मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019मोदी के फिर से पीएम बनने की संभावना अब 50% से भी कम : सर्वे

मोदी के फिर से पीएम बनने की संभावना अब 50% से भी कम : सर्वे

वादे पूरे करने में नाकामी, बढ़ती बेरोजगारी और ग्रामीण संकट की वजह से लोगों में मोहभंग बढ़ता चला गया.  

नीलांजन मुखोपाध्याय
नजरिया
Updated:
एबीपी न्यूज के सर्वे में सामने आया देश की जनता का मूड़
i
एबीपी न्यूज के सर्वे में सामने आया देश की जनता का मूड़
फोटो: द क्विंट

advertisement

एबीपी न्यूज पर प्रसारित सी-वोटर के सर्वे के नतीजे की आखिरी लाइन, वास्तव में हेडलाइन होनी चाहिए थी:“इस सर्वेक्षण के लिए जमीनी काम प्रियंका गांधी के कांग्रेस में एंट्री से पहले ही कर लिया गया था”.

इंडिया टुडे और कार्वी के सर्वे ‘मूड ऑफ द नेशन’ पर आधारित द क्विंट की रिपोर्ट में भी कहा गया है कि ये प्रियंका गांधी की नियुक्ति से प्रभावित नहीं है.

इस वजह से ये दोनों सर्वेक्षण निश्चित रूप से पहले से ही ऐतिहासिक बन गया है. अगर ये मान लेते हैं कि हम जानते हैं कि सर्वे कैसे कराए जाते हैं,खासकर उसके तरीके और सैंपल साइज के लिहाज से.

तो भी ये दोनों सर्वेक्षण इस बात की ओर साफ इशारा कर रहे हैं कि वास्तव में कैसी तस्वीर होने वाली है. ये महत्वपूर्ण संकेत है जिससे पता चलता है कि हवा किस ओर बह रही है.

अगस्त 2017 से सत्ताधारी दल के लिए हालात कभी अच्छे नहीं हुए. उस समय जीएसटी लागू हुआ था और दूसरी आर्थिक अव्यवस्था का पहला संकेत दिखने लगा था. नोटबदली, जो अपना उद्देश्य हासिल नहीं कर पाया, के 20 महीने के भीतर लोग इस सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर अपनी नाराजगी जताने लगे थे.

वादे पूरे करने में नाकामी, बढ़ती बेरोजगारी और ग्रामीण संकट की वजह से लोगों में मोहभंग बढ़ता चला गया.

पहले इस नाराजगी को दबा दिया जाता था लेकिन जीएसटी लागू किए जाने के बाद लोगों ने अपना गुस्सा जाहिर करना शुरू कर दिया. खासकर लोग ये मानने लगे थे कि मोदी अपने उन तौर-तरीकों को ज्यादा तरजीह देते हैं जिसका ज्यादा महत्व नहीं होता. फिर दिसंबर 2017 में हुए गुजरात विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे करीब आ रहा था, खतरे की घंटी बजने लगी थी.

उसके बाद से, भारतीय जनता पार्टी और मोदी की व्यक्तिगत लोकप्रियता में गिरावट नहीं रुकी. इन दोनों सर्वेक्षण से बीजेपी के लिए सबसे ‘अच्छी खबर’ यह आई कि पार्टी की गिरती लोकप्रियता, पार्टी के लोग जिसे कल्पना की बात कहते थे, में ‘गिरावट की दर’ पहले के मुकाबले कम हुई है.

इन सर्वेक्षण से जो बड़ा अनुमान लगाया जा सकता है, वह यह है कि जब तक यह रुख नहीं पलटता, इस बात की पूरी संभावना है कि 2024 में होने वाले संसदीय चुनाव से पहले देश को एक और संसदीय चुनाव देखना पड़ेगा.

2014 का फिर दोहराव नहीं?

अब तो ये निश्चित हो चुका है कि अगर कोई नाटकीय बात ना हो जाए या फिर कोई ऐसी लहर ना चल रही हो, जो दिख नहीं रहा हो, तो कोई भी पार्टी अपनी बदौलत बहुमत हासिल करने नहीं जा रही. हम 2014 के चुनाव को एक असाधारण चुनाव घोषित करने जा रहे हैं- चुनावों के युग में एक ही बार होने वाला.

अब तो ये लगभग तय हो चुका है कि इस चुनाव का नतीजा एक गठबंधन सरकार होगा, जिसमें कई सारे भागीदार होंगे. मनमोहन सिंह की शब्दों में कहें, तो “गठबंधन सरकारों की मजबूरी”.

इसकी वजह से गठबंधन के भागीदारों को दबाने की प्रथा, जैसा कि 2014 के बाद देखा गया, पर रोक लगानी होगी. एक या दो साझेदारों की वजह से सरकार को अपसंख्यक का दर्जा हासिल होने का खतरा अब बढ़ जाएगा. जबकि मोदी को ऐसे किसी खतरे का सामना नहीं करना पड़ा था.

जब तक शासन की बागडोर संभालने वाले शख्स में असाधारण रूप से कोई ऐसा गुण ना हो, जिसके दम पर सभी भागीदारों की परस्पर विरोधी आकांक्षाओं को पूरी कर सके, गठबंधन अपने बोझ के तले ही ढह सकता है.

संसद में राजनीतिक समीकरण के आधार पर, इस तरह के हालात में नए सिरे से चुनाव की संभावना ज्यादा है. दरअसल वैकल्पिक सरकार अब मुमकिन नहीं.

