मेंबर्स के लिए
lock close icon

मोदी के विकास एजेंडे पर भारी है परिवार: शशि थरूर

पीएम मोदी ने कई ऐसे मौके गंवाए जहां वो मुसलमानों तक पहुंच कर उन्हें विश्वास में ले सकते थे.

शशि थरूर
नजरिया
Published:
मिड-टर्म रिपाोर्ट कार्ड देखें को अल्पसंख्यकों का भरोसा नहीं जीत पाए हैं पीएम मोदी (फोटो: द क्विंट)
i
मिड-टर्म रिपाोर्ट कार्ड देखें को अल्पसंख्यकों का भरोसा नहीं जीत पाए हैं पीएम मोदी (फोटो: द क्विंट)
null

advertisement

नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बने दो साल बीत चुके हैं. ऐसे में वो समाज के बीच फूट डालने वाले नेता बनकर उभरे हैं या एकता लाने वाले, ये एक बड़ा सवाल बन गया है. हमारे प्रधानमंत्री की जो छवि 2014 से पहले थी वो एक ऐसे शख्स की थी जो लोगों को बांटता है, लेकिन क्या इतने सालों में वो अपनी छवि बदल पाए हैं.

क्या वो खुद को ऐसा साबित कर पाए हैं जो भारत में मौजूद इतनी सारी मान्यताओं और जातियों के लोगों को एकजुट कर सके जिससे सभी को फायदा मिले? इसका जवाब मिला-जुला है.

सभी के प्रधानमंत्री नहीं?

  • मुझे इस बात पर हमेशा से संदेह रहा है कि मोदी प्रशासन मुसलमानों के साथ किस तरह से बर्ताव करेगा.
  • घर वापसी, दादरी मामला और मुजफ्फरनगर में हुए दंगो पर जिस तरह से वो कुछ नहीं बोले वो काफी परेशान करने वाला था.
  • उन्होंने मीडिया से भी दूरी बना ली जिससे कि उनसे कोई हिसाब ना मांगा जा सके.
  • देश को बांटने वालों पर चुप्पी साधने पर मोदी प्रशासन हमेशा से जाना जाता रहा है.
  • अंतर्विरोध के चलते उनकी साख भी कम हुई और विदेशी निवेश पर भी असर पड़ा.

अल्पसंख्यकों को कोई आश्वासन नहीं

हमारी सरकार को ये याद रखना होगा कि हमारे समाज का एक बड़ा वर्ग संघ परिवार के फूट डालने वाले इतिहास को लेकर चिंतित था. इसके बावजूद पीएम मोदी ने 2014 में जीत दर्ज की. समाज में इस समुदाय की हिस्सेदारी करीब 69 फीसदी है.

वो इस बात को लेकर आशंकित थे कि संघ परिवार समाज में फूट डालने वाली ताकत है, ऐसे में मोदी के हाथ में भारत जैसे देश की डोर कैसे दी जा सकती है जिसमें कई समुदाय के लोग रहते हैं. खासकर 2002 में जो हुआ था उसके बाद से उनके मन में इस बात का डर हमेशा से था.

वो इस बात को लेकर शंका की स्थिति में थे कि क्या नरेंद्र मोदी मुसलमानों की तरफ हाथ बढ़ाएंगे. और क्या उनकी जो जरूरत हैं क्या वो नरेंद्र मोदी के भारत के नक्शे में जगह भी रखते हैं?

खामोश रहने वाला चरित्र

नरेंद्र मोदी एक ऐसे व्यक्ति रहे हैं जो दो चीजों के बीच संशय में रहे हैं या फिर उन्होंने कई मुद्दों पर खामोश रहना ही ठीक समझा. घर वापसी, मोहम्मद अखलाक की पीट पीटकर हत्या करने का मामला, मुजफ्फरनगर दंगे और गाय सुरक्षा के आक्रामक प्रचार पर मोदी चुप्पी साधे रहे.

