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विश्वविद्यालयों में शिक्षक चयन की प्रक्रिया और ‘नेपोटिज्म’

भारत के विश्वविद्यालोयों में आमतौर पर दो तरह की चयन प्रक्रियाएं होती हैं, 'ओपन' या 'क्लोज्ड'.

केयूर पाठक
नजरिया
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<div class="paragraphs"><p>विश्विद्यालयों में शिक्षक चयन की प्रक्रिया और ‘नेपोटिज्म’</p></div>
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विश्विद्यालयों में शिक्षक चयन की प्रक्रिया और ‘नेपोटिज्म’

फोटोः उपेंद्र कुमार\ क्विंट

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वर्ष 1958 में थियोडर कैप्लोव और रीज जे. मैग्गी की एक किताब आई थी ‘द अकेडमिक मार्केटप्लेस’. किताब बहुत पुरानी है, लेकिन इसने जिन मुद्दों को अपने कुछ अध्यायों में उठाया वह कल भी और आज भी प्रासंगिक है. वैसे तो भारत का अकादमिक संसार अनगिनत समस्याओं से जूझ रहा है, लेकिन उसमें से एक अहम् है विश्विद्यालयों में शिक्षकों के चयन में होने वाली भयंकर धांधली. यह व्यापक स्तर पर हो रहा है. जो भारत के तमाम केन्द्रीय संस्थानों से लेकर राज्य स्तर के संस्थाओं तक जारी है.

विश्विद्यालयों में आमतौर पर दो तरह से चयन की प्रक्रिया होती है- ‘ओपन’ या ‘क्लोज्ड’. ‘ओपन’ यानि प्रतियोगी परीक्षा के आधार पर. और ‘क्लोज्ड’ यानि प्राथमिकता के आधार पर. उदाहरण के लिए जब उम्मीदवार अधिक हो जाए तो फिर वहां से प्राथमिकतायें तय की जाने लगती हैं, जैसे वह कहां का है, किसका छात्र रहा है, किस राजनीतिक विचारधारा का है, किस संस्था का है, आयु कितनी है आदि और फिर इन्हीं आधारों पर चयन दे दिया जाता है.

अक्सर यह समझा या समझाया जाता है कि अकादमिक क्षेत्र में शिक्षकों के चयन में ‘ओपन’ मॉडल का अनुपालन किया जाता है, लेकिन यह सच नहीं है. वास्तविकता तो यह है कि यह अधिकतर ‘क्लोज्ड’ माध्यम के सहारे ही चलता आ रहा है. और जहाँ ‘ओपन’ मॉडल है भी वह दृष्टिभ्रम से अधिक कुछ भी नहीं. आंशिक ही सही ‘क्लोज्ड’ मॉडल भीतर ही भीतर कार्य रहा होता है.

‘क्लोज्ड’ मॉडल ही असली मॉडल है जैसा कि कैप्लोव और मैग्गी लिखते हैं (पृष्ठ.92). वे ‘क्लोज्ड’ मॉडल के लिए जिस उपयुक्त शब्द का प्रयोग करते हैं वह है- ‘नेपोटिज्म’. और एक डिक्सनरी के अनुसार इसका अर्थ होता है- ‘मेरिट के बदले संबंधों को महत्त्व देना’. और इस ‘नेपोटिज्म’ को वे सात इंडिकेटर से दिखाते हैं और ये सातों इंडिकेटर अकादमिक भ्रष्टाचार को दर्शाते हैं-

  1. उसे अपने होम-इंस्टीट्युसन से मदद मिली या नहीं- अक्सर साक्षात्कार में उम्मीदवारों के होम-इंस्टीट्युसन की राय भिन्न माध्यमों से ली जाती है, जैसे चरित्र प्रमाणपत्र, उस संस्था में उसकी क्या स्थिति थी, और वहां से उसे कितना अधिक समर्थन मिल पा रहा है आदि. उदाहरण के लिए एक विश्विद्यालय का पढ़ा छात्र जब किसी दूसरे विश्विद्यालय में साक्षात्कार के लिए जाता है तो उसका होम-इंस्टीट्युसन उसे एक संरक्षण प्रदान करवाता है ताकि उसका चयन तय किया जा सके. यह कमोबेश किसी न किसी रूप में आज भी जारी है. अगर होम-इंस्टीट्युसन ने किसी राजनीतिक कारणों से प्रेरित होकर नकारात्मक राय दे दिया तो इसका खामियाजा उम्मीदवार को भुगतना पड़ सकता है.

  2. वह उस व्यक्ति को जानता है जो अब यहां से जा चुका है- ऐसे संबंधों का भी हवाला दिया जाता है जो कभी वहां कार्यरत था, लेकिन अब कहिं और जा चुका है. ऐसे सन्दर्भ तब कारगर होते हैं जब जानेवाला व्यक्ति प्रभावशाली होता है, अन्यथा ऐसे सन्दर्भों का कोई महत्त्व नहीं रह जाता. कभी-कभी ऐसे सन्दर्भों से नुकसान भी हो जाता है.

  3. वह यहां किसी को जानता था- अगर कोई उस संस्था में आपका परिचित निकल गया है तो कोई मदद मिल सकती है. इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है और चयन के दौरान यह ध्यान में रखा जाता है कि वह प्रोफेसर अ या ब का परिचित है.

  4. उसके यहां से कोई यहां है- और अगर आपके होम-इंस्टीट्युसन से कोई यहाँ प्रोफेसर अ या ब कार्यरत है तो वह भी कारगर तरीका है चयन की प्राथमिकता तय करने में.

  5. यहां से कोई उसके यहां है- कई बार उसके होम-इंस्टीट्युसन में वे लोग होते हैं जो कभी यहाँ कार्यरत थे, ऐसे में भी एक अच्छा गठजोड़ बन जाता है और जिसका लाभ चयन में मिल जाता है.

  6. शोध आदि के दौरान वह यहां था, या किसी के संपर्क में था- शोध के दौरान अलग-अलग संस्थाओं में तथ्य संकलन के लिए जाना एक तरह से ‘एक पंथ दो काज वाली’ बात है. तथ्य तो संकलन हो ही जाता है, साथ ही साथ उस संस्था से एक संबंध भी विकसित होने की संभावना रहती है, जो भविष्य की नियुक्ति में सहायक सिद्ध होती है.

  7. वह यहां पहले भी कभी था (छात्र, स्टाफ आदि)- और अगर वह कभी यहां का छात्र या स्टाफ रहा है तब तो संभावना और बढ़ जाती है. यह अत्यंत ही प्रभावी तरीका है, जिसमें संभावना अधिक होती है चयन की.

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उपरोक्त सभी बातें औपचारिक रूप से चयन प्रक्रिया में दर्ज नहीं की जाती. बल्कि कुछ अनौपचारिक तरीके से कार्य करती है और कुछ औपचारिक तरीके से. लेकिन इन सबों के अलावा एक और चीज है जो आज भी बिल्कुल ही स्पष्ट और औपचारिक तरीके से सर्वत्र प्रचलन में है- और वह है रेफरेंस. अकादमिक रिक्तियों के लिए आज भी जब कभी आवेदन दिया जाता है तो आवेदन पत्र में एक खंड होता है- रेफेरेंस/रेफरी का. जिसमें पूछा जाता है कि उम्मीदवार को अपने जानने वाले दो या तीन अकादमिक लोगों का नाम और उसका पूरा पता क्या है.

यह तो नेपोटिज्म का सबसे बेमिसाल मॉडल है. पहले तो उतने से ही काम चल जाता था, लेकिन अब तो इसका ठीक तरह से क्रॉस-चेक भी किया जाता है और उन लोगों से उम्मीदवार के बारे में राय मेल या अन्य ऑनलाइन माध्यम से ली जाती है. यह तो स्वाभाविक है कि उम्मीदवार भला ऐसे लोगों का नाम रेफरी में क्यों देगा जो नकारात्मक प्रतिक्रिया दें. तो भला ऐसे खंड का आवेदन में औचित्य क्या है. यह वास्तव में अकादमिक ‘नेपोटिज्म’ का बौद्धिक तरीका है, जो अपने परिणाम में अन्यायपूर्ण और मेरिट को बाहर करने वाला होता है.

यह अकादमिक-लोबियिंग (गैंग भी कह सकते हैं) करने के भी काम आता है. योग्य उम्मीदवारों के चयन से इसका कोई संबंध नहीं होता. यहां “गैंग’ का सदस्य होना ही सबसे बड़ी योग्यता सिद्ध हो सकती है, जैसा कि मैंने अपने अकादमिक जीवन में अनगिनत ऐसे सक्रिय “गैंगों” को देखा जाना है.

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