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89 का गणित जो सुलझा पाएगा, वही यूपी में सरकार बनाएगा

जानिए आखिर क्या है ये 89 सीटों का गणित जो बताएगा आपको कि उत्तरप्रदेश में किसकी सरकार बननी है

हर्षवर्धन त्रिपाठी
नजरिया
Updated:
(फोटो कोलाज: क्विंट हिंदी)
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(फोटो कोलाज: क्विंट हिंदी)
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उत्तर प्रदेश में किसकी सरकार बनेगी. ये सवाल किसी से भी पूछने पर वो यही कहेगा कि जिस रफ्तार में उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने का खेल बन-बिगड़ रहा है, उसमें अभी से ये बता पाना असंभव है कि किसकी सरकार बनने वाली है.

ये काफी हद तक ठीक भी लगता है क्योंकि, 2007 विधानसभा में मायावती को पूर्ण बहुमत, 2012 में अखिलेश यादव को उससे भी ज्यादा सीटें और 2014 के लोकसभा चुनाव में उसी उत्तर प्रदेश ने बीजेपी के लिए राजनीतिक चमत्कार वाला जनादेश दिया. इसलिए सही बात यही है कि यूपी की जनता के मन की बात समझना नामुमकिन नहीं तो मुश्किल जरूर है.

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव (फोटोः Reuters)

खेल 89 का !

लेकिन, इसी मुश्किल को समझने में 89 का एक आंकड़ा मिला जो, साफ-साफ बता देता है कि किसकी सरकार उत्तर प्रदेश में बनने जा रही है. 2007 में ये आंकड़ा 149 का था. लेकिन, 7 चरणों में हुए 2012 के विधानसभा चुनाव में रिकॉर्ड 60% मतदान ने 149 के आंकड़े को 89 का कर दिया.

89 का गणित: दरअसल ये वो 89 सीटें हैं जहां हार-जीत का अंतर 5000 से भी कम रहा है. अगर मत प्रतिशत के लिहाज से समझें, तो ये 3-4% के बीच कहीं बैठता है.

2012 में बुआ जी से भतीजे के हाथ में आई सत्ता में इसी 4% मत का पूरा मसला है. समाजवादी पार्टी को करीब 4% ज्यादा मत मिले और बहुजन समाज पार्टी के 4.5% कम.

2007 में 149 विधानसभा सीटें ऐसी थीं जहां हार-जीत का अंतर 5000 मतों से भी कम था. इन 149 सीटों में बीएसपी 64, एसपी 68, बीजेपी 20, कांग्रेस 6 और राष्ट्रीय लोकदल 3 सीटों पर जीती थी. यानी इन सीटों पर जीतने वाली पार्टी को दूसरे स्थान पर रहने वाली पार्टी से करीब 3-4% मत ही ज्यादा मिले थे.
और यही 149 सीटें दरअसल मायावती से अखिलेश की सफलता का असली सूत्र हैं. समाजवादी पार्टी को 2012 में करीब 4% ही ज्यादा मत मिले और बीएसपी को करीब 4.5% मतों का नुकसान हुआ. इसी का असर ये रहा कि बीएसपी के हाथ से वो सारी 64 सीटें निकल गईं, जहां अंतर 5000 मतों से भी कम का था.

2007 में बीजेपी को 51 सीटें मिलीं थीं और जब 2012 में 2% मत घटा, तो सीधे-सीधे 4 सीटें कम हो गईं. हां, कांग्रेस को जरूर 2007 के मुकाबले 3% मत और इसी वजह से 6 सीटों का फायदा हो गया था.

(फोटो: क्विंट हिंदी)

इसीलिए इतना तो तय है कि अब 2017 के विधानसभा चुनाव में भी वो 89 सीटें बड़ी महत्वपूर्ण होंगी, जहां हार-जीत का अंतर 3-4% ही रहा है. हालांकि, 2007 के मुकाबले 2012 में ऐसी विधानसभा सीटें घटी हैं. इसकी बड़ी वजह ये रही कि 2012 में उत्तर प्रदेश में रिकॉर्ड मतदान हुआ था.

सीधे-सीधे 2007 से 14% ज्यादा मतदाताओं ने अपनी सरकार चुनी. 2012 में 60% लोगों ने मत दिए थे. इसलिए 2007 के मुकाबले 2012 में 5000 मतों से कम हार-जीत के अंतर वाली सीटें बहुत घट गईं. 5000 कम मतों से विधायक बनाने वाली सीटें सीधें 149 से घटकर 89 रह गईं.

क्यों अहम हैं ये 89 सीटें

भले ही 2012 में 5000 से कम अंतर से हार-जीत वाली 89 सीटें ही हों. लेकिन, इनका महत्व 2007 की 149 सीटों से ज्यादा का है. इसकी सबसे बड़ी वजह तो यही है कि 2012 में पूरी तरह से यूपी के मतदाता के सामने सरकार के लिए एसपी और बीएसपी के बीच ही चुनाव करने का मन बन पाया था.

लेकिन, अब 2017 में लंबे समय बाद दोनों राष्ट्रीय पार्टियां भी उत्तर प्रदेश के चुनाव में बेहतर करती दिख रही है. लोकसभा चुनाव में चमत्कारी प्रदर्शन से बीजेपी तो पहले से ही सरकार बनाने का दावा ठोंक रही हैं. नई रणनीति के सहारे राहुल गांधी भी कांग्रेस का दावा बढ़ाने की कोशिश में लगे हैं.
साथ ही समाजवादी पार्टी के भीतर अखिलेश-शिवपाल का खुला झगड़ा भी अब खेल को ज्यादा रोचक बना रहा है. इसलिए 2012 में 5000 मतों से कम हार-जीत वाली सीटों का महत्व बहुत ज्यादा है.  

अब सबसे बड़ा सवाल तो यही होगा कि क्या पिछले चुनाव के रिकॉर्ड से ज्यादा मतदान इस साल होगा. अब अगर 60% से ज्यादा लोग उत्तर प्रदेश के चुनाव में मत डालते हैं, तो जाहिर है कि इन 89 सीटों पर सबसे पहले उलटफेर की गुंजाइश बन जाएगी.

कल्याण सिंह फैक्टर!

प्रधानमंत्री मोदी के साथ कल्याण सिंह (फोटो: PTI)

2012 में एक और महत्वपूर्ण बात थी कि कल्याण सिंह बीजेपी से अलग अपनी जनक्रांति पार्टी के बैनर पर चुनाव लड़ रहे थे.

इसकी वजह से अलीगढ़, बुलंदशहर, एटा, फिरोजाबाद, मैनपुरी, फर्रुखाबाद और बदायूं में करीब एक दर्जन सीटें ऐसी थीं, जहां बीजेपी और जनक्रांति पार्टी के प्रत्याशी एक दूसरे की वजह से हारे.डिबाई, अतरौली, भोजपुर, अमृतपुर, अनूपशहर, बुलंदशहर, कासगंज, अमनपुर, कायमगंज और फर्रुखाबाद ऐसी ही सीटें थीं, जहां बीजेपी और जनक्रांति पार्टी के प्रत्याशी के मत मिलकर जीते प्रत्याशी के मतों से ज्यादा थे.  

इसका एक उदाहरण देखिए बीजेपी के दिग्गज नेता ब्रह्मदत्त द्विवेदी के बेटे बीजेपी नेता सुनील द्विवेदी फर्रुखाबाद सीट से निर्दलीय प्रत्याशी विजय सिंह से सिर्फ 147 मतों से हार गए. जबकि, इसी सीट पर जनक्रांति पार्टी के प्रत्याशी मोहन अग्रवाल को 9405 मत मिले थे.

इसी तरह बुलंदशहर की सीट पर बीजेपी के वीरेंद्र सिंह सिरोही बीएसपी के मोहम्मद अलीम खान से 7000 मतों से हारे थे. जबकि, इसी सीट पर जनक्रांति पार्टी के संजीव राम को 20000 मत मिले थे. ऐसे ढेरों उदाहरण हैं. लेकिन, सबका लब्बोलुआब यही है कि 89 सीटें ही तय करेंगी कि कौन सरकार बनाएगा.

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Published: 20 Sep 2016,02:59 PM IST

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