पीएम मोदी ने कई ऐसे मौके गंवाए जहां वो मुसलमानों तक पहुंच कर उन्हें विश्वास में ले सकते थे. इफ्तार पार्टी देना तो दूर जैसा कि उनके पार्टी के पिछले नेता देते रहे वो आज तक किसी इफ्तार पार्टी में जाने का एक सहज कार्य भी नहीं कर सके.

मोदीजी को ये जानना होगा कि देशभर में खासकर मुस्लिम समुदाय के बीच इस बात को लेकर आशंका है कि क्या बीजेपी और उसके सहयोगियों में ये इच्छा और तत्परता है कि वो भारत के सभी समुदायों को साथ लेकर चलेंगे या फिर धर्म के नाम पर एक दूसरे को बांटने की कोशिश करेंगे.

अगर हमारे महान वक्ता की तरफ से इस समुदाय के प्रति दो मीठे शब्द बोल दिए गए होते तो उनके लिए ये बहुत बड़ी बात होती. लेकिन जब हमारे देश के मुस्लिमों की बेइज्जती की जाती है या उन्हें पाकिस्तान चले जाने का न्योता दिया जाता है तो हमारे प्रधानमंत्री चुप रहना पसंद करते हैं.

(फोटो: PTI)

मीडिया का अपमान किया

ना ही हमारे प्रधानमंत्री मीडिया के साथ मिलनसार रहे हैं और ना ही प्रेस उन तक पहुंच सकी है. जिस तरह से देश के पिछले प्रधानमंत्री अपनी अंतरराष्ट्रीय यात्राओं पर प्रेस को ले जाया करते थे, उन्होंने उस प्रथा का भी सम्मान नहीं किया. वो कोई प्रेसवार्ता नहीं करते ना ही कोई साक्षात्कार देते हैं.

देश की मीडिया फिलहाल ठुकराई हुई सी महसूस कर रही है. जिस व्यक्ति को उन्होंने 'मौन' मोहन सिंह के उलट मिलनसार, ट्वीट करने वाला और एक बेहतर वक्ता बताया था वही आज उनसे बात करने को तैयार नहीं है.

ऐसे में हमें मोदी के दो रूप दिखते हैं, पहला वो जो चुनाव प्रचार के समय था और अब दूसरा जो प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा हुआ है.

विपक्षियों तक पहुंचने की कोशिश

दूसरी तरफ प्रधानमंत्री अपनी पार्टी और कार्यकर्ताओं के पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर अपने विपक्षियों तक पहुंचने की कोशिश करते हैं. मैंने खुद इस बात का अहसास किया है और मैं उनके इस भाव से काफी हैरान भी हुआ था.

पिछले साल मैंने उनको जन्मदिन पर ट्विटर पर बधाई दी थी. मैंने लिखा था, “आप भारत की सेवा इसी ऊर्जा और प्रतिबद्धता के साथ करते रहें. मैं आपकी राजनीति से हमेशा असहमत रहूंगा लेकिन सम्मान के दायरे में रहकर.”

कुछ ही घंटों बाद उन्होंने मुझे इसका जवाब दिया जिससे मैं काफी आश्चर्ययकित रहा गया. उन्होंने लिखा, “डॉ. थरूर शुक्रिया. हमारा लोकतंत्र सकारात्मक आलोचना के बिना है ही क्या ! वाद विवाद ही हमें मजबूत बनाते हैं.”

राजनीतिक मतभेदों के बावजूद अपने विपक्षियों तक पहुंचने की उनकी इस असामान्य व्यक्तिगत विशेषता ने मुझे सबसे ज्यादा हैरत में डाला. आखिरकार मैंने उनके जन्मदिन के मौके को चुना. उन्हें ये याद दिलाने के लिए हमारे बीच वैचारिक मतभेद हमेशा रहेंगे. लेकिन उन्होंने ना केवल उसे सकारात्मक रूप में लिया बल्कि उसे सुलह और सहशासन की एक मिसाल के तौर पर पेश कर दिया.

2014 में आए चुनाव नतीजों के दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ. शाम होते-होते चुनाव के नतीजे आने लगे और भाजपा की जीत लगभग साफ होने लगी तब मैंने एक तरह से गुस्से में भरा एक ट्वीट किया. मैंने लिखा कि

मैं अभी भी अपने चुनाव क्षेत्र में हूं, पार्टी कार्यकर्ताओं का उनकी मेहनत के लिए धन्यवाद दे रहा हूं लेकिन अब शायद बहुत देर हो चुकी है. नरेंद्र मोदी और भाजपा को उनकी जीत पर बहुत सारी शुभकामनाएं.

कुछ ही मिनटों में उन्होंने मुझे जवाब दिया, “बहुत शुक्रिया. आपकी जीत पर आपको भी बधाई. चलिए भारत को महान बनाने की दिशा में एक साथ मिलकर काम करते हैं !”

मैं चाहता हूं कि नरेंद्र मोदीजी इसी भाव के साथ काम करते रहें. सरकार और विपक्ष दोनों मिलकर एक बेहतर भारत का निर्माण करें. जब आपकी नीतियां देशहित में हों तो हमें आपका समर्थन करना चाहिए और अगर हमें लगे कि ऐसा नहीं है तो विरोध को सकारात्मक रूप में लिए जाने की जरूरत है. एक दूसरे के भाव का सम्मान करना होगा क्योंकि दोनों की ही मंजिल बेहतर भारत का निर्माण है.

'परिवार' का रोड़ा

कुछ मौकों को छोड़ दें तो अभी तक तो फिलहाल ऐसा नहीं हुआ है. लेकिन क्या ऐसा हो सकता है? सच तो यही है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद से मोदी ने अभी तक तो ऐसा कुछ भी नहीं कहा है जिससे ऐसा लगे कि वो समाज को बांटने की कोशश कर रहे हैं.

लेकिन उनके प्रशासन ने ऐसे लोगों को पूरी छूट दे रखी है जो समाज को बांटने की कोशशों में लगे हुए हैं. ये लोग स्कूलों की किताबों में हिन्दू नेताओं को हीरो बनाने में लगे हुए हैं, ये बता रहे हैं कि किस तरह से प्राचीन विज्ञान आज के विज्ञान से बेहतर था, राष्ट्रवाद का समर्थन कर रहे हैं और इस बात पर जोर दे रहे हैं कि भारत की पहचान एक हिन्दुराष्ट्र की तरह होनी चाहिए.

प्रधानमंत्री मोदी ने खुद कभी भी इस तरह की बातें नहीं की और ना ही इनका समर्थन किया. लेकिन क्या उनका परिवार उनके इन शब्दों पर अमल करना चाहता भी है?

मोदी की दुविधा

पंडित नेहरु ने एक बार कहा था कि बहुसंख्यक सांप्रदायिकता भारत के बहुलवादी लोकतंत्र के लिए खतरनाक साबित हो सकती है. मोदी खुद ही आरएसएस के प्रचारक रहे हैं लेकिन उन्होंने हमेशा अपने भाषणों को इस संगठन की सोच से अलग रखा है. लेकिन क्या वाकई वो उनका मकसद होता है, कहीं ये बिना किसी काम के केवल खोखले शब्द ही साबित हों.

इसी संदर्भ में पीएम मोदी की चुप्पी मुझे सबसे ज्यादा परेशान कर रही है. वो मीडिया को नकार ही नहीं रहे हैं, हालांकि जिस तरह से देश की मीडिया का हाल है वो शायद इसके लायक भी हैं.

लेकिन जो इससे भी बड़ी बात मुझे परेशान कर रही है वो ये है कि प्रधानमंत्री अल्पसंख्यकों को एक ऐसा संकेत देने का मौका खो रहे हैं जिससे उन्हें आश्वासन मिल सकता है और उन्हें इस आश्वासन की जरूरत भी है.

ये मुद्दा और भी ज्यादा बड़ा इसलिए हो जाता है क्योंकि वो निजी तौर पर तो अलग तरह का संदेश देते हैं लेकिन भारतीय मुस्लिम उनकी चुप्पी की वजह से एक अलगाव का भाव महसूस कर रहे हैं.

मैं हमेशा से ही इस बात पर ध्यान दिलाता आया हूं कि बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. उनके सामने हमेशा से एक मौलिक विरोधाभास रहता है.

एक प्रधानमंत्री होने के नाते उन्हें उदार सिद्धांतों को अपनाना होगा और इसके लिए उन्हें उन ताकतों का साथ छोड़ना होगा जिन्होंने उन्हें प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचाने में मदद की.

हिंदुत्व ब्रिगेड के प्रति उनका रवैया और बतौर प्रधानमंत्री उनकी जिम्मेदारियों के बीच मौजूद विरोधाभास साफ नजर आता है. वो खुद भले ही सही चीजें कहते रहें हों लेकिन वो कभी भी अपने साथ मौजूद कट्टर लोगों को कुछ नहीं कहेंगें. और इन कट्टर लोगों का विरोध ना करना ही उन्हें बढ़ावा देता है.

(फोटो: Reuters)

सबको साथ लेकर चलना

पीएम मोदी का यही अंतर्विरोध उनकी साख को कम कर रहा है. इससे उनकी वो छवि खराब हो रही है जिसमें वो खुद को एक ऐसी सरकार का नेता साबित कर सकें जो सभी के विकास के लिए प्रतिबद्ध है.

केवल इतना ही नहीं इस वजह से विदेशी निवेश पर भी असर पड़ रहा है क्योंकि विदेशों में ये खबरें फैल रही हैं कि भारत में असहनशीलता का माहौल है. ऐसे में सभी की छवि खराब हो रही है. उनके भाषणों और कथनों से तो यही लगता है कि उन्होंने फैसला कर लिया है कि उन्हें क्या चाहिए.

पीएम मोदी के अनुसार कम से कम कुछ समय के लिए ही सही लेकिन फिलहाल तो सरकार और विकास उनके लिए प्राथमिकता है. हिन्दू कट्टरता को अभी बैकसीट पर डाल दिया गया है.लेकिन इसका मतलब ये कतई नहीं है कि जीवनभर आरएसएस प्रचारक रहे मोदी अपने हिंदुत्व के प्रति किए वादों को भूल जाएंगे या फिर अपनी धारणा को अपने नाम वाले विवादित कोट की तरह नीलाम कर देंगे.

इससे ये समझ आता है कि अगर हिंदुत्व को लंबी दौड़ में जिताना है तो वो सरकार के कंधों पर ही किया जा सकता है और वो भी ऐसे कि जनता को दिखे कि ये सरकार विकास कर रही है. कम से कम अभी के लिए तो ऐसा ही लग रहा है कि उनकी तरफ से 'सब का साथ सब का विकास' स्लोगन को 'गर्व से कहो कि हम हिन्दू हैं' स्लोगन पर तरजीह दी जा रही है.

मेरा तो यही मानना है कि मोदी कुछ ऐसा ही करना चाह रहे हैं. लेकिन जैसे जैसे हम अगले चुनाव की तरफ बढ़ेंगे मुझे डर है कि राजनीतिक परिवार का जो ध्रुवीकरण का तर्क है वो प्रधानमंत्री की सबको साथ लेकर चलने वाली सोच पर भारी पड़ सकता है.

(शशि थरूर संयुक्त राष्ट्र में अंडर- सेक्रेट्री जनरल रह चुके हैं, वो कांग्रेस सांसद और लेखक भी हैं. यह लेखक के अपने निजी विचार है)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: undefined

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT