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भारतीय राजनीति के आकाश पर अब एक और नई पार्टी का उदय हो चुका है. चुनावी विश्लेषक और खोजी कार्यकर्ता योगेन्द्र यादव तथा अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने स्वराज इंडिया को नई राजनीतिक पार्टी के रूप में स्थापित करने की घोषणा की है. भारत में पहले से ही 1600 से अधिक राजनीतिक दल पंजीकृत हैं. इसके बाद, कोई शायद ही यह आश्चर्य करे कि यह नई पार्टी देश की राजनीति में कोई खास बदलाव लाने वाली है. क्या यह देश के राजनीतिक पटल पर कोई विशेष परिवर्तन दर्ज करने जा रही है? क्या स्वराज इंडिया कोई खास अंतर पैदा करेगी?
खुलकर कहें, तो स्वराज इंडिया ने अपनी स्थापना सभा के दिन सभी सही मुद्दों पर अपनी आवाज बुलंद की. राजनीतिक दल के रूप में गठन के उद्देश्य के बारे में बताते हुए, यह दावा करती है, कि
स्वराज इंडिया द्वारा बताये गए उनके कुछ खास गुणों में शामिल है: इसने स्वेच्छा से स्वयं को RTI एक्ट के अंतर्गत शामिल किया है, इसमें जन भागीदारी पर आधारित उम्मीदवारों के चयन की पादरर्शी और नयी प्रक्रिया होगी और जिसमें विधायकों पर कोई दबाब नहीं होगा लेकिन सौदेबाजी की मनाही होगी़.
इसके अलावा, पार्टी बताती है, कि इसने
स्वराज इंडिया द्वारा सभी सही शोर मचाने के बाबजूद भी, दिमाग में जरूर एक सवाल लगातार उठता है कि आंदोलन से पार्टी में बदल गई पिछली कई पार्टियों का भविष्य कभी भी उज्जवल नहीं हुआ है.
हाल ही में इसका सबसे बड़ा उदाहरण आम आदमी पार्टी ही है. 2011-12 में इंडिया अंगेस्ट करेप्शन के नाम से भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन ने आप के उदय के लिए जमीन तैयार की. दिल्ली में दोनों बार बहुमत से जीतने के बावजूद भी आप, एक गंभीर राजनीतिक दल के रूप में उभरने में असफल साबित हुई जो शासन के वैकल्पिक विकल्प के तौर पर विश्वास दिलाने में सक्षम हो.
शुरुआत से ही पार्टी में, देश के भविष्य को लेकर कोई खास दृष्टिकोण नहीं था. पार्टी संगठन बिखरा हुआ है और इसके निर्वाचित प्रतिनिधियों का प्रदर्शन संतोषजनक स्तर से कहीं अधिक नीचे है.
शासन के रूप में इसके निराशाजनक प्रदर्शन के साथ, आम आदमी पार्टी ने अपने सुनहरे भविष्य की संभावना को पूरी तरह से खत्म कर दिया है.
थोड़े ही समय पहले, पूर्व आईएएस अफसर जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में लोक सत्ता दल ने संयुक्त आंध्र प्रदेश के कुछ विशेष क्षेत्रों के अलावा प्रदेश में बड़ी उम्मीदें जगायी थी.
शुरुआत में, लोक सत्ता दल एक स्वैच्छिक सेवा संगठन था जिसने बड़े राजनीतिक बदलावों के लिए आंदोलन का रूप ले लिया था. आंदोलन के नेता के रूप में, ऊर्जावान युवा पूर्व नौकरशाह जयप्रकाश नारायण भारतीय राजनीति के रूपांतरण के लिए बड़े गंभीर दिखाई दे रहे थे.
लेकिन एक सुबह, नारायण ने अपने स्वैच्छिक संगठन को एक दल का रूप दे दिया. उन्होंने चुनाव लड़E और कुछ मुठ्ठीभर सीटें भी जीती. लेकिन 2006 में अपनी स्थापना के 10 साल बाद भी यह दल समाज में अपनी गहरी पैठ बनाने में असफल होने के साथ ही राज्य में विभिन्न भागों में प्रभाव डालने में नाकाम साबित हुआ है. हाल ही में इसके संस्थापक सदस्य ने कहा कि पार्टी “कुछ समय” के लिए चुनाव लड़ने से दूर रहेगी.
2004 में, मेधा पाटकर के साथ ही अन्य लोगों के नेतृत्व में नेशनल एलायंस ऑफ पीपल मूवमेंट ने चुनाव लड़ने के लिए सत्ता को हिलाने की कोशिश की थी लेकिन यह बहुत बुरी तरह से पराजित हुईं और फिर बाद में प्रयास ही नहीं किया. मेधा पाटकर बाद में आप में भी शामिल हुईं और फिर जल्द ही छोड़कर कहा कि आप अब तमाशा बन चुकी है.
एनएपीएम से आम आदमी पार्टी के होते हुए स्वराज इंडिया तक, आंदोलन से जन्मे राजनीतिक दल बिना कोई चिह्न छोड़े मुख्यत: तीन कारणों से बहुत बुरी तरीके से हारे हैं.
पहला, उनके उदय का नाता विरोधाभासों से चिपका रहा है. वे सभी खेल के नियमों को बदलने की बात करती थीं और फिर बाद में खेल में शामिल होकर उन्हीं नियमों के साथ संतुलन बना लेती हैं. खेल के नियमों में कई कमियों का गहराई से ज्ञान होने के बावजूद भी वे भाग्य आजमाने के लालच और राजनीतिक पार्टी का विकल्प देने की संभावना की तलाश करती हैं.
लेकिन ऐसे अधिकतर प्रयास बिना किसी पूर्व तैयारी और सबसे जरूरी किसी भी प्रकार के संगठन के गठन की योजना के बिना होते हैं. यद्यापि आप ने एक बार नहीं बल्कि दो बार बेहतर जनादेश प्राप्त किया है, लेकिन यह शासन के प्रति गंभीर दल के रूप में स्वयं को स्थापित नहीं कर सकी है.
इन सभी प्रयासों की असफलता की मुख्य वजहों में से एक गंभीर कैडर निर्माण का बिल्कुल अभाव है. दूसरी मुख्य वजह विचारधारा को लेकर संदेह की स्थिति बने रहना है. हाँलाकि, इसमें कोई शक नहीं है कि ये सभी केन्द्र के विरुद्ध खड़ी हैं लेकिन सिर्फ एक मौसमी दल की तरह.
ज्यादातर मुद्दों पर जहां उनकी वामपंथी छवि राजनीतिक रूप से सही साबित नहीं होती है वे उन मौको पर स्पष्ट तौर पर कुछ कहने से बचती हैं. कई मुद्दों पर निर्णय लेने की क्षमता का अभाव उनकी छवि को और धुंधला बनाता है, और फलस्वरूप कई विरोधाभासों को जन्म देता है. इस सभी के कारण स्थिति और भी दुविधापूर्ण हो जाती है और जिससे शायद ही की कोई प्रेरणाकारी तत्व बाकि रहा हो.
भारत की 1600 से अधिक स्थापित राजनीतिक दलों में जुड़े इस नये दल के लिए, प्रभाव डालकर दिखाने से ज्यादा कहना आसान है. लेकिन कम से कम कोई यह तो अंदाजा लगा सकता है कि पार्टी संगठन निर्माण के प्रयासों में कुछ गंभीरता तो है. बिना इसके कोई भी नई पार्टी एक नया असफल प्रयास ही साबित होगी.
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