 14 एसटी सीटें हार गयीं इससे भाग्य तय हो गया.

  • राजस्थान में गहलोत सरकार ने अच्छा काम किया था लेकिन सत्ता विरोधी लहर उसके गले की फांस बन गयी. गहलोत सरकार के 17 मंत्री और कांग्रेस के 63 विधायक हार गये.

  • मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान ने उल्लेखनीय विफलताओं और भ्रष्टाचार के आरोपों के बीच योजनाएं लागू कीं. लाभार्थियों विशेष रूप से महिलाओं को लाभ हस्तांतरित किए गये.

  • तेलंगाना में बीआरएस सरकार के खिलाफ ग्रामीणों में असंतोष था. सत्ता परिवार के हाथ में केंद्रित हो गयी थी. हैदराबाद केंद्रित विकास को जनता ने नकार दिया. रेवंत रेड्डी ने आक्रामक चुनाव प्राचर अभियान के जरिए कांग्रेस को जीत दिलाई.

चिदंबरम लिखते हैं कि आंकड़े गवाही दे रहे हैं कि तीन राज्यों में हार के बावजूद कांग्रेस के मत बने हुए हैं. अच्छी खबर यह है कि द्विध्रुवीय और प्रतिस्पर्धी राजनीति जीवंत है. चार राज्यों में कांग्रेस के मतों की हिस्सेदारी 40 फीसद है जो चुनावी लोकतंत्र के लिए अच्छा है. हालांकि बीजेपी ने सभी चार राज्यों में वोट की हिस्सेदारी में वृद्धि की और चार राजधानी शहरों और शहरी क्षेत्रों में अधिकांश सीटें जीतीं. मध्य प्रदेश को छोड़कर वोट शेयर में अंतर भी कम दिखा.

चिदंबरम ने चुनावों की बदली हुई प्रकृति की ओर भी ध्यान दिलाया है. वे लिखते हैं कि अंतिम छोर तक प्रचार, बूथ प्रबंधन और निष्क्रिया मतदाताओं को मतदान केंद्र तक लाने के आधार पर चुनाव जीते या हारे जाते हैं. इसके लिए हर निर्वाचन क्षेत्र में समय, ऊर्जा, मानव और वित्तीय संसाधनों के भारी निवेश की आवश्यकता होती है जो परिणामों के जरिए बीजेपी ने सफलतापूर्वक किया.

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