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अच्छा मुसलमान वही है, जो एक अदृश्य है. पूरी दुनिया में यही संदेश जमकर फैलाया जा रहा है. पिछले 17 सालों में दुनिया के 1.8 अरब मुसलमान सामूहिक रूप से उन चीजों के लिए जिम्मेदार ठहराए जा रहे हैं, जिसमें उस समुदाय के 1% से भी कम लोग शामिल हैं.
यहां तक कि भारत जो दुनिया की सबसे बड़ी और विविधता वाली मुसलमान आबादी का देश है. यहां भी उनके साथ एक अलग समूह जैसा व्यवहार किया जा रहा है.
हाल में भारत की रक्षा मंत्री इस बात से बौखला गईं कि राहुल गांधी ने कथित तौर पर कहा था कि कांग्रेस मुस्लिमों की भी पार्टी है. बेशक, ‘भी’ शब्द को पूरी तरह से अनदेखा कर दिया गया.
मुसलमानों की दुर्दशा पर बोलना या उसे उजागर करने पर आप तुष्टिकरण या उन्हें प्रोत्साहित करने के आरोपी होते हैं. अगर किसी सेक्युलर पार्टी ने कह दिया कि वो मुस्लिम समर्थक हैं, तो उसे फौरन मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति का आरोप लग जाएगा.
फिर भी, यदि जातीय और धार्मिक राष्ट्रवाद के समर्थक अगर कहते हैं कि वो मुस्लिम महिलाओं को मुस्लिम पुरुषों के अत्याचार से बचा रहे हैं तो उनकी इस सोच को जमकर तारीफ मिलने लगती है.
अगर आप लिंचिंग की रूटीन हो चुकी बातों की तरफ ध्यान दिलाते हैं तो आप खतरनाक हैं. अगर आप कहते हैं कि लिंचिंग में शामिल भीड़ को राजनीतिक संरक्षण हासिल है, तो इसे सांप्रदायिक राजनीति करना माना जाता है. एक भारतीय मुसलमान को इस वक्त लगातार बैकफुट में रहना पड़ रहा है. आज एक मुसलमान होने पर आप सभी मुसलमानों के प्रवक्ता हैं. भले वो अभी जिंदा हों या 500 साल पहले उनकी मौत हो चुकी हो. आखिरकार मुस्लिम ‘बाबर के पुत्र’ हैं.
बढ़ते अलगाववाद के जवाब में हाल ही में एक युवा महिला का ट्विटर हैशटैग #TalkToAMuslim वायरल हो गया. कुछ घंटों के अंदर समर्थन और विरोध में इसके हजारों री-ट्वीट हुए. कुछ लोगों ने इसके पीछे निश्चित तौर पर किसी के संरक्षण होने की बात कही, तो अन्य लोगों ने कहा कि ये लंबे समय तक जो कुछ महसूस किया गया है उसे रखने का मौका है.
शायद ये वे लोग हैं, जो रूढ़िवादी मुस्लिम जैसे नहीं दिखने के बाद भी अलगाव की भावना को महसूस कर रहे हैं. मुस्लिमों के बीच भी दूसरे अन्य धार्मिक समुदायों की तरह ऐसे लोग हैं जो आधुनिक, उदार और सेक्यूलर की पहचान रखते हैं. ज्यादातर अतिसंवेदनशील होने की इस पहली पहचान वालों ने अपनी राजनीतिक सोच से ज्यादा अपने धर्म से जुड़े मसलों पर ही बोला है.
अतिसंवेदनशीलता अक्सर एक विकल्प होता है, लेकिन कभी कभी ये समाज में स्वीकार किए जाने के दबाव से भी पैदा होती है. यहां तक कि आज भी ज्यादातर लोग स्वाभाविक रूप से ये मान लेंगे कि एक पक्का मुसलमान कभी भी राजनीतिक रूप से धर्मनिरपेक्ष और उदार नहीं हो सकता.
मुझे याद भी नहीं है कि मैंने कितनी बार खुद से पूछा कि मैं धार्मिक हूं या नहीं? कुछ इस सोच के साथ कि जैसे इस प्रश्न का उत्तर ही मेरी राजनीतिक पहचान की चाबी होगी. लेकिन जब मैं यह पूछता हूं कि क्या वे एक यहूदी, एक हिन्दू, एक सिख या फिर एक ईसाई के लिए ऐसा ही प्रश्न पूछेंगे, तो मेरा सामना एक असहज मौन से हो जाता है. मसला ये है कि आज मुस्लिम नाम वाले किसी भी शख्स के पास चिंता करने का कारण है, क्योंकि वो सिर्फ अपने नाम की वजह से टारगेट किया जा सकता है.
इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि किसी चीज में वे विश्वास करते हैं या नहीं, वे उच्च-मध्यम वर्ग की खास जमात में हैं या नहीं और ये भी कि वे खास मुस्लिम पहचान वाले कपड़े पहनते हैं या नहीं. उनका नाम ही उन्हें डराने के लिए काफी होगा और यदि मुसीबत आती हैं, तो कम से कम मुस्लिम पुरुष, अपने ट्राउजर्स नीचे कर आसानी से पहचाने जाने योग्य हैं. जैसा कि मंटो ने अपनी कहानी ‘इज़ारबंद’ में लिखा था. बेशक,अलगाव की ये भावना नई नहीं है.
खासतौर से देश के विभाजन के समय से ही मुस्लिमों से वफादारी साबित करने की उम्मीद की जाती है, जैसा कि सरदार पटेल ने घोषित किया था.
1992 में बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने के बाद अलगाव की ये भावना फिर से बढ़ी. और खासतौर से इसके बाद वे निशाने पर रहे, जो सीधे-सीधे मुस्लिम नजर आते थे.
मेरी चाची और कई और जिन्हें मैं जानता हूं, उन्हें स्थानीय दुकानदार रोज इस बात के लिए उकसाते थे कि वो पाकिस्तान चले जाएं. उनका सामना पीले और खाकी रंग के PAC के ट्रकों से होता था, जिनके किनारे पर ‘हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान और मुसलमान जाओ पाकिस्तान या कब्रिस्तान’ जैसी बातें लिखी होती थीं.
खासतौर से गरीब सामाजिक-आर्थिक परिवेश से आने वाले मुसलमानों के अंदर इन दिनों पीएसी की तैनाती कहीं-न-कहीं गहरे खौफ का अहसास करा सकती है. पीएसी में अमूमन कोई मुस्लिम न होने की वजह से ये कुख्यात है. कुछ वैसे ही जैसे हाल ही में असदुद्दीन ओवैसी ने सेना में मुसलमानों के प्रतिनिधित्व को लेकर सवाल उठाए थे.
2002 में गुजरात के अंदर पूर्व सांसद एहसान जाफरी का घर दंगा पीड़ितों के लिए शरणस्थली बन गया, क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि वहां हमला नहीं किया जाएगा। बेशक, वहां भी हमला हो गया.
बेशक, भय की ये स्थिति इतिहास से जुड़ी घटनाओं की वजह से ही है, लेकिन इसके बाद भी ऐसा लगता है कि हमारी सच्चाई की दुनिया में खुद इतिहास के लिए कोई जगह नहीं है. पर्सिया (जर्मनी और ऑस्ट्रिया) में उन्नीसवीं शताब्दी में कई यहूदियों ने खुद को मुख्यधारा में जोड़ने के लिए वो सबकुछ किया, जो वो कर सकते थे. और ऐसा करते हुए उन्होंने खुद को अधिक स्वीकार्य बना लिया.
हालांकि, परंपरावाद का विरोध करते हुए उनके उदारवाद और यहूदीवाद में आने वाले नरसंहार को टालने की क्षमता नहीं थी. यहूदियों को एक विदेशी की तरह माना जाता था और जिसके बारे में ऐसी धारणा रखी जाती थी कि उन्हें शुद्ध करने की जरूरत है. यूरोप के साथ-साथ अमेरिका में भी विरोधी यहूदीवाद जीवन के हर क्षेत्र में नजर आया.
यहूदियों ने इन देशों को अजीब मन:स्थिति में डाल दिया क्योंकि ये देश उसी तरह अपने हिसाब से राष्ट्रवाद को पारिभाषित करने की कोशिश की जैसा कि इन दिनों भारत में हो रहा है. #TalkToAMuslim को सोशल मीडिया के एक शिगूफे की तरह मानकर आसानी से खारिज किया जा सकता है, लेकिन इसे एक उदाहरण के तौर पर गंभीरता से भी लिया जा सकता है. खासतौर से ये देखते हुए कि मुसलमानों के उस छोटे से वर्ग में भी असुरक्षा और चिंता का भाव है, जो कि अपेक्षाकृत कई विशेषाधिकारों से लैस हैं.
(अली खान महमूदाबाद भारतीय इतिहासकार, राजनीतिक विश्लेषक, कवि, लेखक और अशोका युनिवर्सिटी में इतिहास और राजनीति शास्त्र के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. वो @Mahmudabad हैंडल से ट्वीट करते हैं. इस लेख में व्यक्त लेखक के निजी विचार हैं.)
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