इन सर्वेक्षणों में दूसरी महत्वपूर्ण बात मोदी के दोबारा पीएम बनने की संभावनाओँ को लेकर है. मार्च 2017 में जब उमर अब्दुल्ला ने मोदी की वापसी को लेकर बयान दिया था तो वैसी स्थिति थी. लेकिन अब नहीं. लेकिन अगस्त 2017 के बाद से जिस तरह से लोगों में गुस्सा बढ़ता जा रहा है, मोदी की वापसी पर संदेह के बादल मंडरा रहे.

गुजरात में मुश्किल से बहुमत हासिल कर सरकार बनाने, कर्नाटक में पीछे से निकलकर सरकार बनाने और सत्ता विरोधी बड़ी लहर के बावजूद मध्यप्रदेश और राजस्थान में लगभग कांग्रेस जैसा प्रदर्शन करने के बीच मोदी की स्थिति लगातार स्थिर बनी हुई है.

इस दो सर्वेक्षण और राजनेताओं, चुनाव विश्लेषकों, आंकड़ों के विशेषज्ञों और चुनाव प्रक्रिया में लगे लोगों से बातचीत के आधार पर व्यक्तिगत मूल्यांकन के बाद यह तार्किक रूप से निश्चित लग रहा है कि प्रियंका की राजनीति में प्रवेश के बाद से मोदी के फिर से प्रधानमंत्री बनने की संभावना पहली बार 50% के नीचे चली गई है.

खेलकूद के शब्दों में कहें, तो प्रधानमंत्री अब “सुरक्षित क्षेत्र’ में नहीं हैं.

भारत की भावना परखने का यह एक बहुत बड़ा समय है और दो कारणों से यह नतीजा निकला है. पहला, चाहे जो भी वजह हो, ओपिनियन पोल और सर्वेक्षण हमेशा से ‘रूढ़िवादी’ और ‘सुरक्षित खेल’ होते हैं. 2014 में, चुनाव पूर्व हुए किसी भी सर्वेक्षण में ये अनुमान नहीं लग पाया था कि मोदी के नेतृत्व में बीजेपी के पक्ष में लहर है.

हालांकि सभी ये अनुमान जरूर लगा पा रहे थे कि कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए के मुकाबले बीजेपी को अच्छी बढ़त हासिल हो रही है. ज्यादातर जनमत सर्वेक्षणों में यही आदर्श रहा है.

अगर मौजूदा हालात में पुराने रुझानों को लागू किया जाता है, तो इसका मतलब है कि मोदी के करिश्मे में अनुमान से ज्यादा कमजोरी है

परिणामस्वरूप, राहुल गांधी और क्षेत्रीय दलों, दोनों की लोकप्रियता का जितना अनुमान लगाय गया था, उससे ज्यादा है.

दूसरा, और ये ज्यादा महत्वपूर्ण है, दोनों ही सर्वेक्षणों ने एनडीए को 230-240 के दायरे में सीट दिया है और यूपीए को 165-170 के बीच. अन्य को 140 और 150 सीटें दी जा रही हैं. बीजेपी को केवल 200 के करीब ही सीट मिलेगी.

मोदी के दूसरे कार्यकाल पर अनिश्चितता

1996 से लोकसभा में बीजेपी-कांग्रेस के सीटों की संख्या 283 (2004) से 326 (2014) के बीच रही है. अगर चुनाव पूर्व का अनुमान देखें, तो इस बार ये 300 के करीब रहने वाला है. अगर बीजेपी को 200 सीटें मिल रही हैं तो कांग्रेस को 100 सीटें मिलेंगी.

जिस तरह से मोदी बड़े पैमाने पर ‘पसंद’ और ‘नापसंद’ किए जा रहे, कोई भी कह सकता है कि उनके प्रधानमंत्री बनने की संभावना केवल उसी हालत में ज्यादा होगी, जब बीजेपी 200 के आंकड़े को पार कर लेती है. बीजेपी को इससे जितनी भी कमी सीटें मिलेंगी, मोदी के दूसरे कार्यकाल की 50% से कम संभावना की मौजूदा स्थिति में और गिरावट आएगी.

200 से जितनी भी कम सीटें बीजेपी को मिलेंगी, यह सांकेतिक रूप से सरकार/मोदी के खिलाफ जनादेश होगा. इससे पहले, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने एक नैतिक स्थिति तय की है कि हारने वाले को सरकार में नहीं होना चाहिए. 1998 में इसने चुनाव हारने पर प्रमोद महाजन और जसवंत सिंह को वाजपेयी सरकार में मंत्री बनाने से रोक दिया था.

आरएसएस राजनीति पर तात्कालिक रूप से फैसले नहीं करता. और यह मुट्ठी भर नेताओं की जमात भी नहीं है जो फैसले कर सके. इस बात की संभावना ज्यादा है कि बीजेपी के सरकार बनाने की स्थिति में भी आरएसएस बीजेपी में मोदी के विकल्प को लेकर चर्चा करे. मोदी के लिए हालात तभी बदलेंगे जब वो संकट में लाचार होने की स्थिति में आने से बचें.

मोदी करीब दो सालों तक जनमत को अपने पक्ष में करने में असफल रहे हैं और अब जरूरत है कि स्वतंत्रता के 75वें साल में वो पूरे जोश के साथ अपने लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ें.

और उनके पास अब अधिक समय नहीं है. सबसे बड़ा सवाल है कि क्या वो आखिरी लड़ाई को बेहतरीन तरीके से लड़ने की रणनीति में सफल हो पाएंगे?

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: 27 Jan 2019,11:24 AM IST

Read More
ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT