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बस 9 सेंकड.
भ्रष्टाचार की बुनियाद पर खड़े 30 से ज्यादा मंजिलों वाले नोएडा के दो दैत्याकार टावर (Supertech Twin Tower Demolition) ध्वस्त हो गए. मैं सामने के अपार्टमेंट में रहता हूं. सो टीवी के स्क्रीन पर नहीं, अपनी आंखों के सामने इन इमारतों को गिरते देख रहा था. चूंकि टावर गलत तरीके से बनाए गए थे इसलिए इनका टूटना अच्छी बात थी. लेकिन मेरे मन में चार तरह की भावना एक साथ आ रही थी. असामान्य, आराम, आह्लाद और अफसोस.
क्योंकि ये मंजर एक लाइफ टाइम अनुभव था. असामान्य था. विध्वंस किसी भी लिहाज से खूबसूरत नहीं होता. लेकिन ये था. इस तोड़फोड़ में जैसे एक लय थी. लग रहा था ये कल्पना है. लेकिन था ये सच. आंखों के सामने. असामान्य सच.
क्योंकि ये इंसानों ने किया था. दुनिया में कई और जगह ऐसा हो चुका था. लेकिन अपने इतने करीब देखना अहसास करा रहा था कि ये कितना चुनौतिपूर्ण काम था. इस चुनौतिपूर्ण काम में मेरा रत्तीभर योगदान न था, लेकिन पता नहीं क्यों गर्व का अहसास हो रहा था. लग रहा था कि ये इंसानों की तमाम उपलब्धियों में से एक है. सालों में तैयार हुए टावरों को इंसानों ने 9 सेकंड में गिरा दिया. कोई ग्लिच नहीं, कोई दिक्कत नहीं. सबकुछ स्मूद. ये तकनीक का कमाल ही है. वो तकनीक जिसे इंसानों ने बनाया है. इंसान क्या नहीं कर सकता!
आह्लाद की दूसरी वजह. इस देश में फ्लैट बायर के लिए बिल्डर को हराना एवरेस्ट चढ़ने जैसा है. लेकिन जिनके घुटनों में बहुत जान नहीं बाकी थी, ऐसे चार बुजुर्गों ने एक बड़े बिल्डर को घुटनों पर ला दिया. ये एक माइलस्टोन इवेंट है. क्योंकि आज के बाद जब भी कोई बिल्डर अवैध निर्माण करेगा, सरकारी अफसरों को पैसा खिलाकर परमिट लेगा तो गिरते हुए सुपरटेक ट्विन टावरों का डरावना मंजर उसकी आंखों के सामने तैर जाएगा. फिर कोई बिल्डर अगर ऐसा करप्ट प्लान बनाएगा तो उसके हाथ एक बार कांपेंगे जरूर.
जब इन टावरों के गिरने की तारीख करीब आई तो मैंने 2020 में कोच्ची में ऐसे ही डेमोलिशन का वीडियो देखा था. वो भी चुनौतीपूर्ण था. लेकिन वहां आसपास जगह थी. यहां नहीं थी. यहां टावरों से एकदम सटी इमारतें थीं. ये ऑपरेशन नहीं था, तलवार की धार थी. जरा सी चूक और ये ऑपरेशन आपदा बन जाता. लेकिन सबकुछ सटीक हुआ. आसपास की किसी इमारत को कोई नुकसान नहीं हुआ.
एडिफिस इंजीनियरिंग और साउथ अफ्रीकी कंपनी जेट डिमोलिशन ने कमाल का काम किया. एडिफिस इंजीनियरिंग के चेतन दत्त जिन्होंने डेमोलिशन का बटन दबाया, उन्होंने कहा-
चूंकि मेरा फ्लैट भी करीब है इसलिए धूल से डर था. वैसे तो दरवाजे-खिड़कियां बंद थीं, लेकिन सुराखों से आफत के घुसने का डर था. लेकिन शुक्र है हवा उल्टी दिशा में बह रही थी. हमारी तरफ धूल का एक कण भी नहीं आया. राहत...आराम. धूल के 7 दिन तक रहने की भविष्यवाणी की गई थी. अब भी धूल है लेकिन बिना एक्सपर्ट होते हुए भी कह सकता हूं कि स्थिति बहुत भयावह नहीं है. भगवान करे बारिश हो जाए और रही सही धूल भी नीचे आ बैठे.
बिल्डर के टावर गिरे. टावरों में फ्लैट खरीदने वालों के सपने डेमोलिश हुए. लेकिन किसी को भी विध्वंस देखना अच्छा नहीं लगता. पिछले 6-7 साल से सुबह-शाम अपनी बालकनी से खड़े होकर इन दो टावरों को देखता था. जैसे सुबह की चाय के साथी थे. अब नहीं हैं. खालीपन का अहसास है.
बार-बार एक सवाल मन में आता है. क्या इन्हें बचाया जा सकता था? क्या 700 करोड़ की एसेट की बर्बादी रोकी जा सकती थी? इसका हो या उसका हो, आखिर ये देश का ही तो था. एक संपत्ति जो खत्म हो गई. क्या ये बचाई जा सकती थी? बचाई जानी चाहिए थी? अफसोस इन सवालों का अब कोई मतलब नहीं.
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