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अपने बच्चों को हिन्दी सिखाइए, आने वाला वक्त इसी का है

कहीं आपके बच्चों को हिंदी कॉम्पलेक्स न होने लगे!

हर्षवर्धन त्रिपाठी
नजरिया
Updated:
हिन्दी से किस बात की दुश्मनी?
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हिन्दी से किस बात की दुश्मनी?
(फोटो: Pixabay)

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बच्चा अंग्रेजी माध्यम स्कूल में पढ़ता है या नहीं? अब यह सवाल नहीं रहा, एक सामान्य जानकारी भर रह गई है. हां, जिसका बच्चा अभी भी अंग्रेजी माध्यम स्कूल में नहीं पढ़ रहा है, ऐसे लोग अब समाज में अजीब सी दृष्टि से देखे जाते हैं. अंग्रेजी कितनी आती है, कैसी आती है, यह सवाल अब छोटा हो गया है. बड़ा सवाल बस यही है कि अंग्रेजी की तरफ बच्चे जा रहे हैं या नहीं. और अगर नहीं जा रहे हैं, तो मां-बाप को समाज धकियाता है और उस धक्के से चोट खाए मां-बाप फिर बच्चे को धकियाते हैं.

उस धकियाने में भारतीय बच्चे अंग्रेजी के विद्वान हुए जा रहे हैं. अंग्रेजी अच्छी न आने की हीन भावना से ग्रसित हमारी और हमसे ठीक पहले की पीढ़ी के लिए इससे सुखद कुछ नहीं होता कि उनका बच्चा फर्राटेदार अंग्रेजी बोले. हालांकि, यहां भी हिन्दी वाली फर्राटेदार अंग्रेजी की ही कामना कर रहे हैं.

हिंदी से लड़ने के लिए अपनी भाषा से दुश्मनी क्यों?

हम सब चाहते हैं कि हमारे बच्चे अच्छी अंग्रेजी सीखें, बोलें. एक अन्तर्राष्ट्रीय भाषा के तौर पर अंग्रेजी सीखना जरूरी है. लेकिन, आपने ध्यान दिया हो, तो अच्छी अंग्रेजी बोलने वाले मां-बाप के बच्चों को भी अंग्रेजी बोलने के लिए ज्यादा प्रयास करना पड़ता है. वजह बड़ी साफ है, मातृभाषा तो बिना समझाए, समझ में आ जाती है. दूसरी भाषा समझाना पड़ता है. कई बार हिन्दी को लेकर तरह-तरह के विवाद देश के गैर हिन्दी भाषी क्षेत्रों में खड़े होते हैं. लेकिन, हिन्दी को पटकने के चक्कर में गैरहिन्दी भाषी प्रान्तों के लोग अपनी मातृभाषा को पहले पटकनी दे देते हैं. और इस पटकनी देने का जरिया बनता है, अपना बच्चा. विडम्बना देखिए कि अपनी मातृभाषा को पटकनी देने के लिए अपना बच्चा ही जरिया बन रहा है. कन्नड़, तमिल, तेलुगू भाषी लोग हिन्दी से लड़ते कब अपनी बोली-भाषा के दुश्मन बन जाते हैं कि उन्हें अन्दाजा ही नहीं लग पाता.

सोचिए कि जब बच्चा मां-बाप को अंग्रेजी के लिए हिन्दी से लड़ते देखता है, तो उसे क्या समझ आएगा? यही ना कि बेहतर अंग्रेजी ही है. अब अंग्रेजी ही बेहतर है, तो फिर सबसे पहले हिन्दी के प्रति द्वेष उत्पन्न होगा. फिर धीरे-धीरे अपनी बोली, भाषा थोड़ी पिछड़ी दिखने लगेगी. मैं कई ऐसे मां-बाप से मिला हूं, जो दक्षिण भारतीय हैं लेकिन, उनके बच्चे अपनी मूल भाषा, बोली ही भूल गए हैं.
अंग्रेजी मीडियम बनाम हिंदी मीडियम अब मुद्दा नहीं?(फोटो: फिल्म पोस्टर)

हिंदी नहीं समझते बच्चे, मूल भाषा कैसे समझेंगे?

प्रवासी भारतीयों का देश हिन्दुस्तान होने की वजह से अब ज्यादातर बच्चे अपने परिवार के साथ नहीं रह रहे हैं, बच्चे बस अपने मां-बाप के साथ रह रहे हैं. दादा-दादी या नाना-नानी भी साथ नहीं हैं. चाचा, बुआ, मौसी, मामा भी साथ नहीं हैं. और मां—बाप पर तो पहले से ही अंग्रेजी-अंग्रेजी का दबाव बना हुआ है. उसी दबाव में तो बच्चे को अच्छे से अच्छे अंग्रेजी माध्यम स्कूल में भेज रहे हैं. इसका परिणाम यह है कि हमारे जैसे घोर हिन्दी वाले माता-पिता के बच्चे भी 58, हिन्दी में अट्ठावन कहा जाएगा, लगभग हर बार याद दिलाना पड़ता है. अभी हमारी दोनों बेटियां बहुत छोटी हैं लेकिन, यह मुश्किल बड़ी हो सकती है. अच्छा है कि मुझे इसका भान होने से मैं पहले खुद को, फिर उनको टोकता रहता हूं.

लेकिन, अच्छी अंग्रेजी आना और उसी के आधार पर हिन्दुस्तान में भी प्रभाव बना पाने का दबाव अंग्रेजी की तरफ धकेलता है. अब देखिए यह बात मैं कर रहा हूं कि हमारी बेटियों को हिन्दी की गिनती, शब्द उस तरह से नहीं आ रहे हैं. जबकि, इससे भी बड़ा सवाल है कि हमारी मूल भाषा अवधी को हमारे बच्चे कितना समझ पाएंगे.

मैंने पहले भी कहा कि बच्चे सिर्फ मां-बाप के साथ रह रहे हैं, परिवार के साथ नहीं. ठीक है कि हम जैसे लोग अभी जड़ से ज्यादा दूर नहीं गए हैं, तो अकसर परिवार के साथ भी रह पाते हैं. अभी माताजी के पैर का ऑपरेशन हुआ, तो करीब 2 महीने बच्चे दादू-अम्मा के साथ रहे. अम्मा हमको बुलातीं तो कभी यह नहीं कहती थीं कि आओ. वो हमेशा कहतीं थीं- आवा, रामेंद्र. रामेंद्र मेरा पुकारने का नाम है. अम्मा के जाने के बाद भी छोटी बेटी मजे में कहती कि, रामेंद्र आवा. बुलाने के लिए ‘आवा’ अवधी बोली है. ऐसे ही मराठी में बोला और अवधी में बोला, एक जैसा ही है. हिन्दुस्तान की ज्यादातर बोलियां-भाषाएं ऐसी हैं कि उन्हें बोलते, हिन्दी अच्छे से बोली समझी जा सकती है.

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दुनिया ‘बाजार’ की भाषा समझती है

अंग्रेजी पढ़ाने, सिखाने के लिए एक बच्चे पर जितनी मेहनत करनी पड़ती है, उससे दसवें हिस्से के प्रयास में बच्चों की हिन्दी बहुत अच्छी हो सकती है. यह भी समझनने की जरूरत है कि, आधुनिक समय में हिन्दी की ताकत बढ रही है. गूगल, फेसबुक, ट्विटर, यूट्यूब और दुनिया की बड़ी-बड़ी कम्पनियां हिन्दी के लिहाज से रणनीति बना रहे हैं. मैं यहां पर ढेर सारे आंकडे देने के बजाय सिर्फ 2 दिन पहले के एक विदेशी सीईओ के साक्षात्कार का हवाला देना चाहूंगा. फॉक्सवैगन इंडिया के डायरेक्टर Steffen Knapp ने कहाकि हर दिन वो नए हिन्दी शब्द सीखने की कोशिश कर रहे हैं. अपने साथियों से हिन्दी में बात करने, समझने की कोशिश करते हैं. उन्होंने बताया कि नमस्ते, गाड़ी और कई हिन्दी शब्द वो अच्छे से सीख गए हैं. उन्हें उम्मीद है कि जल्द ही वो बोलने लायक हिन्दी सीख जाएंगे. यही बाजार की ताकत है.

जिस भाषा के पास बाजार की ताकत होगी, उसे दुनिया बोलेगी, सीखेगी. विदेशी कम्पनियों के बड़े अधिकारी हिन्दी सीख रहे हैं क्योंकि, भारत में ही अब बाजार है. इस लिहाज से आने वाला वक्त हिन्दी का है.

इसीलिए मैं पक्के तौर पर मानता हूं कि हिन्दी दिवस मनाने की जरूरत नहीं है. अपने बच्चों को अपनी भाषा हिन्दी है, यह याद दिलाने की जरूरत है. और अपनी भाषा हिन्दी मतलब भारत की भाषा लेकिन, यह तभी पूरी होगी जब बच्चे अपनी पहली बोली, भाषा (मराठी, गुजराती, अवधी, भोजपुरी, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, कश्मीरी आदि) अच्छे से बोलें. वरना कहीं ऐसा न हो कि हमारी पीढ़ी अंग्रेजी कम आने की वजह से हमेशा हीनभावना में फंसी रही. हमारे बच्चे हिन्दी कम आने की वजह से उसी भावना से ग्रसित हो जाएं.

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Published: 14 Sep 2017,04:36 PM IST

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