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तीन महीने पहले जब सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने नोएडा के सुपरटेक टावरों को गिराने का आदेश दिया तो लोगों को उम्मीद थी कि कुछ बड़ा होने वाला है. लोगों को हटाया जाएगा, दोषियों को जल्द जेल जाना होगा और टावरों को गिरा दिया जाएगा.
इसके बदले सुपरटेक इमारत को गिराने के लिए उसकी ओर से प्रस्तावित नामों पर फैसला न लेने के लिए नोएडा अथॉरिटी पर ही आरोप लगाते हुए बेहिसाब पैसे खर्च कर रही है.
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के मुताबिक दिए गए तीन महीने की बात तो छोड़ ही दीजिए, सुपरटेक का कहना है कि उसे पांच महीने का समय चाहिए. ये तब है जब काम शुरू भी नहीं हुआ है.
इस बीच इमारत के नीचे से गुजरने वाली एक गैस पाइपलाइन ने एक और मुश्किल खड़ी कर दी है, जिससे इस बात की संभावना बढ़ गई है कि इसे गिराना खतरनाक हो सकता है, हालांकि सुरक्षा के पहलू पर किसी विशेषज्ञ की राय का साफ तौर पर जिक्र नहीं है.
नोएडा की सीईओ ऋतु माहेश्वरी हैरत में हैं. उनके नेतृत्व में चार निदेशकों सहित नोएडा के 26 अधिकारियों, डेवलपर और दो आर्किटेक्ट को एफआईआर में आरोपी बनाया गया है जो सुपरटेक स्कैम के मुख्य आरोपियों की पहचान करता है.
एक अनौपचारिक बातचीत में उन्होंने मुझसे कहा:
जैसे-जैसे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (NCR) में शहरों का विकास हुआ, बढ़ते हुए परिवारों और युवा महत्वाकांक्षी मध्यम वर्ग के लिए हाउसिंग एक बड़ी चुनौती बन गया. बिल्डर्स ने इस मौके को पहचाना और अपार्टमेंट कॉम्प्लेक्सों में फ्लैट की दलाली और पहले से विकसित प्लॉट की खरीद-बिक्री कर बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए कदम बढ़ाया. सत्ता में बैठे लोगों के साथ अपने सामाजिक संबंधों का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने विकास प्राधिकरणों के टाउन प्लानिंग, लैंड और हाउसिंग ऑफिसों के अंदर नेटवर्क तैयार किया.
1980 के दशक तक, दिल्ली और NCR में हाउसिंग सेक्टर का प्रबंधन करीब-करीब पूरी तरह से दिल्ली विकास प्राधिकरण (DDA), NOIDA, ग्रेटर NOIDA, गाजियाबाद डेवलपमेंट अथॉरिटी (GDA) और हरियाणा अर्बन डेवलमेंट अथॉरिटी (HUDA) जैसे प्राधिकरणों के हाथों में था.
इन्होंने या तो उच्च और मध्यम आय वर्ग के खरीदारों के लिए साधारण लेकिन काम में आने लायक फ्लैट बनाए या प्लॉट तैयार किए जिन्हें घर बनाने वाली कोऑपरेटिव सोसाइटी को आवंटित किया जाता था जिनके सदस्यों के कुछ साझा हित थे.
नियमों को लेकर बड़े, रिएल एस्टेट डेवलपर्स की एंट्री की कभी योजना बनाई ही नहीं गई थी. ऐसा करने की क्षमता कभी तैयार नहीं की गई, खरीदारों की चिंताओं की रक्षा के लिए नियम बनाने की बात तो छोड़ ही दीजिए.
उस समय विकसित जमीन की कमी थी और ज्यादातर लोगों के लिए एक सुरक्षित कॉलोनी में एक फ्लैट खरीदने का विकल्प आकर्षक हो गया था.
हरी-हरी घास, सुंदर इंटीरियर्स और टेनिस कोर्ट और यहां तक कीस्विमिंग पूल, वॉकवे जैसी सुविधाओं से आकर्षित एक महत्वाकांक्षी मध्यम वर्ग, साथ ही सेवानिवृत्त लोगों- प्रोफेशनल्स, सरकारी कर्मचारियों, सेना के कर्मचारियों- ने इन अपार्टमेंट्स में निवेश किया.
इन लोगों में से ज्यादातर ने किसी भी दावे की जांच नहीं की और आश्वासनों और एजेंट की ओर से इसी तरह का निवेश करने वालों लोगों के बताए नामों से प्रभावित होकर खुद निवेश किया.
