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तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में पूछा है कि प्रधानमंत्री किसानों के साथ मिल बैठकर बात करने को तैयार क्यों नहीं हैं? एक तरफ नरेंद्र मोदी कहते नहीं थकते कि किसानों के लिए उनके दिल में कितनी जगह है और दूसरी तरफ जब भी उनसे मिलने की जरूरत होती है, वे गायब हो जाते हैं.
पिछली बार पूरा साल गुजर जाने के बाद प्रधानमंत्री ने उन तीन तथाकथित काले कानूनों को वापस लिया था. बीते दो साल में किसानों की समस्याओं का समाधान ढूंढ़ने की कोशिश तक नहीं हुई. इस बार भी किसानों के साथ वैसे ही पेश आ रहे हैं, जैसे वे देश के सबसे बड़े दुश्मन हों.
तवलीन सिंह लिखती हैं कि आसमान से ड्रोन आंसू गैस फेंकने का काम किया जा रहा है और सोशल मीडिया पर मोदी भक्त वही झूठ फैला रहे हैं, जो पिछली बार फैलाया गया था. ये लोग किसान नहीं, खालिस्तानी आतंकवादी हैं. ये गरीब किसान नहीं अमीर लोग हैं, जो मर्सिडीज गाड़ियों में घूमते हैं. इनके साथ जितनी सख्ती हो कम है.
पिछले सप्ताह भारत सरकार के सूचना प्रसारण मंत्रालय ने टीवी चैनलों पर एक वीडियो चलवाया, जिसमें एक तथाकथित सिख किसान कह रहा है कि यह सब किया जा रहा है सिर्फ मोदी की लोकप्रियता को कम करने के वास्ते. कहा यही जा रहा है कि MSP की मांग मुट्ठीभर लोगों की है. यह सच है.
मगर, सच यह भी है कि यही मुट्ठीभर किसान ऐसे हैं, जो इतना अनाज पैदा करते हैं कि मंडियों और गोदामों तक पहुंच सकें. बाकी किसान अपने परिवार के लिए अनाज पैदा कर पाते हैं.
आसिम अली ने टेलीग्राफ में लिखा है कि अयोध्या में राम मंदिर के प्रतिष्ठा समारोह ने राज्य और समाज की हिंदू राष्ट्रवादी कल्पना का लघुरूप सामने रख दिया. बीजेपी-आरएसएस के शीर्ष नेतृत्व समेत सामाजिक और आर्थिक अभिजात वर्ग के लिए यह आरक्षित नजर आया.
इनमें धार्मिक संत, उद्योग जगत के अग्रणी, मीडिया बॉस, फिल्मस्टार और अन्य मिश्रित हस्तियां शामिल रहीं. वहीं वैकल्पिक सियासत को मजबूत करने को सामने आती दिखी इंडिया गठबंधन के मामले को लें तो यह किसी साझा राजनीतिक कार्यक्रम या स्पष्ट शासकीय एजेंडे को स्पष्ट करने में असमर्थ रहा. नजदीक आते जा रहे चुनाव को देखते हुए यह अक्षम्य है.
आसिम अली लिखते हैं कि द्विवार्षिक इंडिया-टुडे सी वोटर पोल में गठबंधन की लोकप्रियता में गिरावट देखने को मिली. अगस्त 2023 में एनडीए-इंडिया गठबंधन के बीच वोट शेयर का अंतर 2 प्रतिशत था, जो फरवरी 2024 के ताजा सर्वे में बढ़त 6 फीसदी हो चुका है.
2019 के सीएसडीएस सर्वेक्षण को याद करें तो राजनीतिक दल ही एकमात्र ऐसी संस्थानें थी, जिन पर विश्वास से अधिक अविश्वास था. यह 9 फीसदी नकारात्मक प्रभावी विश्वास था. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सामाजिक क्षेत्र से धीरे-धीरे राजनीतिक दल हटते चले गए. 1990 के दशक में सीपीआएएम ने सिंगूर की घटना में अपना चरित्र खोया तो मुलायम सिंह यादव के तीसरे कार्यकाल (2003-07) एसपी कॉरपोरेट समर्थक पार्टी नजर आयी.
NDA की लोकप्रियता को समझने के लिए आसिम अली कर्नाटक का उदाहरण रखते हैं, जहां सत्ता से बाहर होने के बावजूद कांग्रेस-जेडीएस के साझा वोट शेयर में 11 फीसदी की गिरावट आयी. हालांकि, कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई. ऐसा लगता है कि इंडिया गठबंधन से ऑर्केस्ट्रा की धुन गायब है और यह बेमेल सुरों का शोर बनकर रह गया है.
लेखक का मानना है कि तेलंगाना में जो परिवर्तन दिखा है, उसकी वजह नए सामाजिक आंदोलनों का उदय है. ताजा सर्वे के हवाले से वे लिखते हैं कि देश की बहुसंख्यक आबादी यह मानती है कि नरेंद्र मोदी सरकार की नीतियों से अमीरों को फायदा हुआ है और अमीर-गरीब की खाई बढ़ी है.
त्रिलोचन शास्त्री ने हिन्दू में लिखा है कि 15 फरवरी 2024 को चुनावी बॉन्ड योजना को रद्द करने वाला सुप्रीम कोर्ट का फैसला ऐतिहासिक क्षण है. लोकतंत्र में पारदर्शिता जरूरी है और चुनावी बॉन्ड योजना अपारदर्शी थी. भारत में मतदाताओं को यह पता नहीं है कि राजनीतिक दलों को कौन धन दे रहा है और कितनी धनराशि दी जा रही है.
फैसले में कहा गया है,”राजनीतिक दलों की कॉरपोरेट फंडिंग का मुख्य कारण राजनीतिक प्रक्रिया को प्रभावित करता है जिससे कंपनी के व्यावसायिक प्रदर्शन में सुधार हो सकता है...”
शास्त्री लिखते हैं कि इलेक्टोरल बॉन्ड ने पहले की सीमा को भी हटा दिया कि कोई कंपनी अपने मुनाफे का कितना हिस्सा राजनीतिक दलों को दान कर सकता है. इस योजना ने घाटे में चल रही कंपनियों को भी दान देने की अनुमति दी.
भारत के चुनाव आयोग ने कहा है, “इससे राजनीतिक दलों को चंदा देने के एकमात्र उद्देश्य के लिए फर्जी कंपनियों की स्थापना की संभावना खुल जाती है.” इसे भी कोर्ट ने पलट दिया है.
लोकतंत्र क्रोनी कैपिटलिज्म के दौर से गुजरा जहां बड़े धन ने राजनीतिक दलों को वित्त पोषित किया. बदले में दानदाताओं के लाभ के लिए कानून, नीतियां, योजनाएं और प्रोत्साहन बनाए गये. सीमित तरीके से सुप्रीम कोर्ट का फैसला भारत में ऐसा होने से रोकता है.
शंकर अय्यर ने न्यू इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि भारतीय किसान एक सदी से भी अधिक समय से दुखद परिस्थितियों में जकड़ा हुआ है. लोकप्रिय फिल्में ‘दो बीघा जमीन’ से लेकर ‘पीपली लाइव’ तक में इसकी अभिव्यक्ति हुई है.
शंकर अय्यर लिखते हैं कि कृषि राजनीतिक धारणाओं और नीतिगत विकृतियों से पीड़ित रही है. रिकॉर्ड के लिए पवित्र इरादे में कोई कमी नहीं रही है. जैसे ही राजनीतिक नेतृत्व अंतत: मुक्ति के लिए तैयार हुआ, प्राथमिकताओं पर ध्यान केंद्रित करने के लिए राष्ट्रीय योजना समिति के तत्वावधान में भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में उपसमिति की स्थापना की गयी.
लेखक का कहना है कि सरकार 2.6 लाख करोड़ रुपये से कम कीमत पर एक चौथाई उपज खरीदती है. यह खरीद मूलत: छह राज्यों से होती है. सवाल यह है कि क्या सरकार को सारी उपज खरीदने की जरूरत है? सिद्धांत रूप में एमएसपी किसानों के लिए किसी फसल पर समय और प्रयास का जोखिम उठाने के लिए न्यूनतम मूल्य सुनिश्चित करता है. भारत को 1.4 बिलियन लोगों को भोजन देने वाले अपने सबसे बड़े निजी उद्यम के लिए नीति बनानी होगी.
पी चिदंबरम ने लिखा है कि केंद्र सरकार ने श्वेत पत्र तो लाया मगर उसका सारा ध्यान यूपीए सरकार को काला साबित करने में बीत गया. विपक्ष ने भी स्याह पत्र पेश किया. इन दोनों पत्रों के बीच वित्तमंत्री के बजट पर चर्चा कहीं गुम हो गयी.
यूपीए के शासनकाल में जीडीपी वृद्धि दर 7.5 फीसदी रही, जिसका आधार वर्ष 2004-05 है. मगर, 2011-12 के आधार वर्ष के हिसाब से यह आंकड़ा 6.7 फीसदी रहा. तुलनात्मक रूप में एनडीए के दस वर्षों के काल में औसत विकास दर 5.9 फीसदी रहा. यह अंतर मामूली नहीं है. हर वर्ष 1.6 फीसदी के अंतर से 10 वर्ष में जीडीपी का आकार, प्रति व्यक्ति आय, राजकोषीय घाटा आदि मानकों में बड़ा फर्क पैदा हो जाता है.
चिदंबरम ने तुलनात्मक रूप में बताया है कि वित्तीय घाटा यूपीए के 4.5% के मुकाबले एनडीए के कार्यकाल में 5.8% रहा. राष्ट्रीय कर्ज 58.6 लाख करोड़ के मुकाबले 173.3 लाख करोड़ हो गया. जीडीपी पर कर्ज यूपीए काल में 52% था जबकि एनडीए कार्यकाल में 58% हो गया.
घरेलू बचत 23% से गिरकर 19% पर आ गया. कृषि मजदूरी में वृद्धि 4.1% से गिरकर 1.3% हो गयी. सार्वजनिक बैंकों का एनपीए यूपीए कते कार्यकाल में 8 लाख करोड़ रुपये था जो बढ़कर एनडी कार्यकाल में 55.5 लाख करोड़ हो गया.
चिदंबरम लिखते हैं कि श्वेत पत्र में यूपीए कार्यकाल में 2008-2012 पर जोर है. तब अंतरराष्ट्रीय वित्तीय बाजार ध्वस्त होगये थे. वित्तीय सुनामी ने हर देश को तबाह कर दिया था. तब प्रणब मुखर्जी वित्तमंत्री थे जिन्होंने प्रचलित ज्ञान का पयोग करते हुए विकास और नौकरियों का समर्थन किया लेकिन इसकी कीमत राजकोषीय घाटे और मुद्रास्फीति के रूप में चुकाना पड़ा.
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