मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019संडे व्यू: न्याय के बिना रामराज्य नहीं, राज्यों को कमजोर करने का दौर

संडे व्यू: न्याय के बिना रामराज्य नहीं, राज्यों को कमजोर करने का दौर

पढ़ें आज मकरंद आर परांजपे, तवलीन सिंह, शोभा डे, रामचंद्र गुहा, पी चिदंबरम के विचारों का सार.

क्विंट हिंदी
नजरिया
Published:
संडे व्यू में पढ़ें बढ़े अखबारों में छपे के आर्टिकल
i
संडे व्यू में पढ़ें बढ़े अखबारों में छपे के आर्टिकल
(फोटो: Altered by Quint)

advertisement

क्या भारत हिन्दू राष्ट्र बन चुका है?

मकरंद आर परांजपे ने न्यू इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि भारत का कोई राष्ट्रीय धर्म नहीं है. इसके संविधान में बदलाव नहीं हुआ है लेकिन, देश के नेताओं में अब अपनी आस्था और विश्वास को व्यक्त करने में कोई संकोच नहीं. हमें नहीं भूलना चाहिए कि नेहरूवादी धर्मनिरपेक्षता ने स्वयं में इस तरह से कार्य किया है. मानो यह कोई राजधर्म हो.

22 जनवरी को अयोध्या में मौजूद रहते हुए लेखक ने यह महसूस किया कि हमारे गणतंत्र के इतिहास में भगवान राम जन्म भूमि को दोबारा स्थापित करना एक टर्निंग प्वाइंट है. हमारी सभ्यता के हिसाब से भी ऐसा ही है.

मुख्य यजमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, “22 जनवरी कैलेंडर की एक तारीख भर नहीं है. यह नये युग की शुरुआत है.”

लेखक सवाल करते हैं कि क्या भारत सेकुलर के बजाए हिंदू राष्ट्र हो गया है- एक राष्ट्र जिसका राजधर्म हो?

इसमें संदेह नहीं कि राम राजनीतिक विश्वास से परे हैं या यह वह आस्था है जिससे राजनीति जुड़ी है. समय का पहिया तब घूमा था जब मीर बाकी ने मंदिर को नष्ट किया था. एक बार फिर यह पहिया घूमा जब इस मंदिर का पुनर्निर्माण हुआ है. इन परिवर्तनों से राम नहीं बदले हैं. अनुयायियों की आत्मा में वे समान रूप से रचे-बसे हुए हैं.

जब पहले तीर्थयात्री के रूप में पुनर्निर्मित राम मंदिर में श्रद्धालु आते हैं तो उनमें व्याप्त उत्साह उन तमाम तर्कों को अप्रासंगिक कर देता है, जो ड्राइंग रूम से गढ़े जाते हैं. हर बाधा को तोड़ते हुए राम नेशनल हीरो हैं.

पीवी नरसिंहा राव ने कभी कहा था, “मैं बीजेपी से लड़ सकता हूं लेकिन भगवान राम से कैसे लड़ूं?”

लेखक ने महात्मा गांधी की याद दिलाते हुए लिखा है कि उन्होंने देशभर में रामधुन को नये सिरे से लोकप्रिय बनाया. तुलसीदास ने अगर “रघुपति राघव राजाराम, पतित पावन सीता राम” का उद्घोष किया तो महात्मा गांधी ने उसमें आगे जोड़ा, “ईश्वर अल्लाह तेरे नाम, सबको सम्मति दे भगवान.”

इन सबके बावजूद क्या यह कहा जा सकता है कि हिन्दुत्व सिर चढ़कर बोल रहा है? लेखक का मानना है कि वे आश्वस्त नहीं हैं. प्राण प्रतिष्ठा समारोह में शरीक होने वाले हिंदुत्ववादी नहीं हैं, इसके बजाए वे विविध परंपराओं के प्रतिनिधि हैं, जो भारत है.

आखिरकार आ गया रामराज्य!

डेक्कन क्रोनिकल में शोभा डे ने लिखा है कि हमने अभी-अभी भारत के इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण गणतंत्र दिवस मनाया है. आजादी के छिहत्तर साल बाद युवा भारत पूरी तरह से नये भारत के लिए जाग रहा है. अपने वर्तमान अवतार में लगभग पहचाना नहीं जा सकता. निश्चित रूप से यह उस भारत से बिल्कुल जुदा है, जिसे मेरी पीढ़ी प्यार और उत्साहपूर्वक विश्वास करती हुई बड़ी हुई.

