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संजू विवादित फिल्म स्टार संजय दत्त के पोस्ट-ट्रुथ बायोपिक (उत्तर-सत्य-कालीन जीवनी) पर बनी फिल्म है. ये फिल्म संजय दत्त की जिंदगी के दो अहम पहलुओं - 1980 के दशक में उनके गंभीर ड्रग एडिक्शन और उसके बाद 1993 के मुंबई बम धमाकों के सिलसिले में लगे आरोपों/मुकदमे से जुड़े घटनाक्रमों पर आधारित है. लेकिन इन दोनों ही घटनाक्रमों के दौरान उनकी निजी जिंदगी के काफी बड़े हिस्से को फिल्म में जिस तरह दिखाया गया है, वो सच से काफी अलग है.
अपनी लाइलाज बीमारी से जूझती पत्नी के साथ संवेदनहीन ढंग से रिश्ते तोड़ना, सबसे बुरे वक्त में साथ निभाने वाली दूसरी पत्नी से तलाक और बड़ी बेटी के साथ बिगड़े रिश्ते....ये और ऐसी ही कई और बातों को इस फिल्म ने सीधे-सीधे रिकॉर्ड से ही हटा दिया है. यही वजह है कि संजू ट्रंप/मोदी युग के उस पोस्ट-ट्रुथ सरलीकरण के दायरे में बिलकुल फिट है, जिसमें हर चीज या तो पूरी तरह स्याह है या पूरी तरह सफेद, बिल्कुल अच्छी है या बिल्कुल खराब, या तो हमारे साथ है या फिर दुश्मन की तरफ. कहीं कोई बारीक अंतर नहीं, स्याह-सफेद के बीच कोई स्लेटी रंगत नहीं.
मैं थिएटर से बाहर आया तो मन में कुछ अपराध बोध जैसा महसूस हो रहा था. मैंने अपने ऊपर दत्त साहब के भारी एहसानों को कभी खुलकर जाहिर नहीं किया. मेरी उनसे मुलाकात आधा दर्जन से ज्यादा बार नहीं हुई होगी, लेकिन उन्होंने मेरे लिए वो सब किया, जो कोई ईश्वर का दूत ही कर सकता है. खास बात ये है कि उन्होंने ये सब उसी मुश्किल दौर में किया, जिसे संजू में दिखाया गया है. सारी बात मैं बिल्कुल शुरुआत से बताता हूं.
1970 के दशक में मैं सुनील दत्त का एक सीधा-सादा टीन एजर फैन था. वो एक असाधारण अभिनेता और निर्देशक थे. (उनकी 1964 में आई फिल्म यादें में दो घंटे तक एक ही अभिनेता का मोनोलॉग यानी खुद से संवाद था. ये किरदार खुद उन्होंने ही निभाया था. इस फिल्म का नाम आज भी गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में “नैरेटिव फिल्म में अभिनेताओं की सबसे कम संख्या” वाली श्रेणी में दर्ज है.)
उनका जीवन संघर्षों और अपने बलबूते पर हासिल की गई सफलता की सपनीली कहानी जैसा था. पांच साल की नन्ही सी उम्र में उन्होंने अपने पिता को खो दिया. इसके बाद उनके परिवार को देश के बंटवारे के कारण अपनी तमाम जमीन-जायदाद पाकिस्तान में छोड़कर आना पड़ा. लेकिन उन्होंने मुंबई के BEST में क्लर्क की नौकरी की, फ्रीलांस रेडियो जॉकी के तौर पर काम किया, और ये सब करते हुए जयहिंद कॉलेज से इतिहास में बीए ऑनर्स की पढ़ाई भी पूरी की.
नरगिस-सुनील दत्त की शादी जितनी मशहूर और खास थी, उतनी ही विवादित भी. नरगिस एक मुस्लिम थीं और सुनील दत्त एक पंजाबी हिंदू. वो 1950 के दशक का बेहद रूढ़िवादी दौर था. और नरगिस, उस वक्त के शादीशुदा सुपरस्टार राजकपूर के साथ एक तकलीफदेह और बेहद चर्चित रूमानी रिश्ते से बाहर आ रही थीं. लेकिन लोगों ने सुनील दत्त से जब भी “पिछला रिश्ता टूटने की प्रतिक्रिया” से गुजरतीं नरगिस से शादी करने के बारे में सवाल किए, उनका जवाब बेहद सीधा और सुलझा हुआ होता था :
नरगिस और सुनील दत्त से मेरी पहली मुलाकात 1980 की शुरुआत में हुई थी. मौका था नरगिस दत्त के राज्यसभा में मनोनीत किए जाने की खुशी में आयोजित डिनर का. उन्हें उसी वक्त चुनाव जीतकर प्रधानमंत्री बनीं श्रीमती इंदिरा गांधी ने मनोनीत किया था. दत्त साहब तब तक मेरे पिता (जो सत्ता के करीबी वरिष्ठ IAS ऑफिसर थे) के अच्छे दोस्त बन चुके थे. नरगिस जी बेहद उत्साह में थीं, लेकिन साथ ही वो “वजन काफी घट जाने और बेहद थकान महसूस करने” के कारण थोड़ी परेशान भी थीं.
खूबसूरत और लंबे कद के दत्त साहब डिनर के दौरान जोश से भरे हुए दिख रहे थे. वो अपनी व्हिस्की के बड़े-बड़े घूंट भरते हुए उसका आनंद ले रहे थे और साथ ही मीठा खाने पर मेरे पिता की खिंचाई भी कर रहे थे : “बहल साहब, ये चीनी जहर है. मुझे देखिए. मैं जमकर पीता हूं, फिर भी मोटा नहीं हूं, क्योंकि मैं बहुत कम खाता हूं और मीठे से तो ऐसे दूर रहता हूं, जैसे प्लेग की महामारी हो.” इसके बाद, जैसा कि आम तौर पर पंजाबी लोगों के डिनर में होता है, एक जोरदार और बेतकल्लुफ ठहाका लगा और दोस्ताना अंदाज में पीठ ठोकी गई. मैं, जो तब एक शर्मीला टीन एजर था, अपने चारों तरफ मौजूद इन तमाम खूबसूरत और कामयाब लोगों को भौंचक होकर देखता रहा.
कुछ ही महीने बाद एक क्रूर झटका लगा. पता चला कि नरगिस जी के “वजन में डराने वाली गिरावट” का कारण पैंक्रियाज का कैंसर था, जो शरीर के कई हिस्सों तक फैल चुका था. दत्त साहब अपनी प्रिय पत्नी को न्यूयॉर्क के मेमोरियल स्लोन-केटेरिंग कैंसर सेंटर ले गए, जहां डॉक्टरों ने उनकी खतरनाक बीमारी से लड़ने की काफी कोशिश की.
दत्त साहब लगातार कई महीनों तक अपनी बीमार पत्नी के सिरहाने किसी चट्टान की तरह डटे रहे. लेकिन दुर्भाग्य से उनका कैंसर कुछ ज्यादा ही बढ़ चुका था. वो मुंबई लौट आए, जहां रॉकी के रिलीज होने से महज 4 दिन पहले, 3 मई 1981 को नरगिस जी का निधन हो गया. रॉकी नरगिस जी के बेटे की पहली फिल्म थी, जिसका निर्देशन उनके पति ने किया था. (फिल्म में ये सारी बातें दिखाई गई हैं). बड़ी तेजी से घटित हुई इस दुखद त्रासदी की वजह से मेरे माता-पिता को (और उनकी वजह से मुझे भी) गहरा सदमा लगा था.
नरगिस जी के निधन के बमुश्किल 18 महीने बाद, 1982 के अंत में, मैं गंभीर रूप से बीमार पड़ गया. पहले तो मुझे हवाई जहाज से मुंबई लाया गया, जहां मेरी सर्जरी कामयाब नहीं हुई. मुझे फौरन न्यूयॉर्क के मेमोरियल हॉस्पिटल ले जाने की नौबत आ गई. मेरे पिता ने दत्त साहब से संपर्क किया. किस्मत से वो न्यूयॉर्क में ही मौजूद थे और कैंसर के मरीजों के लिए नरगिस दत्त फाउंडेशन को खड़ा करने में जुटे थे. उन्होंने मेरे पिता से कहा, "बेटे को फौरन यहां ले आइए. मैं सारा इंतजाम कर दूंगा. फिक्र मत कीजिए. भरोसा रखिए. हम मिलकर मुकाबला करेंगे."
इतना ही नहीं, उन्होंने हॉस्पिटल को इस बात के लिए भी राजी कर लिया कि भर्ती करने से मुझसे 30,000 डॉलर जमा न कराए जाएं. वो दत्त साहब थे, अचंभित करने की हद तक सहानुभूति से भरे हुए और आश्चर्यजनक रूप से विनम्र और दयालु, एक कमाल के इंसान.
मेरे इलाज के दौरान वो अक्सर वहां आते और उनकी धूप जैसी चमकदार और गर्मजोशी भरी मुस्कान से मेरी सेहत में हो रहे सुधार को एक नई ऊर्जा मिल जाती. वो तब मजबूत और सेहतमंद दिखते थे और हर सुबह 6 बजे सेंट्रल पार्क में जॉगिंग करते थे.
‘संजू’ फिल्म देखते समय मैं खुद को ये कयास लगाने से रोक नहीं पाया कि कहीं संजय दत्त के मैनहैटन में स्ट्रिप क्लब जाने की जो घटना फिल्म में दिखाई गई है, वो कहीं उसी शाम की तो नहीं है. कौन जाने !
आखिरकार, मैं ठीक हो गया और भारत लौटा. मैंने एमबीए की पढ़ाई पूरी की और कुछ दूसरे काम करते हुए इंडिया टुडे की मासिक वीडियो न्यूज मैगजीन न्यूजट्रैक के लिए काम करने लगा. इस बीच, दत्त साहब राजनीति में आ गए थे और कांग्रेस की तरफ से लोकसभा के लिए चुने गए थे. इस चुनाव में उन्होंने मुंबई नॉर्थ सीट पर राम जेठमलानी जैसे बड़े दिग्गज को हराया था. (इस लोकसभा सीट से उन्होंने पांच बार जीत हासिल की और कभी नहीं हारे. सच कहूं, तो वो ऐसे इंसान थे कि कोई भी चुनाव क्षेत्र उन्हें हराने के लिए वोटिंग नहीं कर सकता था.)
1980 के दशक के बाद के दिनों में उन्होंने दो बड़ी पदयात्राएं कीं, एक मुंबई से अमृतसर तक और दूसरी नागासाकी से हिरोशिमा तक. आतंकवाद से जूझते पंजाब में उनका सफर किसी चमत्कार से कम नहीं था. वो निहत्थे और बिना सुरक्षा के घूम रहे थे. लेकिन किसी ने उन्हें नुकसान नहीं पहुंचाया. शांति बहाली के लिए निकली उनकी ये पदयात्रा स्वर्ण मंदिर के हरमंदिर साहेब में जोरदार स्वागत के साथ पूरी हुई. हिंसा से भरे पंजाब ने शांति दूत बनकर आए अपने बेटे को सलाम किया था.
उन वर्षों के दौरान दो बार हमारा आमना-सामना हुआ. हर बार उन्होंने ही पहल की और मुझसे मुखातिब हुए. (मैं हमेशा ये सोचकर हिचकता रहा कि पता नहीं उनके जैसी बड़ी हस्ती को ये याद भी होगा या नहीं कि मैं कौन हूं.) लेकिन उनका प्यार हमेशा ही छलक पड़ता था : "मैं जब भी तुम्हें न्यूजट्रैक पर देखता हूं, मेरा सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है. मैं आसपास बैठे तमाम लोगों से कहता हूं, देखो इस लड़के ने कितनी बहादुरी से मुकाबला करके जीत हासिल की है. भगवान तुम पर मेहरबानी बनाए रखे मेरे बच्चे, मुझे तुम पर गर्व है." हां, ये सारी बातें वो शुद्ध पंजाबी में बोलते थे. मैंने सिर्फ उनकी गर्मजोशी भरी भावनाओं का आसान भाषा में अनुवाद करने की कोशिश की है.
उनसे मेरी सबसे बेशकीमती मुलाकात मई 2005 के आखिरी हफ्ते में हुई. ये मुलाकात जेट एयरवेज की दिल्ली-मुंबई फ्लाइट में हुई थी. मेरी सीट थी 1F और वो गलियारे के दूसरी तरफ 1A पर बैठे थे. हमेशा की तरह मुझे लग रहा था कि पता नहीं वो मुझे पहचानेंगे या नहीं, लेकिन मैं कितना बेवकूफ था.
पंजाबी में एक आवाज गूंज उठी : "की हाल है त्वाडा?" (क्या हाल है तुम्हारा?)
मैं अपनी सीट से उठा और गलियारे में आकर बोला, "मैं ठीक हूं सर, आप कैसे हैं?"
दत्त साहब (जो कमजोर दिख रहे थे और हाथ में एक छड़ी ले रखी थी)
: "आज बहुत ठीक नहीं हूं. मुझे बुखार हो गया है. इसलिए मैं मुंबई वापस जा रहा हूं. पूरे वीकेंड बच्चों के साथ घर पर आराम करूंगा. बहल साहब कैसे हैं? अब भी देहरादून में ही हैं? उम्मीद है ठीक होंगे?"
मैं : दुर्भाग्य से अब वो नहीं रहे, सर. लेकिन अपने आखिरी वक्त तक उन्होंने आपको एक सच्चे दोस्त के तौर पर हमेशा याद किया."
दत्त साहब (ध्यान रहे, ये सारी बातें पंजाबी में हो रही थीं) : ओह...कितने दुख की बात है. तुम्हारे पिता एक शानदार इंसान थे, एक बहुत अच्छे दोस्त. चलो, वो स्वर्ग में खुश होंगे, रब राक्खा. लेकिन तुम बहुत बढ़िया कर रहे हो बेटे. मैं तुम्हारे सभी टीवी चैनल देखता हूं. बहुत शानदार. तुम्हारे बिजनेस प्रोग्राम बहुत इंटेलिजेंट होते हैं. तुम्हें तो पता होगा कि मैं अब केंद्रीय खेल मंत्री हूं, पता है न? ये एक युवा लोगों का मंत्रालय है, इसलिए सिर्फ तुम्हारे जैसे युवा लोग ही मुझे अच्छे आइडिया दे सकते हैं. अगले हफ्ते दिल्ली लौटने के बाद मैं तुम्हारे ऑफिस आकर तुमसे मिलूंगा, ताकि हमारे खेलों को आगे बढ़ाने के बारे में तुमसे कुछ नए आइडिया ले सकूं."
मैं : "सर, आप क्यों तकलीफ करेंगे, मैं आपके ऑफिस आ जाऊंगा. ये मेरी ड्यूटी है."
दत्त साहब : "ओह, नहीं यार. मेरा काम हैगा, ते मैं ही आवांगा."
(मैंने ये वाक्य पंजाबी में ही रहने दिया, ताकि आप उनकी बोली में झलकती विनम्रता को बेहतर ढंग से समझ सकें. वैसे इसका मतलब है, "नहीं मेरे दोस्त. ये मेरा काम है, इसलिए मैं ही तुम्हारे पास आऊंगा.")
विमान उड़ान भरने ही वाला था, इसलिए मैं अपनी सीट पर लौट गया और अपनी डायरी में नोट किया कि "अगले हफ्ते दत्त साहब को फोन करके उनके ऑफिस में एक मीटिंग तय करनी है."
मैं दत्त साहब जैसी अनमोल शख्सियत से उस आखिरी मुलाकात के लिए भगवान को हमेशा धन्यवाद देता हूं. उस दिन मानो किस्मत के सितारों ने ही मेरी मुलाकात उस महान शख्स से करवाई थी, जिन्होंने
मुझे और मुझ जैसे लाखों लोगों को न जाने कितना कुछ दिया, पूरी तरह निस्वार्थ भाव और खुले दिल के साथ भर-भरकर दिया.
आपकी आत्मा को शांति मिले सर. मुझे खुशी है कि संजू में आपका किरदार बिलकुल वैसा ही है, जैसे कि आप सचमुच में थे....एक संत.
( ये आर्टिकल पहली बार क्विंट हिंदी पर 07.07.18 को पब्लिश किया गया था )
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Published: 07 Jul 2018,12:55 PM IST