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कानून बड़ा या न्याय? समझदार लोगों के लिए जवाब स्पष्ट है. कानून को चाहिए कि वह न्याय की रक्षा करे और इसे आगे बढ़ाए. और न्याय कभी भी भेदभावपूर्ण नहीं होना चाहिए. कानून साधन है, न्याय साध्य. साधन हमेशा अच्छे नतीजे के लिए होना चाहिए जैसा कि महात्मा गांधी ने बार-बार और ज़ोर देकर कहा है. लेकिन कई बार जो लोग कानून बनाते हैं, वे न्याय को लेकर सेलेक्टिव हो जाते हैं.
ये लोग अपने मकसद के लिए कानून की ताकत का बलपूर्वक इस्तेमाल करना चाहते हैं जिसका न्याय से कोई लेना देना नहीं होता. और जब ऐसा होता है तो वे अनिवार्य रूप से अनचाहे और अप्रत्याशित बुरे परिणामों का सामना करते हैं. पहला परिणाम जनता से प्रतिरोध के तौर पर आता है या किसी हद तक उन लोगों की ओर से आता है जो इसे गलत मानते हैं. मगर, तब नतीजे बहुत बुरे होते हैं जब खुद वह कानून पक्षपातपूर्ण हो जिसका विरोध किया जा रहा हो और जिसके पीछे अन्यायपूर्ण एवं छिपा हुआ एजेंडा हो. अन्याय जीवन को तबाह करने वाली बीमारी के समान है. या तो इसका उपचार हो, नहीं तो यह मार डालता है.
संसद में विवादास्पद नागरिकता संशोधन विधेयक को कानून बना देने के बाद सरकार का ऐसी ही चीजों से सामना हो रहा है. यह सच है कि लोकसभा और राज्यसभा दोनों ने बहुमत से इसे पारित कर दिया है. लेकिन क्या यह ‘जन सभा’ के बहुमत को स्वीकार्य है जो मतदाताओं की सभा है और जिन्होंने निर्वाचित प्रतिनिधियों से सदन का निर्माण किया है, जिसके पास बहुमत को इकट्ठा करने के कई तरीके होते हैं?
लेकिन भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से ने इसके खिलाफ प्रदर्शन शुरू कर दिया है और ऐसा प्रदर्शन कई दशकों में नहीं देखा गया है. और, नहीं भूलें कि यह बस शुरुआत है. ये प्रदर्शन निश्चित रूप से बढ़ने वाले हैं क्योंकि मोदी सरकार ने ऐसा संकेत देना शुरू किया है कि वह सीएए (जिसमें पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के गैर मुसलमानों को धार्मिक उत्पीड़न के आधार पर नागरिकता देने का प्रावधान है) के बाद नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स यानी एनआरसी लागू करने की तैयारी करने जा रही है. सरकार में अभी तक किसी ने यह नहीं बताया है कि राष्ट्रव्यापी एनआरसी की जरूरत क्यों है? खासकर यह इसलिए जरूरी था क्योंकि असम में ऐसी ही कवायद सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का कारण बनी और यह निरर्थक साबित हुआ.
देश के किसी हिस्से में कोई विरोध नहीं होता, अगर इस कानून में धार्मिक आधार पर प्रताड़ित लोगों को नागरिकता दी जाती और इसकी परवाह नहीं की जाती कि वह किस धर्म से जुड़ा है और किस पड़ोसी देश से वह आता है बजाए इसके कि वो केवल तीन मुस्लिम बहुल देश से आता हो.
यही न्याय की मांग थी कि ऐसा निष्पक्ष कानून लाया जाता जो सदियों पुरानी उस भारतीय परम्परा के अनुकूल होता जहां कट्टरवादी हिंसा के शिकार मातृभूमि से बेदखल लोगों का स्वागत हो. लेकिन
भारतीय जनता पार्टी और इससे भी बड़े वैचारिक परिवार या संघ परिवार, जिससे पार्टी जुड़ी रही है, स्पष्ट रूप से छिपे हुए एजेंडे पर काम कर रहे हैं. इसके लक्ष्य अल्पकालिक और दीर्घकालिक दोनों हैं. इसका अल्पकालिक लक्ष्य भारतीय समाज को हिन्दू बनाम मुसलमान में बांटना है और इस तरीके से अपने हिन्दू वोट बैंक का विस्तार करना और इसे मजबूत करना है. इस तरह इसका मकसद लगातार तीसरी बार अगले संसदीय चुनाव में जीत को सुनिश्चित बनाना है. दीर्घकालिक लक्ष्य थोड़ा छिपा हुआ है. संघ परिवार के कई मार्गदर्शकों ने इस बारे में खासकर 2014 और 2019 में मोदी के नेतृत्व में बीजेपी को मिले जनादेश के बाद बोला है. और, यह लक्ष्य है भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को खत्म करना और इसे हिन्दू राष्ट्र में बदलना. सीएए 2019 को निश्चित रूप से हिन्दुत्व परिवार के अल्पकालिक लक्ष्य के लिए साधन के रूप में देखना होगा जिसका अंत दीर्घकालिक लक्ष्य है.
संसद में कानून बनने और उम्मीद के अनुरूप राष्ट्रपति की ओर से इस पर त्वरित सहमति के बाद चार (शायद) नतीजे उम्मीद से परे रहे हैं. पहला नतीजा है मोदी सरकार आने के साढ़े पांच साल बाद पहली बार भारतीय मुसलमानों का आंदोलित होना. इसकी अहमियत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.
फैसले को खामोशी से स्वीकार कर लेना उस रुख के उलट है जो मुसलमानों ने 1980 और 1990 के दशक में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की ओर से आयोजित प्रदर्शनों में दिखलाया था. तब मंदिर-मस्जिद विवाद ने राष्ट्रीय राजनीति को परिभाषित करना शुरू किया था. लेकिन सीएबी के कानून बन जाने के बाद भारतीय मुसलमानों ने बिना देरी के अपनी आवाज़ को मजबूत करने का फैसला कर लिया.
समाज के बड़े हिस्से को अपने से अलग करके, कमज़ोर बनाकर और कानूनी रूप से यह अहसास कराकर कि भारत मुसलमान और इस्लाम की तुलना में हिन्दू और हिन्दूवादियों का अधिक है, कोई भी पार्टी भारत में राजनीतिक और सामाजिक स्थिरता देते हुए शासन नहीं कर सकती.
दूसरी बात ये है कि बीजेपी ने यह नहीं सोचा था कि एक ‘मुस्लिम मुद्दे’ पर इतनी बड़ी संख्या में हिन्दू प्रदर्शन में सामने आ जाएंगे. यह अकेले मुसलमानों की चिन्ता भी नहीं रही. प्रधानमंत्री ने खुद इन प्रदर्शनों को ‘मुस्लिम प्रदर्शन’ का रंग देने की फूहड़ कोशिश की. भारत के प्रधानमंत्री के तौर पर झारखण्ड की चुनाव रैली में उनके भाषण की अनदेखी नहीं की जा सकती.
चुनाव अभियान में मोदी ने पहली बार सांप्रदायिक भाषण नहीं दिया है. 2017 में प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने आरोप लगाया था कि पाकिस्तान ने (अपने पसंद के नेताओं पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह और पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के साथ मिलकर) गुजरात विधानसभा चुनाव को प्रभावित करने का षडयंत्र किया था. जब इस पर संसद में जबरदस्त हंगामा हुआ, तो स्वर्गीय अरुण जेटली ने इस विवाद का अंत राज्यसभा में खेद जताते हुए किया. प्रधानमंत्री मोदी ने 2019 के आम चुनावों में भी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण अभियान चलाया लेकिन मुख्य चुनाव आयुक्त के नरम रवैये ने उन्हें बचा लिया.
मोदी ने सीएए के विरुद्ध प्रदर्शनों को देखते हुए जो कुछ कहा है वह कुल मिलाकर थोड़ा अलग है. यह उनके अहंकार को दिखाता है. उन्होंने ‘हिंसक’ बताकर मुस्लिम समुदाय पर निशाना साधा है. उन्होंने जो कुछ कहा है उसे वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने बहुत स्पष्ट कर दिया है. उनके अनुसार, नये कानून के विरोध में प्रदर्शनों के पीछे “जेहादी, माओवादी और अलगाववादी” हैं.
प्रधानमंत्री, उनके सहयोगी मंत्री और बड़ी संख्या में मोदी सरकार में उनके समर्थकों के इन मुस्लिम विरोधी बयानों ने बड़ी संख्या में हिन्दुओं और अन्य को देशभर में इस आंदोलन से जोड़ दिया. हिन्दू-मुस्लिम एकता की यह गहराई जो सड़क पर दिखी, वह लम्बे समय से भारत में नहीं देखी गयी थी. यह हमारे संविधान की रक्षा और भारत की सदियों पुरानी धर्मनिरपेक्षता की संस्कृति के लिए शुभ संकेत है.
सीएए के विरुद्ध प्रदर्शन का तीसरा बड़ा परिणाम नया और दिल को छू जाने वाला है. यह अकस्मात छात्र सक्रियता का पुनरोत्थान है. भारत इससे पहले छात्रों के प्रदर्शनों का गवाह तब बना था जब 1975 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के आपातकाल की घोषणा के बाद देश में विरोध का उभार पैदा हुआ था.
जय प्रकाश नारायण के प्रेरक नेतृत्व में गुजरात और बिहार के छात्रों ने भ्रष्टाचार और कांग्रेस के कुशासन के खिलाफ बड़े पैमाने पर आंदोलन शुरू किया था. वास्तव में इन छात्र आंदोलनों ने कई ऐसे कार्यकर्ताओ को जन्म दिया जो आगे चलकर प्रमुख राष्ट्रीय नेता के तौर पर उभरे. इनमें अरुण जेटली, गोविन्दाचार्य, नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव, शरद यादव जैसे नाम शामिल हैं. सीताराम येचुरी और गोविन्दाचार्य भी उस युग में छात्र सक्रियता की उत्पत्ति थे. हालांकि वे गैर-जेपी आंदोलन से जुड़े थे.
वास्तव में जामिया और एएमयू में पुलिस की कार्रवाई के विरुद्ध विश्वविद्यालयों के गैर मुस्लिम छात्रों ने एकजुटता दिखलायी. देशभर के प्रबुद्ध शिक्षण संस्थान- आईआईटी, आईआईएम, आईआईएससी, टीआईएसएस, मुम्बई यूनिवर्सिटी, पुणे यूनिवर्सिटी और कई अन्य विश्वविद्यालय भी इसमें शरीक हुए.
विरोध प्रदर्शन के फैलते ही इसके आयोजक और नेताओं पर इसे शांतिपूर्ण और अहिंसक बनाए रखने की जिम्मेदारी आ गयी, जिससे वे बच नहीं सकते. नैतिक रूप से भी, अहिंसा का रास्ता छोड़ देने पर सीएए और एनआरसी का विरोध कमजोर पड़ जाएगा.
हो सकता है कि मुझे समझने में गलती हो रही हो लेकिन प्रधानमंत्री, गृहमंत्री अमित शाह और संघ परिवार के नेताओं ने ऐसे परिणामों की उम्मीद नहीं की थी. इस बात पर बहस हो सकती है कि कोई भी संगठन अपने दीर्घकालिक एजेंडे को लागू करते समय अपने कार्यों के सभी प्रभावों को समझ नहीं सकता. अगर वास्तव में यह ऐसा ही है तो देश उम्मीद कर सकता है कि प्रदर्शनों को शांत कराने के लिए सत्ता प्रतिष्ठान सभी जरूरी कदम उठाएगी. भले ही वह अलोकतांत्रिक और दमनकारी तरीकों को छोड़ना ही क्यों न हो, जो लघु और दीर्घ लक्ष्य को हासिल करने के मकसद से अपनाए गये हैं- चाहे वह 2024 का चुनाव हो या फिर भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र’ बनाना.
(लेखक भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के करीबी सहयोगी थे. वो Music of the Spinning Wheel: Mahatma Gandhi’s Manifesto for the Internet Age के लेखक हैं. इसके अलावा वो ‘FORUM FOR A NEW SOUTH ASIA – Powered by India-Pakistan-China Cooperation’ के संस्थापक हैं. उन्हें @SudheenKulkarni पर ट्वीट और sudheenkulkarni.gmail.com पर मेल किया जा सकता है. आर्टिकल में लिखे गए विचार उनके निजी विचार हैं और द क्विंट का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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Published: 18 Dec 2019,07:31 PM IST