ब्रिटिश शासन से मुक्त होकर हमने छोटे-छोटे कदम रखे थे. एक स्वतंत्र और गौरवान्वित राष्ट्र के नागरिक के रूप में हम अपने पैर जमा रहे थे. कुछ गलतियां भी हुईं. संघर्ष की विरासत के साथ हमने ऐसा रास्ता निकाला, जो देश को आगे ले जा सके. हम गरीब थे लेकिन हमारे पास लौटाने के लिए स्वाभिमान था.

शोभा डे लिखती हैं कि प्राण-प्रतिष्ठा समारोह एक धार्मिक कार्यक्रम से अधिक राजनीतिक कार्यक्रम था- ऐसा विश्लेषक मानते हैं. आरएसएस सरसंघचालक, भगवा वस्त्रधारी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की मौजूदगी और चारों शंकराचार्यों की गैर मौजूदगी इसका प्रमाण थीं. कॉरपोरेट इंडिया पूरी ताकत से मौजूद था.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतवासियों से, “देव से देश, राम से राष्ट्र, देवता से राष्ट्र तक चेतना का विस्तार करने” का आग्रह किया. उनके संदेश में कोई स्पष्टता नहीं थी. हिंदुत्व बराबर देशभक्ति. इसे ग्रहण करें या छोड़ दें. बहुमत ने इसे ले लिया. किसी अन्य प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीयता को विशिष्ट धर्म से तने खुले तौर पर इतनी बेबाकी से नहीं जोड़ा है. अस्पष्टता का पर्दा हमेशा के लिए दूर करने के लिए हमें प्रधानमंत्री का धन्यवाद देना चाहिए.

न्याय के बिना रामराज्य नहीं

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि रामराज्य में न्याय का स्थान इतना ऊंचा था कि जब अयोध्या के लोगों ने राम की पत्नी के चरित्र पर शक किया तो प्रभु राम ने अपने परिवार की खुशी से ऊपर न्याय को रखा.

प्रभु राम ने खुद 14 वर्ष वनवास इसलिए स्वीकार किया क्योंकि अपने पिता द्वारा सौतेली मां कैकेयी से किए गये वचन का सम्मान रखना उन्होंने अपना दायित्व समझा. बिना न्याय के राम राज्य हो नहीं सकता.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि प्रधानमंत्री की मानें तो अब भारत में राम राज्य की शुरुआत हो चुकी है. अयोध्या के नये विशाल मंदिर में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा करने के बाद उन्होंने अपने पहले भाषण में भगवान राम के आदर्शों पर चलने की बातें कीं. विस्तार से समझाया सत्य, न्याय और सुशासन. अच्छा लगा कि ‘मोदी की गारंटी’ है कि ऐसा समय आने वाला है.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT
मगर, मायूसी तब हुई जब प्रधानमंत्री के शानदार भाषण के कुछ ही घंटों बाद मालूम हुआ कि मुंबई की एक गरीब, मुस्लिम बस्ती में लोगों के घर बुलडोजर से ढहाए गये हैं. कुछ सिरफिरे मुस्लिम लोगों ने हिंदू धार्मिक जुलूस पर पथराव किया था, जय श्रीराम के नारे सुनने के बाद. पथराव करना गलत था लेकिन मेरी नजर में बुलडोजर से घरों को तोड़ना कहीं ज्यादा गलत है.

बुलडोजर न्याय की शुरुआत की थी योगी आदित्नयाथ ने, उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के फौरन बाद ही. उस समय बुलडोजर भेजे गये थे उन लोगों के घर तोड़ने, जिन्होंने नागरिकता कानून में संशोधन का विरोध किया था.

राज्यों को कमजोर करने का दौर

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि भारत राज्यों का संघ है. राज्यों को भारत के संविधान की प्रथम अनुसूची मे सूचीबद्ध किया गया है. संघवाद का सार इस तथ्य में निहित है कि ब्रिटिश शासित प्रांत और रियासतें स्वेच्छा से संघ का हिस्सा बनने के लिए सहमत हुईं. राज्यों को भाषाई आधार पर पुनर्गठित किया गया क्योंकि राज्य केवल प्रशासनिक इकाई नहीं है. इसकी भाषाई, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और राजनीतिक पहचान है.