जैसे-जैसे समय बीतता गया, कोई भी निर्माण का काम ऐसा नहीं था जो निवेश को सही बताता हो. काफी कम या कोई भी निर्माण काम नहीं होने के कारण वादे के मुताबिक काम पूरा होने करने की अंतिम तारीख को कई सालों तक आगे बढ़ाया गया. असहाय खरीदारों को पता चला कि उनके पैसे कमर्शियल फायदे के लिए दूसरे मलाईदार काम में लगा दिए गए हैं.
ये प्रोजेक्ट-अस्पताल, होटल, मॉल और रेसकोर्स- का निर्माण मामूली साधनों वाले लोगों की मेहनत की गाढ़ी कमाई से किया गया था. जब वादा किए गए हाउसिंग प्रोजेक्ट पर आखिरकार काम शुरू भी हुआ तो डेवलपर ने कई अनिवार्य निर्माण नियमों की अनदेखी की. आश्चर्यजनक रूप से टाउन प्लानर्स, विकास प्राधिकरण और शहरी विकास के प्रभारी प्रमुख अधिकारियों ने इस पर आंखें मूंद लीं.
एक महत्वाकांक्षी मध्यम वर्ग- युवा या वृद्ध अपनी मेहनत से कमाई गई बचत की रकम या बड़ा लोन लेकर चुकाई गई रकम गंवा चुका था-उन्होंने सिर्फ खुद को ठगा हुआ पाया.
अंत में सुप्रीम कोर्ट ने दखल दिया, और इसके बाद से कई बेईमान बिल्डर (या ‘रिएल एस्टेट डेवलपर्स’, जैसा कि वो खुद को कहते हैं) जांच, NCLT की कार्रवाई और उनकी प्रमुख संपत्तियों की नीलामी का सामना कर रहे हैं. कुछ जमानत पर हैं और कुछ जेल में भी हैं.
देर से चल रही या अधूरी योजनाओं के लिए पैसा जुटाने को लेकर स्ट्रेस्ड एसेट फंडिंग और बैंकिंग चैनल को लगाया गया. लेकिन ये एक-एक मामले के आधार पर किया जा रहा है वो भी मामला अदालत में जाने के बाद ही. लेकिन उन हजारों छोटे प्रोजेक्ट का क्या जहां खरीदारों को अधर में छोड़ दिया गया है और उनके पास कोर्ट में केस लड़ने के लिए संसाधन नहीं हैं?
जब एक के बाद एक घोटाले सामने आने लगे, तब आखिरकार सरकार की नींद खुली. खरीदारों की परेशानी खत्म करने और बिल्डर्स अपने वादों पर कायम रहे इसके लिए द रिएल एस्टेट (रेग्युलेशन एंड डेवलपमेंट) बिल 2013 में संसद में पेश किया गया. ये विधेयक 2016 में कानून बन गया (अब इसे देश भर में RERA कहा जाता है).
सौभाग्य से कानून लागू होने से पहले जिन प्रोजेक्ट को कंप्लीशन सर्टिफिकेट नहीं मिला था उन्हें भी इसमें शामिल किया गया. कानून के मुताबिक ये भी जरूरी है कि खरीदारों के पैसे का कम से कम 70 फीसदी एक अलग अकाउंट में रखा जाए जिसे केवल उस विशेष प्रोजेक्ट के निर्माण के लिए बिल्डरों को जारी किया जाएगा. पैसे का दूसरी जगह इस्तेमाल प्रभावी तरीके से रोक दिया गया है.
कवर्ड एरिया को भी परिभाषित किया गया है और सुपर बिल्ट एरिया को इससे अलग कर दिया गया है- जिस चाल काइस्तेमाल बिल्डर्स कारपेट एरिया को दिखाने के लिए करते थे. बिल्डर्स अब खरीदार की सहमति के बिना मूल परियोजना में कोई बदलाव भी नहीं कर सकते और देरी होने पर खरीदार को पैसे वापस देने होंगे.
महत्वपूर्ण ये भी है कि प्रोजेक्ट के रजिस्ट्रेशन के बिना उसका प्रचार, बिक्री और यहां तक कि प्लॉट और अपार्टमेंट बुक करने की भी अनुमति नहीं है.
हाउसिंग एंड अर्बन अफेयर्स मिनिस्ट्री (आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय) के RERA ट्रैकर के मुताबिक नवंबर 2021 के आखिर तक करीब-करीब सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने कानून के तहत नियमों की अधिसूचना जारी कर दी है और रिएल एस्टेट रेगुलेटरी अथॉरिटीज (पश्चिम बंगाल को छोड़कर) का गठन कर दिया है. ज्यादातर ने ट्राइब्यूनल बनाया है और उनके वेबसाइट काम कर रहे हैं. अब तक, पूरे भारत में 72,000 से ज्यादा प्रोजेक्ट रजिस्टर किए जा चुके हैं. उत्तर प्रदेश के RERAने अब तक सबसे ज्यादा 32,000 मामलों का निपटारा किया है.
उत्तर प्रदेश RERA के अध्यक्ष राजीव कुमार का कहना है कि “ये हैरानी की बात नहीं है”. उनका कहना था कि “आखिरकार पूरे भारत की 40 फीसदी शिकायतें यूपी में दर्ज की गई हैं और इनका 80 फीसदी NCR इलाके से है”. असली परिणामों का ठोस आंकड़ा देते हुए कुमार ने मुझे बताया कि
गुजरात RERA, जिसने 3000 से ज्यादा मामलों का निपटारा किया है, के चेयरमैन अमरजीत सिंह का कहना है कि “ करीब 2.65 लाख करोड़ के निवेश की संभावना वाले करीब 10,000 प्रोजेक्ट रजिस्टर कराए गए हैं- जो पैसों के मामले में महाराष्ट्र के बाद सबसे ज्यादा हैं.”
वो आगे कहते हैं “ ऑनलाइन सबमिशन की अनुपालन दर 95 फीसदी है और आर्किटेक्ट, सिविल इंजीनियर और सीए की ओर से फाइल रिटर्न की अनुरूपता के लिए जांच की जाती है. इससे 85 फीसदी प्रोजेक्ट का समय पर काम पूरा होना सुनिश्चित हुआ है. स्टेकहोल्डर्स-मुख्य रूप से खरीदारों की 85 फीसदी शिकायतों को पहले ही दूर किया जा चुका है.”
दिल्ली में RERA के अध्यक्ष आनंद कुमार अफसोस जताते हुए कहते हैं कि कानून के बावजूद जनता में जागरूकता की काफी कमी है. यहां तक कि पढ़े-लिखे लोग भी जो किसी बड़े पद पर रह चुके हैं, शांत बैठे रहते हैं. उन्होंने कहा कि “ दिल्ली में हम जिला स्तर पर जागरूकता अभियान चलाने की योजना बना रहे हैं.”
आनंद कुमार से पहले दिल्ली RERA के अध्यक्ष रहे विजय मदन जिन्होंने दशकों तक शहरी जटिलताओं को देखा है कहते हैं:
मेरा निष्कर्ष ये है: साफ तौर पर चीजें बदल रही हैं और कॉरपोरेट सेक्टर की तरह जहां सख्ती की गई है, रिएल एस्टेट सेक्टर के लिए भी विनियमन का सामना करने का समय आ गया है. RERA लागू होने के कारण दलाल खरीदारों को झूठे वादों, बढ़िया और अतिरिक्त सुविधाओं से लुभा नहीं सकते.
चूंकि रजिस्ट्रेशन के वक्त और बुकिंग के वक्त दी जाने वाली सभी सुविधाओं को दस्तावेजों में शामिल करना होता है इसलिए ग्राहक को धोखा नहीं दिया जा सकता है.
सुरक्षा की भावना बढ़ने के साथ ही, पिछले महीने ही, सुप्रीम कोर्ट ने RERA को उन बिल्डरों पर भी लागू करने के फैसले को बरकरार रखा है जिन्होंने कानून लागू होने से पहले कंप्लीशन सर्टिफिकेट नहीं लिया था.
तकनीक के इस्तेमाल के साथ, शिकायतों के जल्द से जल्द निपटाने पर ज्यादा ध्यान देकर भारत के रिएल एस्टेट सेक्टर को जल्द सुव्यवस्थित किया जा सकता है या जैसा कि ऋतु माहेश्वरी कहती हैं “ अगले दो-तीन सालों के अंदर भी”.
लेकिन अभी के लिए इंसाफ होना चाहिए और होता हुआ दिखना भी चाहिए. सुपरटेक मामले में देश को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के पालन का इंतजार है.
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