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‘पानीपत’ हो या ‘तानाजी’, बॉलीवुड बेच रहा है हिंदुत्व का इतिहास

आतंकवाद रोधी ‘उरी:द सर्जिकल स्ट्राइक’ और ‘बेबी’ एक देश के रूप में भारत का महिमा मंडन करने वाली फिल्मों के उदाहरण हैं

आदित्य मेनन
नजरिया
Published:
आतंकवाद रोधी ‘उरी: द सर्जिकल स्ट्राइक’ और ‘बेबी’ एक देश के रूप में भारत का महिमा मंडन करने वाली फिल्मों के उदाहरण हैं
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आतंकवाद रोधी ‘उरी: द सर्जिकल स्ट्राइक’ और ‘बेबी’ एक देश के रूप में भारत का महिमा मंडन करने वाली फिल्मों के उदाहरण हैं
(फोटो: Aroop Mishra/ The Quint)

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फिल्में अक्सर अपने समय की राजनीति का आईना होती हैं. नेहरू के जमाने में फिल्मों का झुकाव समाजवाद की ओर था, मसलन ‘दो बीघा जमीन’ और ‘जिस देश में गंगा बहती है.’ फिलहाल नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी का राज है. इस दौरान उग्र राष्ट्रवाद दिखाने वाली फिल्मों का बोलबाला है.

आतंकवाद रोधी ‘उरी: द सर्जिकल स्ट्राइक’ और ‘बेबी’ एक देश के रूप में भारत का महिमा मंडन करने वाली फिल्मों के उदाहरण हैं. इनसे भी महत्त्वपूर्ण हैं वो ऐतिहासिक फिल्में और खासकर मध्यकालीन जमाने का इतिहास बताने वाली फिल्में, जिनमें हिंदू राष्ट्रवाद को प्रोत्साहित किया जा रहा है.

ये बात संजय लीला भंसाली की ‘पद्मावत’ (2018) और ‘बाजीराव मस्तानी’ (2015) से साफ है. इस कड़ी में ताजा उदाहरण हैं, आने वाली फिल्में ‘पानीपत: द ग्रेट बेट्रायल’ और ‘तानाजी: द अनसंग हीरो’.

शुरुआत करते हैं ‘तानाजी’ से, जिसका ट्रेलर मंगलवार, 19 नवंबर को रिलीज हुआ.

किस प्रकार मराठा और राजपूतों की लड़ाई साम्प्रदायिक रंग में रंग गई

जब अभिनेता अजय देवगन ने ट्रेलर रिलीज किया, तो उन्होंने इसकी तुलना “एक ऐसे सर्जिकल स्ट्राइक से की, जिसने मुगल साम्राज्य को हिला दिया था.” ट्रेलर में भी इसी टैगलाइन का इस्तेमाल किया गया है.

मालूम पड़ता है कि फिल्म निर्माता ने जानबूझकर “सर्जिकल स्ट्राइक” नैरेटिव का इस्तेमाल किया है, ताकि मराठा और मुगलों के बीच जंग को भारत-पाकिस्तान तनाव के साथ जोड़ा जा सके. साफ है कि ये नैरेटिव ‘हिन्दू vs मुस्लिम’ पर आधारित है.

1670 में हुई कोंढाना की लड़ाई (अब पुणे के पास सिंघनाद) पर आधारित फिल्म निश्चित रूप से धार्मिक आधार पर हुई लड़ाई दिखलाती है.

उस जंग के मुख्य किरदार थे छत्रपति शिवाजी के कोली जाति के एक सेनापति तानाजी मल्सारे और मुगल साम्राज्य से दो-दो हाथ करने वाले राजपूत सेनापति उदयभान सिंह राठौड़. उस जंग में कहीं हिन्दू-मुस्लिम का एंगल नहीं था.

वो भयानक लड़ाई आज भी मराठी लोकगीत का हिस्सा है. सबसे दिलचस्प है मराठाओं का गिरगिट प्रजाति के एक गोह की मदद से पहाड़ी पर बने किले पर चढ़ाई. ये जंग तानाजी और उदयभान के बीच हुई थी. इस लड़ाई में जीत के बाद छत्रपति शिवाजी ने कहा था, “गढ़ आला पण सिंह गेला” (हमने किला तो जीत लिया लेकिन सिंह [तानाजी] को गंवा दिया).

लेकिन फिल्म निर्माता ने जानबूझकर उस जंग को ‘अच्छे और बुरे,’ ‘हिन्दू vs मुसलमान’ और भारतीय राष्ट्रवाद की विदेशी शासन से लड़ाई के रूप में प्रस्तुत किया.

तानाजी की भूमिका में अजय देवगन हैं, जबकि उदयभान की भूमिका में सैफ अली खान. फिल्म का राष्ट्रवादी झुकाव पोस्टर से ही साफ है, जिसमें अजय देवगन को तिलक लगाए हुए और दाढ़ी के साथ सैफ अली खान को मुस्लिम किरदार के रूप में दिखाया गया है, जिसके चेहरे पर कोई धार्मिक निशाना नहीं है. जबकि सच्चाई ये है कि दोनों हिन्दू थे.

(फोटो: फिल्म पोस्टर)  

पोस्टर और पूरे ट्रेलर में मराठा पहचान पीले और भगवा रंग की है, जबकि मुगलों को भयंकर दिखलाया गया है. मराठा सेना सफेद या भगवा कपड़ों में हैं, जबकि मुगल काले या हरे कपड़ों में. साफ है कि फिल्म की थीम ‘अच्छा vs बुरा’ और ‘हिन्दू vs मुसलमान है.’

पूरे ट्रेलर में भगवा रंग का जोर भी साफ दिखता है. एक जगह तानाजी की मां कहती हैं, जब तक कोन्ढाना में फिर से भगवा नहीं लहराएगा, हम जूते नहीं पहनेंगे. फिर गिरफ्त में आए तानाजी, उदयभान से कहते हैं, हर मराठा पागल है स्वराज का, शिवाजी राजे का, भगवा का.

हालांकि, फिल्म निर्माता का जोर मराठा झंडे पर रहा है, लेकिन वो गलती कर जाते हैं. असली मराठा झंडा भगवा रंग का है, जिसमें कोई निशानी नहीं है, लेकिन फिल्म निर्माताओं ने झंडे पर “ऊं” लिखा हुआ दिखलाया है.

(फोटो: फिल्म ट्रेलर से लिया गया स्क्रीनशॉट)  

क्या पानीपत वास्तव में ‘भारत को बचाने के लिए’ है?

आशुतोष गोवारिकर की ‘पानीपत’ 6 दिसंबर को रिलीज होने जा रही है, जिस दिन बाबरी मस्जिद गिराने की बरसी है. ‘पानीपत’ भी ‘तानाजी’ के समान प्रतीकात्मक है.

फिल्म के ट्रेलर की शुरुआत “मराठा” शब्द से होती है, जो भारत के रक्षक हैं, जबकि अहमद शाह अब्दाली और नजीब-उद-दौला को भी काले रंग के डरावने और धूर्त मुस्लिम के रूप में दिखाया गया है. फिल्म का शीर्षक “ग्रेट बेट्रायल” ही बताता है कि उसका निशाना उन मुस्लिम शासकों पर है, जिन्होंने अब्दाली को सहयोग दिया था.

‘तानाजी’ की तरह ‘पानीपत’ मराठा ताकत का गुणगान करती है. फिल्म में ‘मर्दमराठा’ नामक एक गाना भी शामिल है.

दोनों फिल्मों के ट्रेलर में फर्क ये है कि जहां ‘पानीपत’ में अब्दाली का किरदार लंबे समय तक दिखलाया गया, वहीं ‘तानाजी’ में उदयभान को कम समय तक. हिन्दू vs मुस्लिम के नजरिये से इसे समझा जा सकता है. उदयभान राठौड़ जैसे राजपूत राजकुमार की तुलना में अफगान आक्रमणकारी के लिए भारी नफरत है.

‘तानाजी’ में कोन्ढाना की लड़ाई को एक प्रकार से आजादी की लड़ाई के रूप में चित्रित किया गया है, जबकि ‘पानीपत’ को पानीपत की तीसरी लड़ाई के रूप में दिखलाया गया है, जो विदेशी आक्रमण से भारत को बचाने की कोशिश थी.

उदाहरण के लिए ट्रेलर में सदाशिव भाउ की मां कहती है, “इस बार अब्दाली को ऐसा सबक सिखाओ कि वो हिन्दुस्तान की तरफ देखने की हिम्मत भी न करे”. इसके बाद अब्दाली और सदाशिव भाऊ के बीच इस प्रकार संवाद है:

अब्दाली: तू इस छोटी सी जमीन के टुकड़े के लिए अपनी जान देने जा रहा है.

सदाशिव राव: मैं इस धरती की मिट्टी के एक कण के लिए भी मरने को तैयार हूं.

(फोटो: पानीपत ट्रेलर का स्क्रीनग्रेब)  

फिल्म में उस लड़ाई को बेवजह ‘भारत को बचाने’ का प्रयास दिखाया गया है, जबकि ऐतिहासिक रूप से उस वक्त ऐसे राष्ट्रवादी सोच का नामोनिशान तक न था. अगर ऐसा होता तो पेशवा, अब्दाली के खिलाफ सिखों और जाटों के साथ सहयोग करना अस्वीकार नहीं करते.

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भंसाली की एक फिल्म में ‘हिन्दू राष्ट्र’ बनाने का आह्वान

‘तानाजी’ और ‘पानीपत’ के निर्माता उसी सोच का अनुसरण कर रहे हैं, जो संजय लीला भंसाली ने ‘पद्मावत’ (2018) और ‘बाजीराव मस्तानी’ (2015) में दिखाया गया था.

जिस प्रकार लड़ाई की चित्रांकन किया गया है और जिस प्रकार डायलॉग लिखे गए हैं, उस लिहाज से दोनों ही फिल्में भंसाली की फिल्मों के समान हैं. सबसे स्पष्ट है एक हिन्दू राष्ट्रवादी सोच, जिसमें मुस्लिम को एक विलेन की तरह दिखाया गया है.

‘पद्मावत’ में रानी पद्मिनी को जिस तरह दिखाया गया, उससे फिल्म को राजपूत संगठनों के विरोध का सामना करना पड़ा. फिल्म में अलाउद्दीन खिलजी का किरदार पूरी तरह तोड़-मरोड़कर दिखाया गया. खिलजी को एक दुर्दांत, लालची और युद्ध के मैदान में धोखा देने वाला, जबकि राजपूतों को ईमानदार और वीर दिखाया गया.

जबकि वास्तव में खिलजी एक चतुर प्रशासक था, जिसने उपमहाद्वीप को मंगोल आक्रमण से बचाया था. सोलहवीं सदी में लिखी गई पद्मावत के मूल लेखक मलिक मोहम्मद जायसी थे, इस किताब के मुताबिक खिलजी का कभी राजा रतनसेन से सीधे मुकाबला नहीं हुआ, जबकि फिल्म में उन्हें धोखे से मारते दिखलाया गया है.

‘हिन्दू राष्ट्रवाद’ की सोच को ‘बाजीराव मस्तानी’ में स्पष्ट रूप से बढ़ावा मिला, जिसे एक प्रेम कहानी समझा जा रहा था. फिल्म के शुरू में बाजीराव (रणवीर सिंह का किरदार) कहते हैं कि उनका सपना “हिन्दू स्वराज” है.

(फोटो: बाजीराव मस्तानी फिल्म से स्क्रीनग्रेब)  

जबकि वास्तविक कथन था, “अपनी धरती अपना राज, छत्रपति शिवाजी का एक ही सपना – हिन्दू स्वराज.”

फिल्म एक विवादास्पद नक्शे से शुरु होती है, जिसमें सिर्फ पेशवा साम्राज्य को “हिन्दुस्तान” के रूप में दिखाया गया और दक्षिण के निजाम राज और उत्तर-पश्चिम के सिख राज को हिन्दुस्तान के बाहर दिखाया गया.

(फोटो: बाजीराव मस्तानी फिल्म से स्क्रीनग्रेब)  

आश्चर्य नहीं कि भंसाली इन दिनों ‘मैं बजरंगी’ बना रहे हैं, जो “नरेन्द्र मोदी की जिंदगी के अनछुए पहलुओं” पर आधारित है.

सिर्फ हिन्दू ही नहीं, सवर्णों का बोलबाला

बॉलीवुड की नई फिल्मों में हिन्दू राष्ट्रवाद के एक नए नैरेटिव पर भी जोर दिया जा रहा है. ब्राह्मणों और दूसरी ऊंची जातियों जैसे, राजपूतों और मराठों का वर्चस्व.

उदाहरण के लिए ‘तानाजी’ में एक किरदार में काजोल कहती हैं, “जब शिवाजी राजे की तलवार चलती है, तब औरतों का घूंघट और ब्राह्मणों का जनेऊ सलामत रहता है.

(फोटो: तानाजी के ट्रेलर से स्क्रीनग्रेब)  

आश्चर्य है कि ट्रेलर में भी फिल्म निर्माता, शिवाजी महाराज को “ब्राह्मणों के संरक्षक” के रूप में महिमामंडित कर रहा है, ना कि तानाजी मलुसरे के प्रशंसक के रूप में, जो कमजोर कोली समाज के थे. जबकि शिवाजी, कोली और महार जैसे कमजोर समुदाय के संरक्षक और मुस्लिमों के लिए सौहार्द्रपूर्ण नीतियां बनाने के लिए जाने जाते थे.

अब ‘बाजीराव मस्तानी’ के एक डायलॉग की बात करते हैं, जिसमें फिल्म के हीरो बाजीराव का परिचय कुछ इस तरह कराया जाता है, “तलवार में बिजली सी हरकत, इरादों में हिमालय की अदाकत, चेहरे पे चितपावन कुल के ब्राह्मणों का तेज...”

साफ है कि इससे ब्राह्मणवाद को बढ़ावा मिलता है. इस बात को नजरंदाज किया गया है कि पेशवा शासन में जातिवाद अपने सबसे वीभत्स रूप में था.

ये है इसका सबूत:

“मराठा देश में पेशवा के शासन काल में अगर कोई हिन्दू आ रहा हो, तो अछूत रास्ते का इस्तेमाल नहीं कर सकते थे, अन्यथा वो अपनी परछाईं से हिन्दू को दूषित कर देते. अछूतों को अपनी कलाई या अपने गले में काला धागा पहनना अनिवार्य था. ये निशानी हिन्दुओं को गलती से उनसे छूकर भ्रष्ट होने से बचाने के लिए जरूरी थी. पेशवाओं की राजधानी पूना में अछूतों को कमर पर एक झाड़ू बांधकर चलना पड़ता था, ताकि जिस धूल पर उसके पांव पड़े हैं, उसकी सफाई हो और अगर कोई हिन्दू वहां से गुजरे तो भ्रष्ट न हो. पूना में गुजरने वाले हर अछूत को थूकने के लिए गले में मिट्टी का बरतन बांधना पड़ता था, ताकि उसका थूक धरती पर न गिरे और गलती से भी किसी हिन्दू को दूषित ना करे.”*

पेशवाओं की ये सच्चाई अब तक के सबसे महत्त्वपूर्ण मराठियों में एक ने बखान की थी – बाबा साहब आम्बेडकर ने. लेकिन आज के फिल्म निर्माताओं में शायद ही किसी में इतना साहस हो, कि वो उनपर फिल्म बनाए और पेशवाओं से जुड़ी कड़वी सच्चाई सामने ला सके.

*(बीआर अम्बेडकर के ‘Annihilation of Caste’ से)

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