लेखक ने अनुच्छेद 368 (2) का उल्लेख करते हुए लिखा है कि इसमें प्रावधान है कि विधेयक के कानून बनने से पहले संसद द्वारा संविधान में किए गये कुछ संशोधनों को आधे राज्य विधानसभाओं द्वारा अनुमोदित किया जाना आवश्यक है. कानून को लेकर अदालत की घोषणा के बावजूद केंद्र सरकार ने संघवाद के दूर करने के तरीके खोजे हैं.

लेखक ने बताया है कि राज्य की कार्यकारी, विधायी और वित्तीय शक्तियों को केंद्र सरकार ने कमजोर किया है. यूपीएससी के तहत होने वाली नियुक्तियों, नीट की शुरुआत, वित्त पोषित योजनाओं के लिए राज्यों को धन देने से इनकार जैसे उदाहरण बताते हैं कि राज्य की कार्यकारी शक्तियां घटा दी गयी हैं.

केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों की बात न मानते हुए सिविल प्रक्रियाओं सहित कई विषयों पर कानून पारित किए हैं- जंगल, दवा, एकाधिकार, मजदूर संगठन, सामाजिक सुरक्षा और सामाजिक बीमा, श्रमिक कल्याण, शिक्षा, कानून, चिकित्सा और अन्य व्यवसाय, बंदरगाह, व्यापार, बंदरगाह, मूल्य नियंत्रण, कारखाने, बिजली, प्रातात्विक स्थल, संपत्ति का अधिग्रहण, स्टांप शुल्क आदि.

इसी तरीके से कर राजस्व में प्रस्तावित राज्यों के हिस्से में कटौती करने के लिए 14वें वित्त आयोग को निर्देश देने का प्रयास भी प्रधानमंत्री ने किया है

जुल्म का नस्लीय नजरिया

रामचंद्र गुहा ने लिंडा ग्रांट की एक ऐसी पुस्तक से पाठकों को रूबरू कराया है, जो इजरायल बनने के तुरंत बाद फिलीस्तीन में रहकर लिखी गयी थी और तब वह ब्रिटिश आधिपत्य में था. पुस्तक का नाम है “वेन आई लिव्ड इन मॉडर्न टाइम्स”.

यह उपन्यास ब्रिटेन में पली-बढ़ी 20 वर्षीय यहूदी महिला एवलिन सर्ट के नजरिए से है, जो दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद फिलीस्तीन चली जाती है. नए यहूदी राज्य में वह अपने लिए संभावनाएं तलाशती है. उसकी मुलाकात एक किबुत्ज नेता से होती है, जिनके मन में अरबों के प्रति अवमानना का भाव है. वह एवलिन से कहता है, “अगर अंग्रेज चले जाते हैं और हम सौम्यता से शासन करते हैं तो हमारे कुछ विचार उन पर प्रभाव डालेंगे..”

लेखक ने यहूदी दार्शनिक मार्टिन बुबेर की उस चिट्ठी की याद दिलाई है, जो उन्होंने 1938 में महात्मा गांधी को लिखी थी. बुबेर यहूदी और अरब के बीच सामंजस्य में विश्वास करते थे फिर भी वह यहूदियों को शिक्षक के तौर मानते थे.

उन्होंने कहा, “मिट्टी से पूछो कि अरबों ने तेरह सौ वर्षों में उसके लिए क्या किया है और हमने पचास वर्षों में उसके लिए क्या किया है!”

लिंडा ग्रांट के उपन्यास का वर्णनकर्ता किबुत्ज जीवन से थक जाता है और जर्मन वास्तुकारों की शैली में बने बेहद आधुनिक शहर तेल अवीव की ओर जाता है. उसकी दोस्ती मिसेज लिंज से होती है जो मूल रूप से बर्लिन की रहने वाली है.

वह कहती हैं, ”हमारे यहूदी शहर में दुनिया के कुछ सबसे अच्छे शिक्षित पुरुष और महिलाएं हैं” वहीं उसकी राय में सड़क पर अरब बस अनपढ़ हैं जो तरबूज बेचना जानते हैं.

क्या एक मेहनती, सुसंगठित अल्पसंख्यक, जो आधुनिक युग के सभी सबसे उन्नत विचारों का भंडार है उस पर बहुमत द्वारा शासन और प्रभुत्व स्थापित किया जा सकता है जो ऊर्जा, शिक्षा और प्रशासनिक अनुभव में स्पष्ट रूप से हमसे कमतर है?

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: undefined

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT